खतरे में पड़ी परिवारवाद की राजनीति, पर आगे की राह अब भी आसान नहीं
चूंकि भाजपा परिवारवाद को मुख्य राजनीतिक विमर्श के रूप में स्थापित करने में कामयाब रही है इसलिए परिवारवादी राजनीति के पैरोकार उसके बचाव में सक्रिय हो गए हैं। जब बुराई में अच्छाई दिखाने की कोशिश होने लगे तो समझिए कि तर्क और ताकत दोनों ही नहीं बचे हैं।
प्रदीप सिंह : भाजपा ने अगले लोकसभा चुनाव के लिए अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव किया है। यह बदलाव पार्टी का नए भौगोलिक क्षेत्रों में विस्तार करने के लिए है। भाजपा को लग रहा है कि वंचित वर्ग को अपने साथ जोड़ने, सामाजिक समीकरण बिठाने और सुशासन पर अपनी पहचान स्थापित करने में वह कामयाब रही है। इसके अलावा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भी अब उसे चुनौती देने की स्थिति में कोई दल नहीं है। अब पार्टी की चुनौती परिवारवादी क्षेत्रीय दल हैं। इन्हें पराजित किए बिना भाजपा सही मायने में राष्ट्रीय पार्टी नहीं बन पाएगी।
दक्षिण के चार में से तीन राज्यों, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और पूरब के बंगाल, बिहार एवं ओडिशा में से पांच राज्यों में उसकी न तो कभी सरकार बनी और न ही वह सरकार बनाने के आस पास पहुंची। बिहार में वह सत्ता में साझीदार तो रही, लेकिन कभी अपना मुख्यमंत्री नहीं बनवा पाई। ये सभी राज्य ऐसे हैं जहां भाषाई और क्षेत्रीय अस्मिता बाकी सब मुद्दों पर भारी पड़ते हैं। भाजपा के जो कोर मुद्दे हैं, उनके जरिये वह जहां तक पहुंच सकती थी, लगभग पहुंच चुकी है। इससे आगे विस्तार के लिए उसे नए रास्ते, नए नारे और नई रणनीति की जरूरत है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व का एक विशेष गुण है। इसका चाणक्य नीति से सीधा संबंध है। यह है कछुए की तरह व्यवहार करना। जैसे कछुआ अपने शरीर का उतना ही अंग बाहर निकालता है, जितनी जरूरत होती है। उसी तरह मोदी अपनी रणनीति के बारे में उतना ही बताते हैं, जितनी उस समय की जरूरत होती है। वह पिछले आठ साल से परिवारवाद की बात कर रहे हैं। अपनी पार्टी में इसे रोकने का लगभग सफल प्रयास कर चुके हैं। भाजपा में वह जो कर रहे हैं, वह परिवारवाद को रोकने की कोशिश है, लेकिन समस्या की जड़ परिवारवाद नहीं वंशवाद है। हालांकि यह भी सच है कि वंशवाद की शुरुआत होती परिवारवाद से ही है। भाजपा में वंशवाद नहीं है। कोई ऐसा नेता नहीं है जो यह दावा कर सके कि उसके पद पर उसके परिवार का ही कोई व्यक्ति आएगा।
मोदी की योजना वास्तव में कांग्रेस के जरिये क्षेत्रीय दलों तक पहुंचने की है। इसी रणनीति के तहत राजनीति में परिवारवाद पर पहली बार नियोजित तरीके से हमला करने का फैसला हुआ है। हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह केंद्रीय मुद्दा रहा। क्षेत्रीय दलों को घेरने के लिए भाजपा की यह नई रणनीति है। आठ साल तक कांग्रेस मुक्त भारत अभियान चलाने के बाद भाजपा की निगाह अब क्षेत्रीय दलों पर है। क्षेत्रीय दलों का सबसे कमजोर पक्ष है उनका परिवार, पर मोदी जो कर और कह रहे हैं वह केवल परिवार तक सीमित नहीं है।
