[ क्षमा शर्मा ]: हमारी पीढ़ी की स्त्रियां जब पलटकर देखती हैं तो उन्हें अपने गांवोंं, कस्बों और नगरों में ऐसी बेशुमार स्त्रियां नजर आती हैं जिनके पास काम ही काम थे। जैसे, गाय-भैैंस का दूध दुहने से लेकर उनके दाना, पानी, नहलाने का बंदोबस्त करना, बदलते मौसम की मार से उन्हें बचाना, गोबर से उपले थापना, उसके साथ पीली मिट्टी मिलाकर कच्चे घरों की लिपाई-पुताई करना, संयुक्त परिवारों का खाना पकाना, कपड़े धोना, घर की साफ-सफई करना। इसी तरह मौसम के हिसाब से थोक में दाल, चावल, मसाले खरीदकर उन्हें सुखाना, साफ करना, चक्की पर पीसना, दालों, मसालों में कीड़े न लगें, इसके लिए उन पर हल्के हाथ से तेल लगाना, फिर उन्हें ठंडा करके कनस्तरों, डब्बों में भरना।

महिलाओं के पास थे काम ही काम

इसके अलावा मौसमी अचार, पापड़, बड़ियां बनाना, स्वेटर बुनना, कपड़े सिलना और पल-पल आते तीज-त्योहारों से जुड़े खान-पान तैयार करना, घर में वक्त-बेवक्त आए मेहमानों का स्वागत-सत्कार करना, अपने बच्चों और रिश्तेदारों के बच्चों की देखभाल करना। कुल मिलाकर उनके पास काम ही काम थे। इसके चलते इन महिलाओं के जीवन में जैसे आराम नाम का शब्द ही नहीं था। बहुत से लोग कहते हैं कि इसी परिश्रम के कारण अक्सर उन महिलाओं को कोई गंभीर रोग नहीं होते थे और उनका जीवन भी लंबा होता था।

काम के बावजूद महिलाएं पुरुषों पर थीं निर्भर

हालांकि यह भी सच है कि उन दिनों औरतों के काम को काम की तरह देखने का रिवाज नहीं था। उनके सारे काम कर्तव्य की श्रेणी में आते थे, जिन्हें उन्हें न केवल बीमारी-हारी के दौरान, बल्कि कई बार जान देकर भी निबाहना पड़ता था। इसके अलावा चूंकि घरेलू काम से कोई आय नहीं होती थी इसलिए उनके कामों की कोई शिनाख्त भी नहीं होती थी। वे फ्री के खाते में जाते थे। हाड़तोड़ काम के बावजूद हाथ में पैसा न होने के कारण महिलाएं मामूली जरूरतों के लिए भी पुरुषों पर निर्भर थीं। इसीलिए यह विचार सामने आने लगा कि महिलाओं का पैसा कमाना कितना जरूरी है? इसीलिए जबसे महिलाओं की शिक्षा और उनकी आत्मनिर्भरता की लहर चली तबसे घर के काम औरतों की जिंदगी से दूर होते चले गए। घर की जरूरतों को पूरा करने से लेकर घरेलू उपयोग की वे चीजें जिन्हें महिलाएं तैयार करती थीं, उन्हें बाजार से खरीदा जाने लगा।

तकनीक ने बना दिया घरेलू कामों को आसान

एक वक्त ऐसा भी आया है कि घर के कामों को करना हैसियत से भी जोड़ दिया गया। घर का काम खुद करते हैं, इसका मतलब आपकी हैसियत कमजोर है और आप घरेलू कामों के लिए नौकर का खर्चा नहीं उठा सकते। एक यह तर्क भी चल निकला है कि इतनी पढ़ाई-लिखाई क्या इसलिए की है कि रात-दिन खाना बनाएं और घर के कामों के लिए भाग-दौड़ करती रहें? शायद इसीलिए इन दिनों हम देखते हैं कि जो परिवार खाना बनाने के लिए कुक रख सकते हैं वे कुक रखते हैं। जो खरीद सकते हैं वे उसे बाजार से खरीदते हैं। इसके अलावा तकनीक ने भी दुनियाभर में घरेलू कामों को आसान बनाया है। गैस, माइक्रोवेव, कुकर, मिक्सी, फ्रिज, कपड़े धोने की मशीन आदि ऐसी ही सुविधाएं हैं, लेकिन स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं कि अब कम काम के कारण महिलाएं उन रोगों का शिकार हो रही हैं जो अक्सर पुरुषों को होते थे। इसका बड़ा कारण यह है कि जितनी कैलोरी वे खाती हैं, वे खर्च नहीं होतीं। मोटापा बढ़ता है, उससे निपटने के लिए जिम आदि जाने पर अतिरिक्त खर्च तो होता ही है, अलग से समय भी निकालना पड़ता है, जबकि घर के तरह-तरह के काम व्यायाम ही थे।

महिलाओं की विशेषज्ञता खत्म

बदलाव के इस दौर में जो बात हैरत में डालती है वह यह है कि औरतों के जितने भी काम थे उन सब पर कंपनियों और प्रकारांतर से पुरुषों का कब्जा हो गया है। अब बड़े-बड़े होटलों, ढाबों, यहां तक कि घरों में भी पुरुष ही खाना पकाते दिखते हैं। वे ही सिलाई, कढ़ाई करते, पशुओं की देखभाल करते नजर आते हैं। दूध का लगभग सारा व्यवसाय पुरुषों के हवाले है। स्वेटर बनाने से लेकर कपड़े सिलने तक के क्षेत्र में पुरुष छाए हुए हैं। वे ही बड़े-बड़े शेफ और फैशन डिजाइनर हैं। महिलाओं ने जो विशेषज्ञता सदियों में प्राप्त की थी वह खत्म होती जा रही है और अगली पीढ़ियां तो हो सकता है कि इस बात पर आश्चर्य करें कि कभी महिलाएंं खाना पकाना जानती थीं और वे खेतीबारी का काम भी कर सकती थीं।

तकनीक, मशीन और पुरुषों ने छीन लिया औरतों के काम

तकनीक, मशीन और पुरुषों ने औरतों के सारे काम छीन लिए हैं। भले ही इसे औरतों की मुक्ति के रूप में देखा जाता हो, लेकिन यह अपनी कलाकारी से हाथ धोना भी है। इसे आज नहीं, बहुत बाद में महसूस किया जाएगा, लेकिन तब तक सब विस्मृति के गर्भ में जा चुका होगा।

( लेखिका साहित्यकार हैैं )