[ भरत झुनझुनवाला ]: केंद्र सरकार ने पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना यानी ईआइए नोटिफिकेशन में कई संशोधन प्रस्तावित किए हैं, ताकि देश के आर्थिक विकास में पर्यावरण का अड़ंगा कम हो जाए। नि:संदेह उद्योगों को लगाने, हाईवे आदि के निर्माण में अनावश्यक अवरोधों को दूर करना चाहिए, लेकिन यदि हमारा पर्यावरण संरक्षित नहीं होता तो जीडीपी घटती भी है। बीते कुछ अर्से में तमाम देसी उद्यमी और निवेशक अपनी पूंजी लेकर विदेश पलायन कर गए। उनकी शिकायत थी कि देश का पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है। यदि देश में वायु और ध्वनि प्रदूषण के साथ साफ पानी का अभाव हो तो पर्यटक भी कम आते हैं। तमाम अद्वितीय पर्यटन स्थलों के बावजूद हम पर्याप्त संख्या में पर्यटकों को आर्किषत नहीं कर पा रहे हैं।

उत्तराखंड में कोटलीभाल जल विद्युत परियोजना से लाभ कम हानि अधिक

यह भी विचारणीय है कि क्या सभी परियोजनाओं से आर्थिक विकास होता है? मैंने उत्तराखंड में देवप्रयाग पर कोटलीभाल जल विद्युत परियोजना का आकलन किया तो पाया कि इस परियोजना को लागू करने से देश की जीडीपी घटेगी। परियोजना से लाभ 155 करोड़ रुपये प्रति वर्ष, जबकि पर्यावरण की हानि का आर्थिक मूल्य 931 करोड़ रुपये था। पर्यावरण की हानि में नदी द्वारा लाई जा रही गाद के रुकने के कारण गंगासागर का कटाव तो है ही, पानी की गुणवत्ता में गिरावट के कारण जन स्वास्थ्य पर प्रभाव, परियोजना की झील से उत्सर्जित होने वाली मीथेन गैस से ग्लोबल वार्मिंग पर प्रभाव, जंगल कटने से जैव विविधिता पर असर और नदी के प्राकृतिक सौंदर्य के नष्ट होने के कारण जनता को मिलने वाले आनंद जैसे नुकसान भी शामिल हैं।

केवल उन परियोजनाओं को ही स्वीकृति दी जाए जो आर्थिक विकास में योगदान देती हों

हमें जानना चाहिए कि प्रत्येक परियोजना से जीडीपी नहीं बढ़ती। वर्तमान में जीडीपी शिथिल होने के पीछे नुकसानदेह योजनाओं को लागू करना भी है। ऐसी परियोजनाओं को रोकने के लिए पर्यावरण कानून को और सख्त बनाने की जरूरत है। पर्यावरण कानून में व्यवस्था की जानी चाहिए कि परियोजना के कुल लाभ और हानि का निष्पक्ष आकलन हो और केवल उन परियोजनाओं को ही स्वीकृति दी जाए जो वास्तव में आर्थिक विकास में योगदान देती हों। पर्यावरण कानून को त्वरित गति से लागू करने की भी जरूरत है, जिससे लाभप्रद परियोजनाओं में पर्यावरण के नाम से अनावश्यक अड़ंगा न लगे।

सरकार को पर्यावरण प्रभाव आकलन के लिए आयोग गठित करना चाहिए

फिलहाल पर्यावरण प्रभाव का आकलन करने के लिए किसी संस्था को ठेका दिया जाता है। इससे ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली स्थिति बनती है। पर्यावरण प्रभाव आकलन संस्थाएं कार्यदायी संस्था के हित में ही आकलन करती हैं और तमाम दुष्प्रभावों को छुपा जाती हैं। देश को पता ही नहीं चलता कि कोटलीभाल जैसी परियोजनाओं से जीडीपी बढ़ेगी या घटेगी? सरकार को ईआइए के लिए एक अलग आयोग गठित करना चाहिए, जो अपने आकलन को बिना कार्यदायी संस्था के हस्तक्षेप के कराए।

भारत में पर्यावरण स्वीकृति आजीवन चलती है, अमेरिका में 30 वर्ष के लिए स्वीकृति दी जाती है

अपने देश में यदि एक बार पर्यावरण स्वीकृति मिल जाती है तो वह आजीवन वैध रहती है। अमेरिका में जलविद्युत परियोजनाओं को 30 वर्ष के लिए स्वीकृति दी जाती है। 30 वर्ष बाद उन्हें नए सिरे से स्वीकृति लेनी होती है, क्योंकि परिस्थितियों में परिवर्तन होते रहते हैं। किसी परियोजना में निवेशक को एक अवधि के बाद पूरा लाभ मिल जाता है। इस अवधि के बाद यदि परियोजना को बंद कर दिया जाए तो कार्यदायी संस्था को कोई हानि नहीं होती, जैसे बिल्डर को फ्लैट बेचने के बाद सोसाइटी छोड़ने में नुकसान नहीं होता।