परिवारवादी पार्टियों के नेताओं का सामंतवादी रवैया और रहन-सहन दूसरी पीढ़ी आते-आते आम लोगों को खटकने लगता है। बात इतनी ही होती तो शायद गनीमत होती, लेकिन मामला उससे आगे चला गया है। मोदी और भाजपा को समझ में आ गया है कि विधानसभा चुनाव में पार्टी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, सुशासन (केंद्रीय योजनाओं का असर) और सामाजिक गठजोड़ एक सीमा के बाद असर नहीं डालता। मतदाता लोकसभा चुनाव में दूसरी तरह मतदान करता है और वह मोदी के साथ खड़ा नजर आता है, पर विधानसभा चुनावों में भाजपा का मत प्रतिशत गिर जाता है।
मोदी की परिवारवाद विरोधी मुहिम में कई और मुद्दे समाहित हैं। यह महज दुर्योग नहीं अधिकतर परिवारवादी पार्टियां और उनके नेता भ्रष्ट भी हैं और छद्म पंथनिरपेक्ष भी। इसे यूं भी कह सकते हैं कि ये हिंदू विरोध और मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते हैं। इसलिए इनके खिलाफ जनता को खड़ा करने में आज के बदले माहौल में थोड़ी आसानी दिख रही है। तुष्टीकरण की राजनीति को मतदाता बार- बार नकार रहा है। तुष्टीकरण की राजनीति करने वालों के लिए इसका बचाव करना दिन प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि मुस्लिम वोटों के दम पर दशकों तक राजनीति करने और राज करने वाली पार्टियां अब मुसलमानों के मुद्दे उठाने से बचने लगी हैं। वे चाहती हैं कि मुसलमान चुपचाप उन्हें वोट दे दें। कम से कम चुनाव के समय तो अपना मुंह बंद ही रखें। इस सबके बावजूद भाजपा की राह इतनी आसान नहीं है। उसके सामने दो समस्याएं और आती हैं। एक तो इन राज्यों में पार्टी जमीनी संगठन का ढांचा तैयार करना और दूसरा राज्य स्तर का नेतृत्व उभारना।
भाजपा को हाल में महाराष्ट्र में दो परिवारवादी पार्टियों को पटखनी देने में सफलता मिली है। महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी, दोनों को गहरा राजनीतिक आघात लगा है। इनके लिए इससे संभलना बहुत कठिन है, खासतौर से उद्धव ठाकरे की शिवसेना के लिए। आने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में शिवसेना को ठाकरे परिवार में मुक्ति मिल जाए तो आश्चर्य नहीं। महाराष्ट्र के बाद भाजपा की नजर अब तेलंगाना पर है। इस साल के आखिर में गुजरात और हिमाचल में विधानसभा चुनाव हैं। इसके बावजूद भाजपा ने अपनी कार्यकारिणी की बैठक हैदराबाद में की। भाजपा को साफ दिखाई दे रहा है कि तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव की सरकार और परिवार, दोनों के प्रति आम लोगों में नाराजगी बढ़ रही है।
परिवारवाद पर प्रधानमंत्री के हमले का असर इतनी जल्दी दिखना शुरू हो जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं थी। चंद्रशेखर राव की बौखलाहट तो कुछ दिनों से दिख रही है। नई आवाज उठी है तमिलनाडु से। द्रमुक नेता ए. राजा ने भाजपा और केंद्र सरकार को चेतावनी दी है वे उनकी पार्टी को अलग तमिल देश की मांग के लिए मजबूर न करें। उधर बंगाल से ममता बनर्जी ने भाजपा के खिलाफ जिहाद का एलान किया है। एक बात तो स्वीकार करना पड़ेगी कि परिवारवाद के खिलाफ देश में माहौल बन गया है। चूंकि भाजपा परिवारवाद को मुख्य राजनीतिक विमर्श के रूप में स्थापित करने में कामयाब रही है इसलिए परिवारवादी राजनीति के पैरोकार सक्रिय हो गए हैं। तर्क दिया जा रहा है कि मोदी के परिवार मुक्त राजनीति के नारे का वास्तविक लक्ष्य विपक्ष मुक्त राजनीति है। एक तरह से परिवारवाद के समर्थकों ने परोक्ष रूप से मान लिया है इस देश में विपक्ष को बचाने के लिए परिवारवाद को बचाना जरूरी है। जब बुराई में अच्छाई दिखाने की कोशिश होने लगे तो समझिए कि तर्क और ताकत, दोनों ही नहीं बचे हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)