राहुल लाल। Crude Oil war: दिसंबर 2016 में रूस और सऊदी अरब ने वियना में 11 गैर ओपेक देशों और ओपेक देशों के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते का उद्देश्य था कि तेल की कीमतों को स्थिर रखा जाए। शुरुआत में यह डील छह माह के लिए की गई थी, लेकिन बाद में समय सीमा बढ़ती चली गई। इसे ही ‘ओपेक प्लस’ कहा गया। इसमें ओपेक और रूस के नेतृत्व वाले गैर ओपेक देश तेल उत्पादन को लेकर संतुलन बनाए रखने हेतु लगातार सहयोग करते रहते थे।

ओपेक प्लस की नींव वर्ष 2014 और 2016 में तेल की कीमतों में नाटकीय गिरावट ने रखी थी। दिसंबर 2019 में इस समझौते को 20 अप्रैल तक बढ़ा दिया गया था और उम्मीद की जा रही थी कि यह आगे भी जारी रहेगा। इस बीच रूस और सऊदी अरब ने अपने-अपने आर्थिक हितों के हिसाब से समझौतों पर हस्ताक्षर किए, लेकिन छह मार्च को अप्रत्याशित घटना सामने आई। वियना में सऊदी अरब ने रूस के सामने तेल उत्पादन में कटौती का प्रस्ताव रखा, जिससे मांग के हिसाब से कीमत को स्थिर रखा जा सके। रूस ने न केवल इस मांग को खारिज कर दिया, बल्कि उसने घोषणा कर दी कि अब वह पहले की तरह वियना समझौते से बंधा नहीं रहेगा। इसका नतीजा यह हुआ कि ओपेक प्लस खत्म हो गया। यहीं से रूस और सऊदी अरब में तेल को लेकर विवाद शुरू हुआ जिसे अब ऑयल वॉर कहा जा रहा है। सऊदी अरब और रूस के बीच तेल की कीमतों को लेकर तनाव और बढ़ता जा रहा है। हालांकि रूस के इस कदम के बाद सऊदी अरब ने तेल सस्ता कर आपूर्ति बढ़ाने की बात कही है।

अमेरिकी तेल उद्योग पर विपरीत प्रभाव : रूस और सऊदी अरब के इस विवाद का सबसे गहरा प्रभाव अमेरिका पर होगा। शेल ऑयल की वजह से अमेरिकातेल आयातक देश से अब तेल उत्पादक देश बन चुका है। एक नई तकनीक जिसे ‘फ्रेंकिंग’ कहा जाता है, इसका इस्तेमाल कर अमेरिका वर्ष 2018 में दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बन गया। अमेरिका ने अपनी कूटनीतिक ताकत का प्रयोग करके अपने यहां से तेल आयात करने वाले देशों की संख्या भी बढ़ा ली है।

दरअसल इस विवाद के द्वारा रूस और सऊदी अरब अपने तेल वर्चस्व में वृद्धि करना चाहते हैं, वहीं अमेरिका के शेल ऑयल इंडस्ट्री को तबाह भी करना चाहते हैं। अमेरिकी शेल ऑयल की कीमत 50 डॉलर प्रति बैरल से कम करना संभव नहीं है। जाहिर है सस्ता तेल अमेरिका के इस उद्योग को तबाह कर देगा। रूस का मानना है कि तेल की कीमतों में इजाफा और उत्पादन में कटौती के कारण अमेरिकी शेल ऑयल को उत्पादन बढ़ाने का मौका मिला। रूस का अनुमान है कि वर्तमान तेल मूल्यों पर अमेरिकी शेल ऑयल कंपनियां डूब जाएंगी या फिर उन्हें नए तरीके से संवारना होगा। शेल तेल का उत्पादन अमेरिका में कुटीर उद्योग के तहत होता है।

सऊदी अरब और रूस पर प्रभाव : क्या इस विवाद में सऊदी अरब और रूस अपना नुकसान कर रहे हैं? सऊदी अरब के पास इतना बजट है कि अगर तेल की कीमतें कम रहती हैं तो अर्थव्यवस्था को संभाल ले। हालांकि उसका बजट घाटा पहले ही 50 अरब डॉलर है। अगर तेल की कीमतें गिरती रहीं तो उसे 70 से 120 अरब डॉलर वार्षिक का नुकसान हो सकता है। सऊदी अरब ने उत्पादन और निर्यात में बढ़त बना ली है, इसलिए उसे बहुत अधिक नुकसान होता नहीं दिख रहा है। वहीं रूस ने बीते पांच वर्षों में अपने बजट को इस तरह नियंत्रित किया है कि वो 550 अरब डॉलर अपने खजाने में जुटाने में सफल रहा है, ताकि भविष्य में एक दशक तक भी तेल की कीमतें गिरकर 25 से 30 डॉलर प्रति बैरल रहीं, तो भी उसे बहुत नुकसान न झेलना पड़े।

बीते सप्ताह कच्चे तेल की कीमत 30 डॉलर प्रति बैरल थीं। अगर ये घटकर 27 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गया, तो रूस को अपना बजट पूर्ववत बनाए रखने के लिए हर साल फंड से 20 अरब डॉलर निकालने होंगे। रूस ने हाल के वर्षों में विकास पर स्थिरता लाने पर जोर दिया है और कई मायनों में वर्तमान हालत पहले के मुकाबले बेहतर हैं। सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था 90 प्रतिशत तेल पर निर्भर है, जबकि रूस की अर्थव्यवस्था में तेल का योगदान केवल 16 प्रतिशत है। इस तरह इस संकट से सऊदी अरब ज्यादा नुकसान में है। रूस में पुतिन ने हाल में जो संवैधानिक संशोधन किए हैं, उससे यह सुनिश्चित हो गया है कि वह 2036 तक रूस के सर्वोच्च नेता बने रहेंगे। पुतिन की महत्वाकांक्षा रूस को फिर से महाशक्ति का दर्जा दिलाने की रही है। रूस को ताकतवर बनाने में पूर्व में तेल की चढ़ती कीमतों ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। क्या इस बार भी वे तेल के अस्त्र का उपयोग ऐसी ही कामयाबी के साथ कर सकेंगे? इस संपूर्ण मामले में अमेरिका की प्रतिक्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण होगी।

यूरोप अभी इस स्थिति में नहीं है कि वह एक संगठित समूह के रूप में आचरण कर सके। उसकी ऊर्जा सुरक्षा को अमेरिका किस तरह सुरक्षित रखेगा, यह भी स्पष्ट नहीं है। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के मुताबिक इस संकट के कारण पिछली सदी के नौवें दशक के बाद से नॉर्वे की मुद्रा में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई है। मेक्सिको की मुद्रा पेसो में भी आठ प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। अगर हालात ऐसे ही बने रहे तो सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण की योजना को पलीता लग सकता है।

मोहम्मद बिन सलमान की ज्यादातर योजनाओं के लिए पैसा आरामको के शेयरों की बिक्री से आ रहा है। लेकिन दांव पर दूसरे तेल उत्पादक देशों का भी बहुत कुछ लगा हुआ है। इस संकट का दूरगामी परिणाम पूरी दुनिया के लिए नकारात्मक ही होंगे। इसलिए भारत के लिए भी यही अच्छा होगा कि दुनिया की अर्थव्यवस्था ठीक रहे, जिसमें खाड़ी देशों सहित अमेरिका की भी अर्थव्यवस्था शामिल है। जब तक तेल के मूल्य कम हो रहे हैं, उसके कुछ हिस्से का हस्तांतरण सरकार द्वारा जनता को भी किया जाना है, जबकि कुछ हिस्से का प्रयोग सरकार द्वारा राजकोषीय घाटा को कम करने के लिए भी किया जाना चाहिए। भारत सरकार को इन दोनों में संतुलन बनाकर चलना चाहिए, क्योंकि तेल मूल्यों में कटौती से जनता की क्रय शक्ति में वृद्धि होगी, जो अर्थव्यवस्था के चक्र को गति प्रदान करेगी। वहीं अगर सरकार इस दौरान एक्साइज में वृद्धि करके अतिरिक्तराजस्व जमा करती है और उस राशि को आधारभूत संरचना पर खर्च करती है, तो इससे भी अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। सरकार को हर चीज को संपूर्णता में देखना चाहिए।

चीन और अमेरिका ट्रेड वॉर के बाद दुनिया सऊदी अरब व रूस के ऑयल वॉर से जूझ रही है। इससे कच्चे तेल की कीमत औंधे मुंह गिर गई है। खाड़ी युद्ध के बाद पहली बार तेल के मूल्य में इस कदर गिरावट आई है। जनवरी से अब तक कच्चे तेल के मूल्यों में 45 फीसद की कमी आ चुकी है। तेल की कीमतों को ये झटका ऐसे वक्त लगा है, जब दुनिया कोरोना संकट का सामना कर रही है। वर्तमान में भारत को जरूर इसका लाभ मिलता दिख रहा है, लेकिन वैश्विक अर्थव्यवस्था इससे प्रभावित होगी।

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