अलका आर्य। आजकल संपूर्ण देश में रोजाना लोगों की उत्सुकता इस बात को लेकर रहती है कि किस राज्य में या फिर शहर में कोरोना के कितने पॉजिटिव मामले सामने आए। चूंकि महाराष्ट्र इस मामले में पहले नंबर पर है, लिहाजा सबकी नजरें वहां के आंकड़ों को जानने के बारे में ज्यादा उत्सुक रहती हैं। इस तरह के घोर संकट के दौर में बच्चे व्यापक रूप से अनदेखी का शिकार होते हैं। लेकिन इसी राज्य से उनके लिए एक राहत की खबर भी है। दरअसल इस सूबे की समेकित बाल विकास सेवाएं (आइसीडीएस) इस संकट की घड़ी में आंगनबाड़ी के बच्चों का विशेष ध्यान रख रही हैं।

महामारी के प्रसार को रोकने के लिए सूबे में आंगनबाड़ी केंद्र अभी भी बंद हैं और बच्चे नहीं आ पा रहे हैं, परंतु सरकार उनके घरों तक उनकी पौष्टिक खुराक पहुंचा रही है। इतना ही नहीं, उन बच्चों को घर में सकारात्मक तरीके से खेल-कूद व अध्ययन समेत रचनात्मक गतिविधियों में शमिल करने के भी नायाब तरीके अपनाए जा रहे हैं। तीन से छह वर्ष की आयुवर्ग के ऐसे बच्चों की परवरिश के लिए उनके अभिभावकों के वाट्सएप समूह बनाए गए हैं। बच्चों की तमाम गतिविधियों के लिए कैलेंडर बनाया गया है। बच्चों व अभिभावकों को क्या-क्या करना है, इसकी जानकारी उन्हें दी जाती है। जिनके पास स्मार्टफोन की सुविधा नहीं है, उन्हें आंगनबाड़ी कायकर्ता छपी हुई सामग्री मुहैया करा रही हैं। अभिभावक और खास तौर पर पिता बच्चों की परवरिश में इस समय खास दिलचस्पी ले रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि माता-पिता दोनों के कामकाजी होने के दौर में बच्चों की परवरिश पर कम ध्यान दिया जाता है। किसी बच्चे की जिंदगी के पहले एक हजार दिन काफी अहम होते हैं। इस दौरान उसका दिमाग आश्चर्यजनक दर से विकसित होता है। यह प्रारंभिक मस्तिष्क विकास ही तय करता है कि बच्चे कैसे सोचते हैं, सीखते हैं और व्यवहार करते हैं, जीवन में उनके सफल होने की क्षमता को भी प्रभावित करते हैं। इन दिनों बच्चे के लिए तीन चीजें हासिल करना बहुत ही जरूरी होता है-उच्च पोषण, प्रोत्साहन और सुरक्षा। एक अनुमान कहता है कि वैश्विक स्तर पर कम और मध्यम आय वाले मुल्कों में पांच वर्ष से कम आयु के 43 प्रतिशत बच्चों पर अपनी विकास क्षमता को पूरा उपयोग नहीं करने का खतरा मंडरा रहा है।

यह एक वैश्विक मसला है। बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था यूनिसेफ ने वर्तमान संकट के दौर में परवरिश पर ध्यान देने सहित प्रारंभिक बाल्यावास्था विकास में निवेश को प्राथमिकता देने की तत्काल आवश्यकता को दोहराया है। दरअसल अक्सर संकटकाल में छोटे बच्चों का पालन-पोषण करने से संबंधित सेवाओं को प्राथमिकता नहीं दी जाती है और उनकी अनदेखी की जाती है, जो उनके विकास को असमान रूप से प्रभावित करती है। ऐसे हालात में सरकारों के साथ-साथ परिवारों और समुदायों को भी बच्चों के लिए पोषण और सुरक्षात्मक परिवेश प्रदान करने में अपनी भूमिका को समझना होगा।

भारत की बात करें तो यहां का समाज कई सामाजिक व लैंगिक समस्याओं से आज भी ग्रस्त है और 21वीं सदी में भी अक्सर बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी मां या फिर परिवार की अन्य महिला सदस्यों की ही मानी जाती है। यूनिसेफ ने इस संदर्भ में भारत के पांच राज्यों-मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, राजस्थान और महाराष्ट्र में बच्चों की परवरिश पर एक अध्ययन रिपोर्ट जारी की है। पैरेंटिंग मैटर्स नामक इस अध्ययन में बताया गया है कि बच्चों की मां और दादी उनको जगाने, मालिश करने, नहलाने, भोजन कराने और उन्हें सुलाने का काम करती हैं, जबकि पिता व दादा बच्चों को घर के बाहर वाली गतिविधियों से जोड़ने का काम करते हैं। बच्चों को खाना खिलाने में उनकी भागीदारी बहुत ही कम होती है।

स्कूल से पहले की शिक्षा का जहां तक सवाल है, तो आंगनबाड़ी केंद्रों में बच्चों को अपने परिवेश से संबंधित चीजों को समझने व पढ़ने-लिखने में रूचि तो पैदा हो ही जाती है। यहां पर भेजने से बच्चों की घर से बाहर सीखने की आदत भी विकसित होती है। उनके अंदर अच्छी आदतों का विकास होने लगता है और वे अनुशासन को भी समझने लगते हैं। इस अध्ययन में यह भी सामने आया है कि बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए परिवार हिंसा के 30 विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। इसमें बच्चों को थप्पड़ मारना, छड़ी से पिटाई करना, सबके सामने अपमानित करना, लड़कियों को घर से बाहर नहीं भेजना आदि। घरेलू हिंसा का प्रभाव भी लड़कों व लड़कियों पर अलग-अलग पड़ता है। कई मर्तबा लड़कियां हिंसा के लिए खुद को ही जिम्मेदार मानने लगती हैं और कुछ लड़के अपने पिता से गुस्सा हो जाते हैं। ऐसे माहौल में बच्चों की परवरिश बहुत ही चिंता की बात है। यह चिंता वर्तमान महामारी के वक्त और भी गहराने लगती है, क्योंकि अभी तक इसका कोई मुकम्मल इलाज नहीं आया है।

[सामाजिक कार्यकर्ता]