केवल वे परियोजनाएं स्वीकार हों जो जीडीपी बढ़ाती हैं, आजीवन स्वीकृति निरस्त करना चाहिए

हमें भी आजीवन स्वीकृति को निरस्त करना चाहिए। पर्यावरण स्वीकृति को फास्ट ट्रैक करने की भी जरूरत है। कार्यदायी संस्थाओं को पर्यावरण स्वीकृतियां लेने में अत्यधिक समय लगता है। सरकार को चाहिए कि एक तरफ इन कानूनों को सख्त बनाए ताकि केवल वे परियोजनाएं स्वीकार हों जो वास्तव में जीडीपी बढ़ाती हैं। वहीं ऐसी व्यवस्था भी की जाए जिससे कार्यदायी संस्थाओं को दर-दर न भटकना पड़े।

वेदांता जैसी लाभप्रद परियोजना बंद लेकिन हानिप्रद परियोजनाओं को बंद नहीं किया

तमिलनाडु में वेदांता की तांबा निर्माण फैक्ट्री को पर्यावरण कानून उल्लंघन करने के कारण बंद किए जाने से आज हमें तांबे का आयात करना पड़ रहा है। सच यह है कि यदि अदालतों ने वेदांता जैसी लाभप्रद परियोजना को बंद किया तो अन्य हानिप्रद परियोजनाओं को बंद करने की जरूरत नहीं समझी। पर्यावरण के मामले में अदालतों की भूमिका कुल मिलाकर सकारात्मक रही है, पर कुछ विसंगतियां दिखती हैं। वेदांता को गलती सुधारने के लिए कहना चाहिए था। मक्खी मारने के लिए हाथ नहीं काटते।

पर्यावरण के मामले में न्यायालयों द्वारा विलंब से निर्णय

पर्यावरण के मामले में न्यायालयों द्वारा विलंब से निर्णय दिए जाने के कारणों पर भी सरकार को कारगर कदम उठाने चाहिए। सरकार को देश के मुख्य न्यायाधीश से चर्चा करनी चाहिए, ताकि न्यायालय र्आिथक मामलों से संबंधित विवादों को जल्द सुलटाएं। यदि परियोजना पर अमल करना हो तो शीघ्र हरी झंडी दिखाई जाए। यदि बंद करना हो तो जल्द बंद करें।

वादों के निपटान में समय न लगे इसके लिए जजों की संख्या में वृद्धि होनी चाहिए

सरकार को एनजीटी, उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या में वृद्धि करनी चाहिए, जिससे वादों के निपटान में समय न लगे। कई न्यायालयों में स्वीकृत संख्या में जजों की नियुक्ति नहीं हो पा रही है। यह कमी सरकार और न्याय व्यवस्था, दोनों तरफ से है। न्यायालयों को अपने कार्य दिवसों में भी वृद्धि करनी चाहिए। एक अध्ययन के अनुसार सुप्रीम कोर्ट वर्ष में 190 दिन, हाईकोर्ट 232 दिन और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट 244 दिन ही काम करते हैं। इतनी छुट्टियों का औचित्य नहीं है।

सभी न्यायालयों को कम से कम 280 दिन काम करना चाहिए

सभी न्यायालयों को कम से कम 280 दिन काम करना चाहिए। इन्हें जो अतिरिक्त छुट्टियां दी जा रही हैं, उन पर अंकुश लगाना चाहिए। जीडीपी बढ़ने का सही फार्मूला है कि पहले परियोजनाओं का सही एवं निष्पक्ष आकलन हो फिर उन्हें त्वरित गति से लागू किया जाए।

धीमी कार्यशैली के चलते आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ती है

हमें इस भ्रम से निकलना होगा कि पर्यावरण आर्थिक विकास में अवरोध है। वास्तव में पर्यावरण की रक्षा और आर्थिक विकास साथ-साथ चलते हैं। समस्या सिर्फ यह है कि सरकार और न्यायालय, दोनों की धीमी कार्यशैली के कारण सामान्य कार्य में भी अधिक समय लगता है जिससे आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ती है।

पर्यावरण रक्षा कानून और सख्त होना चाहिए, पूंजी का पलायन बंद हो, जन स्वास्थ्य में सुधार हो

हमें सरकारी और न्यायालयों की कार्यविधि में सुधार करना चाहिए। साथ ही पर्यावरण रक्षा कानून पर और सख्ती होनी चाहिए, जिससे अमीरों और उनकी पूंजी का पलायन बंद हो, जन स्वास्थ्य में सुधार हो, बीमारियों के इलाज में कम खर्च हो और पर्यटन के माध्यम से जीडीपी में वृद्धि हो सके।

( लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं )