[ राजीव सचान ]: पाकिस्तानी फिल्म “खुदा के लिए” भारत में भी रिलीज हुई थी। इसमें अभिनेता नसीरुद्दीन शाह का यह चर्चित डायलाग था- दीन में दाढ़ी है, दाढ़ी में दीन नहीं। शुक्र है कि यह पते की बात बागपत के सब इंस्पेक्टर इंतसार अली को समझ आ गई और बिना विभागीय इजाजत दाढ़ी रखने के कारण निलंबित होने के बाद उन्होंने उसे कटाना बेहतर समझा। ऐसा करके उन्होंने उन सब कट्टरपंथियों को निराश ही नहीं, नाराज भी किया, जो उनके निलंबन के बाद उन्हें इसके लिए उकसा रहे थे कि भले ही नौकरी चली जाए, लेकिन अपनी दाढ़ी सलामत रखना।

दाढ़ी न रखना शरीयत के हिसाब से जुर्म है और दाढ़ी रखकर कटवा देना उससे भी बड़ा जुर्म

इन कट्टरपंथी मौलाना, मौलवियों का जोर इसी पर था कि दाढ़ी न रखना शरीयत के हिसाब से जुर्म है और दाढ़ी रखकर कटवा देना उससे भी बड़ा जुर्म। इंतसार अली को उकसाने और उनसे हमदर्दी जताने के बहाने कट्टरता को खुराक देने वालों में देवबंद के एक उलमा, जमीयत उलमा के पदाधिकारी के अलावा अन्य अनेक वे लोग थे जिनके हिसाब से दारोगा जी से अन्याय तो हुआ ही, शरीयत की अनदेखी भी हुई।

यदि देश का पीएम दाढ़ी रख सकता है तो दारोगा क्यों नहीं

उनकी ओर से ऐसे कुतर्क भी देने शुरू कर दिए गए थे कि यदि देश का पीएम दाढ़ी रख सकता है तो दारोगा क्यों नहीं? कल्पना करें कि इंतसार अली अपनी दाढ़ी पर कायम रहते तो क्या होता? हैरानी नहीं कि यह मामला कथित इस्लामी मान्यताओं के निरादर के साथ-साथ भारत में मुसलमानों के उत्पीड़न में तब्दील होता। जब ऐसा होता तो शायद जाकिर नाइक (zakir naik) और उससे होड़ करने की कोशिश कर रहे पाकिस्तानी पीएम इमरान खान भी इंतसार अली के पक्ष में बोल पड़ते।

कट्टरपंथी फ्रांसीसी राष्ट्रपति पर इस्लामोफोबिया से ग्रस्त होने का आरोप मढ़ रहे हैं

इंतसार अली जैसे मामलों में कट्टरपंथी और किंतु-परंतु की आड़ लेकर उनकी ही भाषा बोलने वाले सेक्युलर और लिबरल तत्व किस तरह बिलबिलाकर बाहर आ जाते हैं, इसका सटीक उदाहरण है फ्रांस के खिलाफ जारी अभियान। जिन तत्वों ने पेरिस में शिक्षक का सिर कलम करने की खौफनाक घटना पर एक शब्द नहीं कहा, वे सब इन दिनों फ्रांसीसी राष्ट्रपति पर इस्लामोफोबिया (islamophobia) से ग्रस्त होने का आरोप मढ़ रहे हैं। इन सबकी मानें तो जो भी इस्लामोफोबिया जैसी किसी चीज से इन्कार करता है, वह मुसलमानों का विरोधी है। मुश्किल यह है कि ऐसे तत्वों का जितना विरोध होता है वे उतना ही उग्र रूप धारण करते हैं और चरमपंथ की ओर जाते हैं।

कट्टरता के जवाब में कट्टरता को बढ़ने से रोका जाए

जब सारी दुनिया के लिए यह एक गंभीर मसला बना हुआ है कि आखिर कट्टरपंथी तत्वों का कारगर तरीके से विरोध कैसे करें और एक तबके की कट्टरता के जवाब में दूसरे तबके की कट्टरता को बढ़ने से कैसे रोका जाए, तब कुछ लोग उम्मीद की किरण बनकर सामने आए हैं। ये खुद को नास्तिक, अनिश्वरवादी वगैरह कहते हैं और अकाट्य तर्कों और तथ्यों के साथ उन मजहबी तौर-तरीकों एवं मान्यताओं का खंडन करते हैं जिनकी आज के युग और सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं हो सकता। इनमें से कई खुद को एक्स मुस्लिम यानी पूर्व मुस्लिम बताते हैं।

