[ संजय गुप्त ]: आम चुनाव के लिए मतदान की तिथियां जैसे-जैसे करीब आ रही हैं, जनता को रिझाने के लिए लोक-लुभावन घोषणाओं का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। इसमें कोई बुराई नहीं कि राजनीतिक दल मतदाताओं को रिझाने की कोशिश करें, लेकिन अगर वे आर्थिक नियमों की अनदेखी करके लोक-लुभावन वादे करेंगे तो फिर जनता में भ्रम ही फैलेगा। अपने देश में बहुत कम मतदाता चुनावी वादों की गहन परख कर पाते हैैं। इसी कारण तमाम मतदाता लोक-लुभावन घोषणाओं से प्रभावित होकर मतदान करते हैैं।

पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गरीबों को एक निश्चित न्यूनतम आय देने की अपनी योजना का एलान किया। उन्होंने कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो देश के 20 प्रतिशत सबसे गरीब परिवारों को सालाना 72 हजार रुपये दिए जाएंगे। उनके हिसाब से ऐसे अति गरीब परिवारों की संख्या पांच करोड़ है और प्रत्येक परिवार के पांच सदस्य जोड़ लिए जाएं तो इस योजना से लाभान्वित होने वालों की संख्या 25 करोड़ होगी। इस योजना की घोषणा करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि आप हैरान रह गए होंगे। पत्रकारों का तो पता नहीं, लेकिन तमाम अर्थशास्त्री और देश की वित्तीय सेहत की जानकारी रखने वाले इस पर जरूर हैरान रह गए होंगे।

इससे इन्कार नहीं कि देश में गरीबों की अच्छी-खासी संख्या है और उन्हें सरकारी मदद की भी जरूरत है, लेकिन आखिर पांच करोड़ परिवारों को सालाना 72 हजार रुपये देने के लिए हर साल तीन लाख साठ हजार करोड़ रुपये का प्रबंध कहां से होगा? क्या सभी तरह की सब्सिडी खत्म कर दी जाएगी या फिर आर्थिक रूप से सभी समर्थ लोगों पर टैक्स बढ़ा दिया जाएगा? इन सवालों का कोई जवाब नहीं है। यह भी स्पष्ट नहीं कि इसकी गणना कैसे की जाएगी कि किसी परिवार की मासिक आय 12 हजार रुपये से कम है?

राहुल गांधी की मानें तो इसका आकलन कर लिया गया है कि न्यूनतम आय योजना को कैसे संचालित करना है, लेकिन इस बारे में उन्होंने कुछ स्पष्ट नहीं किया। जब इस योजना को लेकर सवाल उठे तो कांग्र्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा कि इस योजना के क्रियान्वयन से अन्य तरह की सब्सिडी में कटौती नहीं होगी। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के अनुसार देश के पास इतनी क्षमता है कि इस योजना पर अमल किया जा सके और जानकारों का एक समूह इस योजना की रूप-रेखा तैयार कर रहा है। क्या इसका मतलब यह है कि बगैर रूप-रेखा तैयार किए योजना की घोषणा कर दी गई? सच्चाई जो भी हो, अन्य सब्सिडी में कटौती किए बगैर इस योजना को लागू करने का मतलब है नोट छापकर जनता को बांटना। इस स्थिति में मुद्रास्फीति बढ़ेगी, राजकोषीय घाटे में दो प्रतिशत की और वृद्धि हो सकती है।

स्पष्ट है कि महंगाई बढ़ने से लोगों की क्रय शक्ति घटेगी। इस तरह अर्थव्यवस्था कमजोर होगी और गरीबों को दी जाने वाली राहत का असर भी कम होगा। अगर इस योजना को जबरन लागू किया जाता है तो अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचने के साथ यह भी हो सकता है कि गरीब तबका केवल इस योजना के भरोसे रहकर बैठ जाए और मेहनत करने से तौबा कर ले। यह एक तथ्य है कि मनरेगा लागू होने के बाद कुछ समय तक ऐसा ही देखने को मिला था। देश के कई हिस्सों में खेतिहर मजदूरों और श्रमिकों की कमी महसूस की गई थी। राहुल गांधी और उनके सहयोगी कुछ भी दावा करें, लगता यही है कि इस योजना पर विचार करते समय अर्थव्यवस्था की सेहत का ध्यान नहीं रखा गया। इसके बावजूद इससे इन्कार नहीं कि कुछ लोग और खासकर गरीब तबका इस योजना से आकर्षित हो सकता है।

नि:संदेह गरीबी दूर होनी चाहिए, लेकिन जरूरत गरीब तबके को आत्मनिर्भर बनाने के ठोस उपाय करने की है, न कि उसे सब्सिडी की बैसाखी पकड़ाने की। दुर्भाग्य से आजादी के बाद लंबे समय तक यही किया गया। नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक गरीबी दूर करने का वादा करती रहीं, लेकिन वह दूर नहीं हुई। इसका कारण वे आर्थिक नीतियां रहीं जिनसे देश का आर्थिक विकास बाधित रहा। सुस्त आर्थिक रफ्तार के कारण ही देश की विकास दर का उपहास उड़ाते हुए उसे हिंदू विकास दर कहा जाता था। कम से कम कांग्रेस के मौजूदा नेताओं को तो यह पता होना चाहिए कि गरीबी इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे से नहीं, बल्कि नरसिंह राव सरकार की नई आर्थिक नीतियों से दूर होनी शुरू हुई।

कांग्रेस अध्यक्ष ने मनरेगा का जिक्र करते हुए कहा कि उसी तर्ज पर उनकी नई योजना गरीबी पर सर्जिकल स्ट्राइक करेगी। अच्छा होता कि वह यह भी बताते कि मनरेगा के तहत जो काम कराए गए उससे कहीं पर भी बुनियादी ढांचे का निर्माण क्यों नहीं हो सका? यह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी कि संप्रग शासन के दौरान मनरेगा के तहत जो राशि गरीबी दूर करने के नाम पर वितरित की गई उससे गरीबी दूर करने में कोई खास सफलता नहीं मिली। मनरेगा लागू होने के बाद यह भी देखने को मिला कि गरीब तबके के एक वर्ग ने कर्मठता का परित्याग कर दिया।

कोई भी देश आर्थिक प्रगति तभी करता है जब उसके नागरिक अपने बलबूते अपनी आमदनी बढ़ाने की कोशिश करते हैैं। मुश्किल यह है कि कांग्रेस गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने वाली योजनाओं की पैरवी मुश्किल से ही करती है। यह एक सच्चाई है कि वह बार-बार कर्ज माफी जैसी योजनाएं लेकर सामने आती हैै। वह इससे अपरिचित नहीं कि कर्ज माफी से किसानों का भला नहीं होता। उलटे वे बार-बार कर्ज लेने को बाध्य होते हैैं। अब तो स्थिति यह है कि चुनाव वाले राज्यों में समर्थ किसान भी कर्ज चुकाने से बचते हैैं।

क्या गरीबों को सालाना 72 हजार रुपये देने की योजना बनाते समय यह ध्यान रखा गया कि इससे समाज में एक नई तरह की असमानता आ सकती है? ध्यान रहे कि इसके अच्छे-खासे आसार हैैं कि सभी गरीब इस योजना के दायरे में न आ सकें। इसके अलावा इसकी पहचान भी कठिन ही होगी कि कौन गरीब परिवार ऐसे हैैं जिनकी मासिक आय 12 हजार रुपये से कम है? यह कठिनाई इसलिए और बढ़ेगी, क्योंकि तमाम गरीब ऐसे हैैं जिनकी आय कम-ज्यादा होती रहती है? अच्छा होगा कि कांग्रेस इससे अवगत हो कि अगर तीन लाख साठ हजार करोड़ रुपये से स्कूल, अस्पताल बनें और कानून एवं व्यवस्था का तंत्र मजबूत किया जाए तो उससे गरीबों को कहीं अधिक लाभ मिलेगा।

राजनीतिक दल जिस तरह आर्थिक स्थिति की अनदेखी करके लोक-लुभावन वादे करने लगे हैैं उसे देखते हुए ऐसी कोई व्यवस्था बननी चाहिए जिससे उन्हें बेलगाम घोषणाएं करने से रोका जा सके। बेहतर हो कि चुनाव आयोग को यह अधिकार मिले कि वह राजनीतिक दलों के चुनावी वादों की परख करे और उनके नफा-नुकसान से जनता को अवगत कराए। आज भले ही कांग्रेस न्यूनतम आय योजना को बाजी पलटने वाली मान रही हो, लेकिन सच यह है कि इस तरह की योजनाओं से देश की आर्थिक स्थिति सुधरने वाली नहीं है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]