[ जीएन वाजपेयी ]: हाल में दिल्ली यात्रा के दौरान विमान में एक सज्जन मिले। वह काफी मुखर होकर यह शिकायत कर रहे थे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के बजाय स्वच्छ भारत अभियान जैसे कार्यक्रम पर जोर देकर अपना समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं? संभव है कि ऐसे सवाल कुछ अन्य लोग भी करते हों। ऐसे लोगों को समझना होगा कि किसी भी देश की आर्थिक प्रगति भौतिक एवं सामाजिक ढांचे की बेहतरी से तय होती है। आजादी के बाद से विभिन्न सरकारों ने अर्थव्यवस्था के इन दो बुनियादी स्तंभों के निर्माण से जुड़ी चुनौतियों से निपटने की तमाम कोशिश कीं, लेकिन उन्हें सीमित सफलता ही मिल पाई।

सामाजिक ढांचे में शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पेयजल और स्वच्छता जैसे विषय आते हैं। मोदी सरकार ने इस मुद्दे को बहुत ही रचनात्मक रूप से छुआ। आलोचक बेवजह ही सरकार के कुछ दूरगामी फैसलों का उपहास उड़ा रहे हैं। स्वच्छता विनम्रता की प्रतीक है जो सेहत को दुरुस्त रखते हुए अनुराग भाव बढ़ाती है। स्वच्छता और राष्ट्रीय प्रगति असल में एक-दूसरे की पूरक हैं।

स्वच्छ भारत अभियान का मकसद शहरों, गांवों और प्रत्येक आवास के इर्दगिर्द स्वच्छता सुनिश्चित करना है। अगर हमारे आसपास की जगह साफ-सुथरी रहती है तो वहां बीमारी पैदा करने वाले तमाम विषाणु नहीं पनपते। स्वच्छता तमाम बीमारियों से बचाव में ढाल का काम करती है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि इससे स्वास्थ्य की देखरेख पर खर्च घटता है और देश की छवि बेहतर बनने से पर्यटन और विदेशी निवेश में भी इजाफा होता है। इसके साथ ही पर्यावरण के लिए बेहतर परिस्थितियां बनती हैं। इन सभी की गणना स्वच्छता से जुड़े आर्थिक फायदों के रूप में की जा सकती है। अभी तक सरकारी स्तर पर स्वच्छता की चुनौती का सामना ग्र्राम पंचायत और स्थानीय निकाय संस्थाओं द्वारा ही किया जाता रहा है।

स्वच्छ भारत अभियान के जरिये मोदी सरकार राज्यों और व्यक्तिगत प्रयासों के माध्यम से स्वच्छता को आदत में शामिल कराने का प्रयास कर रही है ताकि लोग अपने आसपास साफ-सफाई रखें। स्वच्छ भारत के माध्यम से मौजूदा पीढ़ी की जागरूकता एक तरह से आने वाली पीढ़ियों में रोपा जाने वाला बीज है। इससे ही स्वच्छ भारत की नींव तैयार होगी।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में ग्लोबल एनवायरमेंट हेल्थ के पूर्व प्रोफेसर किर्क स्मिथ द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार किसी रसोई में उपले, लकड़ी और कोयले जैसे ईंधन पर खाना पकाने से एक दिन में चार सौ सिगरेट के बराबर धुआं निकलता है। स्मिथ ने इंडोर कुकिंग के प्रभावों पर भी व्यापक अध्ययन किया है। 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के एक तिहाई हिस्से में खाना पकाने के लिए बायोमास और उपलों का इस्तेमाल होता है। इससे आंतरिक स्तर पर प्रदूषण का स्तर बहुत ज्यादा बढ़ जाता है।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के शरित भौमिक ने अपने अध्ययन में लकड़ी और उपले जैसे ईंधन पर खाना पकाने के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए बहुत गंभीर परिणाम बताए हैं। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि तमाम भारतीय तपेदिक यानी टीबी और फेफड़ों के कैंसर जैसी बीमारियों से जूझ रहे हैं। समाज के आर्थिक रूप से कमजोर तबके को मुफ्त में गैस कनेक्शन उपलब्ध कराकर सरकार प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन पर लगाम लगा रही है। इससे बाल मृत्यु दर में कमी के साथ ही खाना पकाने वाली महिला का स्वास्थ्य भी बेहतर होगा और आसपास साफ-सफाई भी रहेगी।