इस्लामी देशों में मजहब छोड़ने वाले यानी एक्स मुस्लिम (Ex-Muslim) बढ़ रहे हैं

कई शोध-सर्वेक्षण यह बता रहे हैं कि दुनिया भर में और यहां तक कि इस्लामी देशों में भी मजहब छोड़ने वाले यानी एक्स मुस्लिम (Ex-Muslim) बढ़ रहे हैं। इनमें भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी भी हैं। चूंकि इन देशों और खासकर पाकिस्तान में रहकर बैर बढ़ाने वाली मजहबी मान्यताओं का सार्वजनिक रूप से विरोध करना आसान नहीं इसलिए या तो ये देश से बाहर रहकर मजहबी कट्टरता से लड़ रहे हैं या फिर अपनी पहचान छिपाकर। उनके यू ट्यूब चैनल, जैसे तर्कशील भारत- शकील प्रेम (Tarksheel Bharat-Shakeel Prem) , जफर हेरेटिक (Ex-Muslim Zafar Heretic), गालिब कमाल (Ghalib Kamal), पाकिस्तानी मुलहिद-हारिस सुल्तान, (Pakistani Mulhid) द उर्दू फ्रीथिंकर (The Urdu FreeThinker), एक्स मुस्लिम स्पार्टकस (ExMuslim Spartacus) आदि तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। शकील और जफर भारत से हैं तो शेष पाकिस्तान से, लेकिन वे आस्ट्र्रेलिया, कनाडा आदि देशों में रह रहे हैं।ये सब अपनी-अपनी तरह से न केवल मजहबी कट्टरता के खिलाफ अलख जगा रहे हैं, बल्कि अपने समाज के युवाओं को अपनी राह पर चलने के लिए प्रेरित भी कर रहे हैं।

धार्मिक अतिवाद से उसी समाज के लोग प्रभावी ढंग से लड़ सकते हैं

खुद जफर बमुश्किल 30 साल के हैं, लेकिन अपनी बात कहीं तार्किक, प्रभावी और संयत तरीके से रखते हैं। लोग इन मुक्तचिंतकों को सुन भी रहे हैं औऱ संवाद भी कर रहे हैं। निःसंदेह सभी इनसे सहमत नहीं होते, लेकिन कुछ इनके तर्कों के कायल भी होते हैं और जाहिर है कि कुछ इन्हें धमकाते भी हैं। वास्तव में ये वे लोग हैं जो जोखिम उठाकर जाकिर नाइक जैसे धर्मांध तत्वों की ओर से फैलाए जा रहे जहर का इलाज कर रहे हैं। इनका मत है कि धार्मिक अतिवाद से उसी समाज के लोग प्रभावी ढंग से लड़ सकते हैं। इनका यह भी कहना है कि हमें मुस्लिम समाज नहीं, बल्कि वह जिन सदियों पुरानी अवैज्ञानिक मान्यताओं-परंपराओं में जकड़े हैं उनके विरोधी के तौर पर देखा जाना चाहिए।

एक दिन आएगा जब हर मत-मजहब की कट्टरता पर लगाम लगेगी और दुनिया बदलेगी

किसी को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि खुद को नास्तिक (atheist) कहने वाले केवल अपने ही मत-मजहब की कुरीतियों और कट्टरता के खिलाफ बोलते हैं। ये नास्तिक, अनीश्वरवादी (agnostic) और इंसानियत (humanity) को सबसे बड़ा धर्म मानने वाले अगर यह कहते हैं कि दाढ़ी और टोपी से कुछ हासिल नहीं होना तो यह भी कहते हैं कि जनेऊ और चोटी से भी कोई लाभ नहीं। ये जैसे घोड़े के उड़ने की बात फिजूल बताते हैं वैसे ही सर्प या वानर के आसमान में विचरण करने की दलील खारिज करते हैं। धर्मग्रंथों के बजाय ये विज्ञान पर बल देते हैं और उसे ही शांति और प्रगति का जरिया बताते हैं। ये इस यकीन से भरे हैं कि एक दिन आएगा जब हर मत-मजहब की कट्टरता पर लगाम लगेगी और दुनिया बदलेगी। निश्चित तौर पर यह तब होगा जब इन्हें संरक्षण और प्रोत्साहन मिलेगा।

एक की कट्टरता के जवाब में दूसरा कट्टर बन रहा है

वास्तव में इन्हें सहयोग-समर्थन की दरकार एलजीबीटी समुदाय से भी कहीं अधिक इसलिए है, क्योंकि ये दुनिया को बेहतर बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। ये अपनी नहीं, हम सबकी लड़ाई लड़ रहे हैं। इस लड़ाई को आसान बनाने के लिए यह भी जरूरी है कि फर्जी और पक्षपाती किस्म के सेक्युलरिज्म (pseudo secularism) से जल्द से जल्द पीछा छुड़ाया जाए। इसी के साथ इस तरह की खोखली दलीलों से बाज आया जाए कि सारे मजहब एक ही बात तो कहते हैं। यह निरा झूठ है और इसीलिए दुनिया में इतनी कलह है और एक की कट्टरता के जवाब में दूसरा कट्टर बन रहा है।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )