[ राजीव सचान ]: गांधीनगर, गुजरात से लालकृष्ण आडवाणी के स्थान पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को उम्मीदवार बनाए जाने के बाद भाजपा के एक और पूर्व अध्यक्ष एवं बुजुर्ग नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी के बारे में यह स्पष्ट हो गया कि वह आम चुनाव नहीं लड़ने जा रहे हैैं। यह तब स्पष्ट हुआ जब डॉ. जोशी ने कानपुर के मतदाताओं को यह सूचित किया कि भाजपा महासचिव रामलाल ने उनसे कहा है कि उन्हें कानपुर या अन्यत्र कहीं से चुनाव नहीं लड़ना चाहिए। यह खबर आते ही यह रुदन और तेज हो गया कि देखिए, भाजपा अपने बुजुर्ग नेताओं की किस तरह उपेक्षा कर रही है। इस रुदन में विरोधी दलों के नेताओं के साथ-साथ भाजपा को नापसंद करने वाले बुद्धिजीवी भी शामिल हैैं। उनमें आडवाणी और जोशी के प्रति अचानक जिस तरह सहानुभूति उमड़ पड़ी है उससे हैरानी ही हो रही है।

भाजपा विरोधी राजनीतिक दल

भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों के जिन नेताओं को आडवाणी और जोशी को  उम्मीदवार न बनाए जाने पर कथित तौर पर दुख है उनमें आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी शामिल हैैं। उन्होंने कहा, ‘जिन्होंने घर बनाया उन्हीं बुजुर्गों को घर से निकाल दिया? जो अपने बुजुर्गों का नहीं हो सकता वह किसका होगा? क्या यही भारतीय सभ्यता है? हिंदू संस्कृति तो यह नहीं कहती कि बुजुर्गों को बेइज्जत करो।’ यह वही अरविंद केजरीवाल हैैं जिनके बारे में हर कोई इससे अवगत है कि उन्होंने राजनीति में जाने और अपनी पार्टी खड़ी करने के बाद बुजुर्ग नेता अन्ना हजारे का कितना मान-सम्मान किया? नि:संदेह यह भी किसी से छिपा नहीं कि उन्होंने प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव समेत अन्य नेताओं को एक तरह से धक्के देकर पार्टी से बाहर कर दिया था। ध्यान रहे कि प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण ने आम आदमी पार्टी की स्थापना यानी घर बनाते समय एक करोड़ रुपये का चंदा दिया था।

अपने नेता की उपेक्षा

शायद ही किसी को यह भ्रम हुआ हो कि अरविंद केजरीवाल इससे दुखी हैैं कि भाजपा लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को चुनाव मैदान में नहीं उतार रही है। वह तो बस भाजपा पर कटाक्ष करने का बहाना तलाश रहे थे। वह उन्हें मिल गया और उन्होंने बिना समय गंवाए उसे भुना लिया। यही काम कांग्रेस के नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने किया। यह बात और है कि सबको पता है कि कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के निधन के बाद किस तरह उनका अपमान किया था। उनके पार्थिव शरीर को कांग्रेस के दफ्तर लाने की भी इजाजत नहीं दी गई थी और उलटे यह कहा गया था कि उनके शव को जितनी जल्दी हो हैदराबाद ले जाएं। आखिर अपने नेता की ऐसी घोर उपेक्षा करने वाले किस मुंह से लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को उम्मीदवार न बनाए जाने पर भाजपा को कोस रहे हैैं?

कांग्रेसी नेताओं को तो यह भी पता होगा कि उनके एक और बुजुर्ग नेता सीताराम केसरी किस तरह खूब अपमानित किए गए थे। नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने भी आडवाणी और जोशी की कथित अनदेखी पर यह फरमाया कि परिवार आधारित उनके जैसे दल अपने बुजुर्गों का कहीं अधिक सम्मान करते हैैं। हालांकि सबने देखा है कि नेशनल कांफ्रेंस की तरह से परिवार आधारित समाजवादी पार्टी ने मुलायम सिंह और शिवपाल सिंह यादव का किस तरह सम्मान किया है?