अभी हाल में मैं अपने पुश्तैनी गांव गया। इस दौरान अपने बटाईदार के घर जाना हुआ, जो मेरी खेती की थोड़ी-बहुत जमीन का बंदोबस्त देखते हैं। वह समाज के सबसे गरीब तबके से ताल्लुक रखते हैं। मैं उनके घर में साफ-सफाई की स्थिति देखकर हैरान रह गया। मुझे वहां पहुंचे कुछ पल ही हुए होंगे कि उनकी बेटी ने मुझे चाय पेश की। जब मैंने पूछा कि इतनी जल्दी चाय कैसे तैयार हो गई तो जवाब मिला कि रसोई गैस कनेक्शन की मेहरबानी से यह संभव हुआ।

रसोई गैस पर खाना पकाने से महिलाओं को तमाम फायदे हुए हैं। उनका तमाम समय बचता है और वे इस दौरान किसी आर्थिक गतिविधि में शामिल हो सकती हैं। इससे लैंगिक समानता भी बढ़ेगी। साथ ही धुएं से मुक्ति के कारण पर्यावरण की सेहत भी सुधरेगी। इसी तरह सभी गांवों के विद्युतीकरण से जुड़ी सौभाग्य योजना के जरिये देश के गरीब से गरीब लोगों के घरों तक बिजली पहुंचाई जानी है। केरोसिन या किसी अन्य तरह के लैंप की रोशनी में पढ़ने या कोई और काम करने से आंखों पर बुरा असर पड़ता है। इससे घर की साफ-सफाई प्रभावित होती है। कुल मिलाकर लोगों की सेहत और उत्पादकता पर दुष्प्रभाव देखने को मिलते हैैं।

मनीला विश्वविद्यालय की एलेटा दोमदोम, फिलीपींस विश्वविद्यालय की वर्जिनिया आबियाद और विश्व बैंक के दाउग वेंस ने फिलीपींस में विद्युतीकरण के फायदों पर एक अध्ययन किया है। सर्वेक्षण में शामिल 98 प्रतिशत लोगों ने माना कि उनके बच्चों की शिक्षा के लिए बिजली बेहद महत्वपूर्ण है। करीब 95 फीसद ने माना कि बिजली की सुविधा मिलने से उनके बच्चों ने महीने में 14 घंटे अधिक पढ़ना शुरू कर दिया है। इससे हुए फायदों की फेहरिश्त यहीं खत्म नहीं हो जाती। बिजली मिलने से इन परिवारों की आमदनी में खासा इजाफा हुआ है। भारत में समस्या यह है कि जिन गांवों में बिजली मौजूद भी है वहां कनेक्शन लेने की राह में लागत और समय के मोर्चे पर तमाम समस्या का सामना करना पड़ता है। उम्मीद है कि सौभाग्य योजना से इन गड़बड़ियों पर विराम लगेगा।

हर घर में शौचालय बनाने के अभियान ने भी स्वच्छता के मिशन को परवान चढ़ाया है। घरों के आसपास साफ-सफाई होने से कई बीमारियों से रोकथाम हो जाती है। इससे आम लोगों के साथ ही पर्यावरण को भी लाभ पहुंचता है। महिलाओं की गरिमा और सुरक्षा के लिए भी घरों में शौचालय होना जरूरी है। इससे शौच के लिए बाहर निकलने में समय भी व्यर्थ नहीं होता। सामाजिक अवसंरचना के निर्माण में ये सभी कदम खासे अनूठे हैं। व्यक्तिगत प्रयासों और साथ ही सरकार द्वारा की जा रही कोशिश से स्वच्छता मिशन की सफलता की संभावनाएं उज्ज्वल दिखती हैं।

बावजूद इसके मोदी सरकार के आलोचक स्वच्छता अभियान के लिए उठाए गए कदमों में मीनमेख निकालने का कोई मौका नहीं छोड़ते। वे इन्हें महज कागजी और नारेबाजी मानकर खारिज करते हैं, लेकिन अर्थशास्त्र और बुनियादी ढांचा प्रबंधन का कोई भी जानकार इनकी प्रशंसा ही करेगा। अंतरराष्ट्रीय मीडिया से भी स्वच्छ भारत अभियान को खूब सराहना मिली है। स्वच्छता अभियान का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि प्रत्येक स्तर पर उत्पादकता में वृद्धि होगी।

नि:संदेह तमाम कारोबारी घराने, एनजीओ, परोपकारी संगठन और सामाजिक रूप से जागरूक आम लोग स्वच्छ भारत अभियान के तहत उठाए गए कदमों का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन अगर बड़ी संख्या में लोग इस मुहिम से जुड़ सकें तो फिर इसे एक आंदोलन में बदलने में मदद मिलने के साथ जल्द सफलता मिलने की जमीन भी तैयार होगी।

[ लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं ]