प्रो. निरंजन कुमार। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम के पिछले संस्करण में राष्ट्र निर्माण के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात कही, लेकिन सकारात्मक के बजाय सनसनीखेज मुद्दों में दिलचस्पी रखने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों-विश्लेषकों का ध्यान उस पर नहीं गया। प्रधानमंत्री ने देश के विकास के लिए आजादी की लड़ाई के समय जैसी एकजुटता की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि जैसे महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन चला था, वैसे ही आज हर भारतीय को भारत जोड़ो आंदोलन में शामिल होना है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित बंधुत्व एवं राष्ट्र की एकता और अखंडता को प्रतिध्वनित करता मोदी का भारत जोड़ो आंदोलन का आह्वान तब और भी जरूरी है, जब जाति, मजहब, क्षेत्र और भाषा आदि के बहाने ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ और नेताओं-बुद्धिजीवियों की एक जमात भारत को तोड़ने में लगी है। इस भारत जोड़ो आंदोलन के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और आíथक इत्यादि कई आयाम हो सकते हैं, परंतु शिक्षा क्षेत्र की इसमें अहम भूमिका होगी।

भारत जोड़ो आंदोलन में शैक्षिक धरातल पर पहला कार्य भाषाई शिक्षण के स्तर पर करना होगा। भाषा के नाम पर राजनीतिक उन्माद फैलाने की कोशिशें होती रहती हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी)-2020 में प्रस्तावित त्रिभाषा नीति ‘भारत जोड़ो’ में प्रभावकारी हो सकती है। इसके अनुसार स्कूलों में अंग्रेजी के अलावा न्यूनतम दो भारतीय भाषाएं पढ़ाई जाएंगी। गैर-हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी और राज्य की क्षेत्रीय भाषा के अलावा अन्य भारतीय भाषा के रूप में हिंदी ही अपनाई जाएगी, क्योंकि व्यापार, रोजगार और देशव्यापी उपयोगिता की दृष्टि से हिंदी का महत्व सर्वविदित है।

हिंदी प्रदेशों में अंग्रेजी, हिंदी और तीसरी भाषा के रूप में किसी राज्य की क्षेत्रीय भाषा के बजाय संस्कृत पढ़ाए जाने की संभावना है, जैसा कि अभी भी हो रहा है, लेकिन राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से यह उचित नहीं कि हिंदीभाषी राज्यों के विद्यार्थी हिंदीतर भाषाएं सीखें ही नहीं। त्रिभाषा नीति के अंतर्गत हिंदी प्रदेशों में संस्कृत की जगह हिंदीतर राज्यों की कोई भाषा पढ़ाई जाए। अतीत में हिंदी प्रदेशों में तीसरी भाषा के रूप में क्षेत्रीय भाषाओं को न पढ़ाने का प्रमुख कारण शिक्षकों का अभाव था, लेकिन आनलाइन शिक्षण से यह समस्या हल हो जाएगी। इस कदम से भारत जोड़ो अभियान और राष्ट्रीय एकता के भाव को बल मिलेगा।

भारत जोड़ो आंदोलन में पाठ्यक्रम की भी महती भूमिका होगी। दुर्भाग्य से मैकाले की बांटो और राज करो नीति और बाद में मार्क्‍सवादी और अन्य पश्चिमी विचारधाराओं के प्रभाव में जिस तरह के पाठ्यक्रम, विमर्श और अवधारणाओं का निर्माण हुआ, वे राष्ट्रीयता एवं भारतीयता की भावना को मजबूत करने और सांस्कृतिक-सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के बजाय उन्हें कमजोर करती हैं। उदाहरण के लिए आर्य और द्रविड़ को दो पृथक और परस्पर विरोधी संस्कृतियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ब्रिटिश इतिहासकारों ने भारतीयों की मनो-सांस्कृतिक एकता को तोड़ने के लिए आर्यो को बाहर से आया बताया था।

ध्यातव्य है कि संस्कृत में ‘द्रविड़’ शब्द दक्षिण भारत के भूभाग के लिए प्रयुक्त होता था। स्वामी विवेकानंद ने मद्रास के भाषण में कहा था कि ‘उत्तर भारत के आर्य और दक्षिण के द्रविड़ अलग-अलग जातियां नहीं हैं, दोनों एक ही हैं।’ भारतीय संस्कृति और वांग्मय में इसके सैकड़ों उदाहरण हैं। हिंदुओं के चार पवित्र धामों में से एक धाम तमिलनाडु का रामेश्वरम उत्तर भारत में अवतार लिए श्रीराम के नाम पर ही है। महान तमिल आदिकवि तिरुवल्लुवर की रचनाओं में विष्णु, लक्ष्मी, इंद्र आदि हंिदूू धर्म के प्रतीकों के अलावा अन्य तत्व उपस्थित हैं तो केरल के आदि शंकराचार्य की दक्षिण में जितनी मान्यता है उससे कम उत्तर में नहीं। हाल में हरियाणा के राखीगढ़ी की खोदाई में मिले नरकंकाल-अवशेषों के डीएनए अध्ययन में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के अध्येताओं ने भी इस दावे को अस्वीकार किया है कि आर्य बाहर से भारत में आए थे।

इसी तरह पाठ्यक्रमों में वर्ण-जाति व्यवस्था संबंधी प्रस्तुतियों को देख सकते हैं। यह निर्विवाद है कि ऊंच-नीच का भेदभाव और छुआछूत हिंदू धर्म के अभिशाप हैं, जिनसे छुटकारा पाना ही होगा, लेकिन छुआछूत हमेशा नहीं थी। पुराणों के रचयिता महर्ष िवेदव्यास की माता तथाकथित निम्न जाति की थीं। मतंग ऋषि के पिता चांडाल थे। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं। जातिगत विमर्शो के पाठ्यक्रमों में ऐसे ¨बदुओं को सचेत रूप से छोड़ दिया गया। इन्हें समाहित करने से सामाजिक समरसता और भारत जोड़ो आंदोलन को शक्ति मिलेगी। इसी तरह स्कूली कक्षाओं में फ्रांस की जोन आफ आर्क को तो पढ़ाया जाता है, लेकिन नार्थ-ईस्ट की रानी गाइ¨दल्यू या कर्नाटक के कित्तुरु की रानी चेन्नम्मा के लिए जगह नहीं।

इसी तरह पाठ्यक्रमों में क्यों नहीं हैं 1857 संघर्ष के सेनानी बांके, गंगू बाबा या अन्य पिछड़ी जातियों के क्रांतिकारी? इन सबका उल्लेख उस नैरेटिव की काट होगा कि भारतीयों खासतौर से हिंदुओं में फूट थी और केवल तथाकथित उच्च वर्णो के लोग ही अंग्रेजों के खिलाफ थे। भारत जोड़ो आंदोलन में-एक भारत श्रेष्ठ भारत-अभियान भी प्रभावी हो सकता है, जिसके तहत प्रत्येक वर्ष एक राज्य के छात्रों का अपनी मातृभाषा से इतर किसी दूसरे राज्य से जुड़ने का विधान है। ‘भारत जोड़ो’ का एक अन्य आयाम हो सकता है देश के शीर्ष शैक्षणिक संस्थानों द्वारा सुदूर क्षेत्रों के स्कूल-कालेजों को अपने से जोड़कर उनके विद्याíथयों और शिक्षकों की प्रतिपालक के रूप में सहायता करना। ऐसी एक योजना ‘विद्या विस्तार’ नाम से दिल्ली विश्वविद्यालय में शुरू हो चुकी है।

(लेखक दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं)