नई दिल्ली [अनंत विजय]। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना संकट से निपटने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की तो उसके दो दिन बाद ही तमाम लोग अपने-अपने घर या यों कहें कि अपने-अपने गांव के लिए निकल पड़े। हर कोई संकट के इस समय अपने अपने स्थान पर लौट जाना चाहता था।

इसे विद्वान पत्रकार साथियों ने पलायन तक कह दिया, लेकिन समाजशास्त्रियों के मुताबिक उसे पूरी तरह से पलायन कहना उचित नहीं था। यह पलायन नहीं था, ये सुरक्षा के लिए, अपने काम के लिए, सरकारी मदद पाने की आस में, संकट के  वक्त अपनों या अपने परिवार के साथ रहने की इच्छापूर्ति के लिए अस्थायी तौर पर अपने गांव या घर लौट जाने की चाहत थी। इनमें मुख्यत: गांवों में रहने वाले वे लोग थे जो रोजगार, बेहतर शिक्षा और बेहतर आय के लिए शहरों में आकर रहते हैं। उस घटना के दौरान जब गांव लौटने की खूब चर्चा हुई तो, जेहन में एक विचार कौंधा था कि क्या हिंदी फिल्में भी गांव की ओर लौटेंगी?

हिंदी फिल्मों के इतिहास पर विचार करें तो पाते हैं कि एक लंबे कालखंड में गांव और उसकी कहानी हिंदी फिल्मों का विषय हुआ करती थी। आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी हिंदी फिल्मों में गांवों की कहानियों प्रमुखता से चित्रित होती थीं। अगर हम राजकपूर की फिल्म ‘बरसात’ को याद करें तो इसकी कहानी भी गांव की पृष्ठभूमि पर है जिसमें फिल्म का नायक शहर से गांव जाता है जहां उसे एक लड़की से प्यार हो जाता है। इसमें उस दौर के गांव और वहां के लोगों की मानसिकता का बेहतर चित्रण किया है।

हालांकि यह फिल्म एक लव स्टोरी तो है, लेकिन इसमें गांव के परिवेश को भी उकेरा गया है। इसके बाद भी कई फिल्में बनीं। वर्ष 1957 में नरगिस की फिल्म ‘मदर इंडिया’ आई जिसकी बहुत तारीफ हुई। यह फिल्म तो भारत

के गांवों की प्रतिनिधि तस्वीर के तौर पर स्थापित हुई। इसमें गांव, किसान, फसल, गरीबी, महाजनी व्यवस्था के बीच गांव के युवाओं में आदर्श की राह पर चलने वाली बाधाओं को भी चित्रित किया गया है। इस फिल्म में  नरगिस के अभिनय ने उनको एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने की हसरत हर अभिनेत्री की अब भी होती है। 

इसके बाद भी कई फिल्में आईं जिनके केंद्र में गांव रहा है। रोमांटिक फिल्मों से लेकर एंग्री यंग मैन के दौर में भी फिल्मों में गांव और उसकी पृष्ठभूमि बनी रही और दर्शकों ने इसको पसंद भी किया। इसके बाद आता है वर्ष 1998 जब फिल्मी दुनिया में एक नए निर्देशक का आगमन होता है जिसका नाम है करण जौहर। 1998 के अक्टूबर में इस निर्देशक की एक फिल्म रिलीज होती है जिसका नाम है- कुछ कुछ होता है। करण जौहर

की इस फिल्म में काजोल और शाहरुख खान की जोड़ी को दर्शकों ने खूब पसंद किया। फिल्म जबरदस्त हिट रही।

इस फिल्म की सफलता के साथ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी फिल्में बनने लगीं जिसमें गांव की गोरी की जगह शहर की स्कर्ट वाली लड़की ने ले ली। दुष्ट जमींदार और उससे चुहल करने वाली महिला की जगह शहरी डॉन टाइप गुंडे और उसकी वैंप टाइप महिला मित्र ने ले ली। गांव के भोले-भाले नायक की जगह शहरी जींसटीशर्ट वाले लड़के ने ले ली। नायिका भी वेशभूषा में मॉडर्न हो गईं। कुछ कुछ होता है से कुछ पहले ही अनिल कपूर और पूजा बत्रा की फिल्म ‘विरासत’ और प्रकाश झा निर्देशित फिल्म ‘मृत्युदंड’ आई थी। 

इनमें गांव को प्रमुखता से दिखाया गया था, लेकिन विरासत में नायक शहर से आता है और उसकी गर्लफ्रेंड भी शहरी होती है। यानी इस फिल्म में गांव तो है, लेकिन शहर की मौजूदगी के साथ। यह ठीक वैसे ही है जैसे फिल्म बरसात में भी नायिका गांव की होती है और नायक शहर से आता है, वो वायलिन बजाता है, क्लब में जाता है,

डांस करता है, लेकिन नायिका गांव की लड़कियों की तरह इन सबसे दूर रहती है। 

जौहर की फिल्म ‘कुछ कुछ होता है’ के बाद हिंदी फिल्मों का पात्र और परिवेश पूरी तरह से शहरी होने लगे। फिल्म की लोकेशन को लेकर निर्देशकों ने विदेशों की ओर रुख करना शुरू किया। लोकेशन की  चमक दमक, बेहतरीन तकनीक, नायक नायिका के चमकते हुए आधुनिक परिधान ने हिंदी फिल्मों के चरित्र में बुनियादी परिवर्तन कर दिया। करण जौहर की फिल्म के ठीक पहले एक और फिल्म आई थी जिसे यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था जिसका नाम था- दिल तो पागल है। यह फिल्म भी जबरदस्त हिट रही थी। इसमें शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित और करिश्मा कपूर के बीच के प्रेम त्रिकोण को यश चोपड़ा ने बहुत शानदार तरीके से पेश

किया है।

इस फिल्म ने हिंदी फिल्मों के शहरीकरण की बुनियाद रखी जिस पर कुछ कुछ होता है की सफलता ने एक मजबूत इमारत खड़ी कर दी। लगभग इसी कालखंड में कई फिल्में आईं जो दर्शकों को काफी पसंद आईं और वो अपने मिजाज में बिल्कुल शहरी थीं। फिल्मों में शहरी चमक-दमक को देखकर और गांवों के नेपथ्य में जाने पर मशहूर फिल्म निर्देशक गोविंद निहलानी ने कहा था कि गांव को हमारी कल्पना के आखिरी छोर पर धकेल दिया गया, ग्रामीण परिवेश का चित्रण अपनी जड़ों की स्वीकारोक्ति भर है, सारा जोर चमक-दमक पर है। 

अगर हम देखें तो 1997-98 के बाद जिस तरह से दर्शकों ने शहरी पृष्ठभूमि की फिल्मों को पसंद करना शुरू कर दिया है वो दर्शकों की रुचि में एक बुनियादी बदलाव की ओर संकेत कर रहा था। एक के बाद एक धड़ाधड़ शहरी परिवेश पर बननेवाली फिल्मों की सफलता र्में सिंगल थिएटर का बंद होते जाना और शहरों में मल्टीप्लेक्स

संस्कृति का विकास होना भी महत्वपूर्ण कारक रहा। हमारे देश के छोटे शहरों से, कस्बों में थिएटर क्यों बंद होते चले गए ये गहन शोध का विषय है। 

एक जमाना था जब फिल्मों का अर्थशास्त्र बहुत हद तक इन एकल थिएटर पर निर्भर करता था। उस वक्त की पत्रिकाओं को देखने पर ये पता चलता है कि किसी भी सफल फिल्मों में मुनाफा का चालीस से लेकर पैंतालीस

प्रतिशत तक इन एकल सिनेमा हॉल से आता था। तब कहा भी जाता था कि हिंदी फिल्मों की सफलता ड्रेस सर्किल और बालकनी के दर्शकों की पसंद पर निर्भर करती है।

ड्रेस सर्किल और बालकनी एकल थिएटर में उच्च टिकट दर वाली जगह होती थी जहां कस्बों और छोटे शहरों

के उच्च आयवर्ग के लोग फिल्में देखते थे। जैसे-जैसे फिल्म प्रस्तुतिकरण का अंदाज शहरी होता गया तो ये शब्दावली भी बदलती चली गई। अब इस पर बात होने लगी कि अमुक फिल्म को मल्टीप्लेक्स के दर्शक पसंद करेंगे या नहीं। किसी फिल्म को कितनी स्क्रीन मिले। मल्टीप्लेक्स के टिकटों की बिक्री ही सफलता का पैमाना

बन गई। फिल्मों के इस शहरी दौर में भी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर कुछ फिल्में बनीं, जैसे 2001 में आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘लगान’ बनी और वह जबरदस्त हिट रही, लेकिन आमिर अभिनीत फिल्म ‘मेला’ को उस तरह की सफलता नहीं मिली। 

आज जब पूरी दुनिया में अपनी परंपराओं और अपनी जड़ों की ओर जाने की बात होती है, विमर्श के केंद्र में परंपरा और पूर्व की स्थापनाएं होती हैं। ऐसे समय में हिंदी फिल्मों का शहरी होते चले जाना एक समाजशास्त्रीय अध्ययन की मांग भी करता है। अर्थशास्त्र तो साफ है कि वो अपने लक्षित दर्शक वर्ग को लेकर फिल्में बना रहा है। लेकिन यह जानना भी दिलचस्प होगा कि जब शहरों में रहने वाले अधिकतर लोग गांवों से आ रहे हैं और वो

फिल्में भी देख रहे हैं तो ऐसे में गांव की कहानियां उनको अधिक नॉस्टेल्जिक नहीं लगेंगी?