अध्यात्म और विज्ञान

अध्यात्म एक वृहद विषय है। यह भारतवर्ष की सदियों से चली आ रही अक्षुण्ण संपदा है। जो भी इसका अनुभव कर लेता है, उसे संसार की अन्य संपदाएं फीकी लगती हैं। यह वही देश है, जिसने विचार भेद को स्वस्थ शास्त्रार्थ की बहस के रूप में परिवर्तित किया। जब दुनिया के अधिकतर देश सभ्यता का पाठ पढ़ रहे थे, तब हमारे देश की माताएं अपने बच्चों को धर्मवीर, कर्मवीर और शूरवीर बनाने के लिए लोरियां सुनाया करती थीं। आज ऐसी अनेक चर्चाएं सुनने को मिलती हैं, जिनमें लोग आध्यात्मिक संपदा को भौतिक संपदा के सामने तुच्छ साबित करने का प्रयास करते हैं, परंतु यह समझना आवश्यक है कि अध्यात्म विज्ञान की कसौटी पर भी उतना ही खरा है, जितना कि उसे होना चाहिए। बस आवश्यकता है तो हर विषय पर गहन अध्ययन, चिंतन और मनन की।

जो अनुसंधान आज विज्ञान कर रहा है उसकी खोज शताब्दियों पहले ही ऋषि-मुनि कर चुके थे

जो अनुसंधान आज विज्ञान कर रहा है, उनमें से कई शोधों से पता चलता है कि देश के ऋषि-मुनि उन पर अनेक शताब्दियों पहले ही शोध कार्य कर चुके थे। आचार्य पतंजलि ने योगसूत्र के रूप में और कणाद जैसे ऋषियों ने परमाणु दर्शन का सिद्धांत प्रस्तुत किया। आज हम आणविक युग में जी रहे हैं। हमारे वैदिक धर्मग्रंथों में अध्यात्म के माध्यम से जो संपदा हमें मिली है, यह अमूल्य है। आवश्यकता है तो उसे सही तरीके से जानने और समझने की। विज्ञान भौतिक पदार्थों तक सीमित है, लेकिन अध्यात्म इससे काफी आगे का विषय है। मन, बुद्धि और विवेक इसके आयाम हैं। यदि हम अपने धर्मग्रंथों का गहन अध्ययन करें तो स्वभावत: कई अनसुलझे प्रश्नों का सहज ही समाधान प्राप्त हो जाता है, परंतु अफसोस है कि आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों की कमी के कारण आज की युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित है। वह एक ऐसे दोराहे पर खड़ी है, जहां से उसे दिशा का बोध नहीं होता। आज की शिक्षा संस्कार विहीन होती जा रही है। यदि हमें एक उन्नत राष्ट्र की परिकल्पना पुन: करनी है तो अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय स्थापित करना होगा। अपनी नीतियों में परिवर्तन करना होगा। पढ़-लिखकर भी आध्यात्मिक मूल्यों को समझना होगा। कुछ पुस्तकों को मात्र पढ़ लेने से ही हम ज्ञानी नहीं बन जाते हैं। जब तक कि उन्हें हम अपने दिन-प्रतिदिन की जीवनचर्या में न ढालें।

[ आचार्य अनिल वत्स ]