कहना कठिन है कि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी चुनाव लड़ने के इच्छुक थे या नहीं, लेकिन बेहतर होता कि भाजपा नेतृत्व उन्हें खुद सूचित करता कि वह किन कारणों से उन्हें चुनाव मैदान में नहीं उतारना चाह रहा है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो उनका आहत होना स्वाभाविक है, लेकिन इससे भी बेहतर यह होता कि ये दोनों नेता खुद ही चुनाव न लड़ने की घोषणा कर देते और इसे लेकर संशय ही न पैदा होने देते कि उन्हें चुनाव लड़ने का अवसर मिलेगा या नहीं? ऐसा इसलिए करना चाहिए था, क्योंकि एक तो भाजपा 75 साल से अधिक आयु के नेताओं को सक्रिय राजनीति से किनारे करने की अघोषित नीति पर अमल करती आ रही है और दूसरे, इन दोनों नेताओं की आयु ऐसी नहीं कि वे चुनावी राजनीति के लिए जरूरी भागदौड़ आसानी से कर सकें।

युवाओं को मिले मौका

लालकृष्ण आडवाणी 90 साल से अधिक के हैैं तो मुरली मनोहर जोशी 85 के होने वाले हैैं। क्या यह सही समय नहीं था कि ये दोनों नेता युवाओं को आगे आने और उन्हें मौका देने की अपील करते हुए स्वत: ही चुनाव न लड़ने की घोषणा कर देते? नि:संदेह राजनीति की तरह जीवन के हर क्षेत्र में अनुभव की महत्ता होती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि राजनीति से रिटायर होने के बारे में सोचा ही न जाए। अगर 80-90 साल के नेता चुनाव मैदान में उतरते रहेंगे तो फिर युवाओं को मौका कब मिलेगा? यदि भारतीय राजनीति में सक्रिय 50-55 साल की आयु के नेताओं को भी युवा नेता कह दिया जाता है तो इसका यह मतलब नहीं कि 85-90 साल की आयु वाले नेता चुनावी राजनीति से रिटायर होने का नाम न लें।

यह हास्यास्पद है कि राजनीति में युवा चेहरों की कमी पर चिंता जताने वाले भी फिलहाल इस पर गम का इजहार करने में लगे हुए हैैं कि भाजपा ने न तो लालकृष्ण आडवाणी को उम्मीदवार बनाया और न ही मुरली मनोहर जोशी को। अगर भारत सर्वाधिक युवा आबादी वाला देश है तो फिर इसकी एक झलक चुनावी राजनीति में क्यों नहीं दिखनी चाहिए?

आडवाणी और जोशी

नि:संदेह यह कहना भी कठिन है कि भाजपा नेतृत्व ने लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को चुनाव मैदान में न उतारने का फैसला बुजुर्ग नेताओं को चुनावी राजनीति से दूर रखने की अपनी अघोषित नीति के तहत लिया या फिर वह इन दोनों नेताओं को चुनाव लड़ाना ही नहीं चाहता था। सच्चाई जो भी हो, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि किसी भी राजनीतिक दल ने उम्मीदवार चयन की कोई स्पष्ट रीति-नीति नहीं बना रखी है।

रिटायर होना सीखें

आखिर यह एक तथ्य है कि भाजपा ने आडवाणी और जोशी को तो चुनाव न लड़ाने का फैसला किया, लेकिन कई ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतार दिया जिनकी छवि ठीक नहीं मानी जाती। इनमें वह साक्षी महाराज भी हैैं जो अपने उलटे-सीधे बयानों से पार्टी को न जाने कितने बार शर्मिंदा कर चुके हैैं। लगता है नेताओं के चुनाव जीतने के साथ-साथ विद्रोह करके पार्टी का नुकसान करने की क्षमता का भी ध्यान रखा जाता है। भारतीय राजनीति में बदलाव बहुत मंथर गति से हो रहा है, लेकिन बुजुर्ग नेताओं से यह अपेक्षा करना गलत नहीं कि वे रिटायर होना सीखें।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )