[ संजय गुप्त ]: मोदी सरकार ने जिस राजनीतिक कौशल से अनारक्षित तबकों के लिए दस प्रतिशत आर्थिक आरक्षण का संविधान संशोधन विधेयक संसद से पारित कराया उसे उनका राजनीतिक ब्रह्मास्त्र कहा जा रहा है। इसलिए और भी, क्योंकि करीब-करीब सभी दल इस फैसले का समर्थन करने को बाध्य हुए। बावजूद इसके यह कहना कठिन है कि इस आरक्षण से देश की मूलभूत समस्याओं का समाधान होने वाला है।

संविधान निर्माताओं ने जब सामाजिक रूप से पिछड़े और मुख्यधारा से कटे वंचित लोगों यानी अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी तो वह दस वर्ष के लिए थी, लेकिन उसे बढ़ाया जाता रहा। इसके बाद 1990 के आसपास सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से कमजोर लोगों यानी अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। इससे गैर आरक्षित वर्ग जिसे आम तौर पर सवर्ण कहा जाता है, यह महसूस करने लगा कि उसकी अनदेखी हो रही है। इसकी एक वजह यह भी रही कि ओबीसी आरक्षण सरकारी नौकरियों के साथ शिक्षण संस्थाओं में भी लागू हुआ।

धीरे-धीरे आरक्षित वर्ग वोट बैैंक की राजनीति का जरिया बन गया। सभी राजनीतिक दल खुद को आरक्षित वर्ग का हितैषी साबित करने की होड़ में शामिल हो गए। एक समय जो भाजपा व्यापारियों और सवर्ण वर्ग में असर रखने वाली पार्टी मानी जाती थी उसने एससी-एसटी के साथ ओबीसी में भी अपनी पैठ बढ़ानी शुरू की। नरेंद्र मोदी के ओबीसी वर्ग से आने के कारण उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा का इस वर्ग के बीच आधार और मजबूत हुआ, लेकिन छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सत्ता गंवाने के बाद भाजपा को लगा कि अनारक्षित तबका उससे असंतुष्ट है। इसका कारण यह रहा कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में सवर्णों ने आरक्षण के खिलाफ आंदोलन तो छेड़ा ही, भाजपा से अपनी नाराजगी भी जाहिर की। यह नाराजगी मुख्यत: एससी-एसटी कानून में बदलाव के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने से उपजी। मप्र में कई स्थानों और खासकर ग्वालियर संभाग में भाजपा की हार का एक बड़ा कारण सवर्णों की नाराजगी माना गया। आर्थिक आरक्षण के फैसले के बाद यह माना जा रहा है कि मोदी सरकार सवर्णों की नाराजगी दूर करने और साथ ही यह संदेश देने में सफल रही कि उसे उनके भी हितों की भी चिंता है।

आर्थिक आरक्षण संबंधी 124वां संविधान संशोधन विधेयक महज दो दिनों में पारित होना मोदी सरकार की राजनीतिक सूझबूझ का उदाहरण है, लेकिन ऐसा नहीं है कि आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों को आरक्षण देने की बात पहले न की गई हो। कई राजनीतिक दल समय-समय पर इसकी मांग करते रहे। कांग्रेस ने तो अपने घोषणा पत्र में इसका वादा किया था। मायावती ने मुख्यमंत्री रहते समय मनमोहन सरकार को आर्थिक आरक्षण के लिए चिट्ठी लिखी थी। नीतीश कुमार की सरकार ने भी आर्थिक आरक्षण के लिए एक आयोग का गठन किया था। इसी तरह जब आर्थिक आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन हुए जैसे गुजरात में पाटीदारों का, हरियाणा में जाटों का और महाराष्ट्र में मराठों का तब कई राजनीतिक दलों ने उन्हें अपना समर्थन प्रदान किया।

आर्थिक आरक्षण पर संसद में बहस के दौरान विपक्ष ने सवाल तो उठाए, लेकिन कुल मिलाकर यही सवाल अधिक पूछा गया कि यह विधेयक पहले क्यों नहीं लाया गया, जबकि राजनीतिक दल राजनीतिक हित के ऐसे फैसले पहले भी लेते रहे हैैं। इस विधेयक पर राष्ट्रपति की मुहर लगते ही आर्थिक आरक्षण का कानून बन गया, लेकिन इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिल सकती है। एक याचिका तो दाखिल ही हो गई है। इसमें यह तर्क दिया गया है कि आर्थिक आरक्षण संविधान के मूल ढांचे के अनुकूल नहीं। सुप्रीम कोर्ट में आर्थिक आरक्षण कानून न टिक पाने की आशंकाओं को दूर करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने स्पष्ट किया है कि इसके पहले आर्थिक आरक्षण की जो पहल हुई वह संविधान के अनुच्छेद 15-16 में संशोधन के बगैर की गई। इस बार संविधान संशोधन भी किया गया है। आर्थिक आरक्षण को लेकर जो सवाल उठ रहे हैैं उनमें एक यह है कि आठ लाख रुपये की सालाना आमदनी संबंधी पात्रता का प्रावधान कितना उपयुक्त है? यह सवाल इसलिए उठा है, क्योंकि इस प्रावधान के तहत करीब 95 फीसद आबादी इस आरक्षण के दायरे में आ जाएगी।

आर्थिक आरक्षण पर बहस इसलिए भी हो रही है, क्योंकि सरकारी नौकरियां बढ़ने के बजाय कम हो रही हैैं और शिक्षण संस्थानों में पहले से ही पर्याप्त सीटें नहीं हैैं। इस बहस को निराधार नहीं कहा जा सकता, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि दस प्रतिशत आरक्षण से अब तक अनारक्षित रहे लोग लाभान्वित ही नहीं होंगे। यदि 49.5 प्रतिशत आरक्षण उपयुक्त है तो 59.5 प्रतिशत क्यों नहीं है? जहां तक आठ लाख सालाना आय सीमा का सवाल है तो यही सीमा ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर की है। अगर इतनी आय वाले ओबीसी वाले गरीब माने जा रहे तो अनारक्षित तबके के लोगों को क्यों नहीं माना जा सकता? 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की आय सीमा एक लाख रुपये तय की थी। यह उन्हीं राजनीतिक दलों के दबाव में बढ़ी जो आज यह कह रहे हैैं कि आठ लाख सालाना आमदनी वालों को गरीब कैसे कहा जा रहा है? आखिर ऐसी आपत्ति तब क्यों नहीं उठाई गई जब क्रीमी लेयर की आय सीमा में वृद्धि की गई? तब क्यों नहीं कहा गया कि गरीबों की प्रतिदिन की आमदनी तो 50 रुपये रुपये से कम है?

इस पर आश्चर्य नहीं कि आर्थिक आरक्षण का फैसला होते ही आयकर सीमा बढ़ाने की मांग हो रही है। यह सही है कि आर्थिक आरक्षण में आठ लाख रुपये की सालाना आमदनी परिवार की तय की गई है, व्यक्तिगत नहीं, लेकिन इसके बावजूद इसका औचित्य नहीं कि आयकर सीमा ढाई लाख रुपये ही बनी रहे। शायद इसी कारण सीआइआइ की ओर से आयकर सीमा बढ़ाने की मांग की गई। पता नहीं इस पर कितना ध्यान दिया जाएगा, लेकिन यह ध्यान रहे तो बेहतर कि आर्थिक आरक्षण भले ही तात्कालिक तौर पर राजनीतिक और सामाजिक सोच को बदलने वाला फैसला हो, इससे मेधा की अनदेखी होती है।

सैद्धांतिक तौर पर आर्थिक तौर पर पिछड़े लोग भी आरक्षण के हकदार बनते हैैं, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या आरक्षण का बढ़ता दायरा देश की मूल समस्याओं का समाधान करने में सक्षम होगा? यह विडंबना ही है कि इस पर कोई बहस नहीं हो रही कि आखिर आरक्षण का बढ़ता दायरा कम या खत्म कैसे होगा? स्पष्ट है कि आर्थिक आरक्षण को राजनीतिक रूप से मास्टर स्ट्रोक बताए जाने के बाद भी यह सवाल अपनी जगह कायम है कि आरक्षण देश को आगे ले जाने में कितना सहायक बनेगा।

यह ठीक है कि आर्थिक आरक्षण सरकार के राजनीतिक हित साध सकता है, लेकिन क्या वह सामाजिक और राष्ट्रीय हितों को भी पूरा कर सकता है? क्या इससे मेधा का सम्मान होगा और उसका पलायन रुकेगा? वास्तव में ऐसे एक नहीं, अनेक सवाल हैैं। इनमें प्रमुख यही है कि क्या युवाओं की बड़ी आबादी के लिए रोजगार के पर्याप्त अवसर हैैं?

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]