[ एनके सिंह ]: हाल की दो घटनाएं केंद्र और राज्यों के बीच बढ़ते तनाव के संकेत दे रही हैं। पहली घटना पश्चिम बंगाल की है। वहां लोकसभा चुनाव के बाद भी हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। इस संबंध में सूबे के राज्यपाल केंद्रीय गृह मंत्री से मिल चुके हैं। इस अफवाह के साथ कि शायद राज्य में बिगड़ते हालात के बाद राष्ट्रपति शासन का विकल्प केंद्र सरकार सोच सकती है। इसके बाद कोलकाता में दिल के मरीज के अस्पताल में मरने के बाद एक डॉक्टर को एक समुदाय विशेष के लोगों द्वारा घातक रूप से पीटने पर पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों की हड़ताल हुई, लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने न केवल डॉक्टरों को धमकी दी, बल्कि हालात बिगाड़ने का आरोप केंद्र में शासन कर रही भाजपा पर थोप दिया।

सोशल मीडिया पर घायल डॉक्टर की लहूलुहान फोटो

सोशल मीडिया पर घायल डॉक्टर की लहूलुहान फोटो देखकर बाकी डॉक्टर भड़क गए। इसका देशव्यापी असर हुआ और स्वास्थ्य सेवाएं एम्स से लेकर निजी अस्पतालों तक में बंद हो गईं।

बिहार में केंद्रीय योजनाओं का विरोध

दूसरी घटना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने केंद्र से चलाई जाने वाली योजनाओं का विरोध ही नहीं किया, बल्कि यह भी कहा कि राज्यों को अपनी योजना चलाने की आजादी होनी चाहिए। उनका आरोप है कि केंद्रीय योजनाओं में औसतन 40 प्रतिशत हिस्सा राज्यों को व्यय करना पड़ता है, लेकिन श्रेय केंद्र सरकार को जाता है। नीतीश ने अभी चंद दिनों पहले ही भाजपा के साथ चुनाव लड़कर अपनी पार्टी को लोकसभा में 16 सीटें दिलाई हैैं। ममता भी केंद्र में भाजपा की सरकार में मंत्री रही थीं और नीतीश भी, लेकिन इन दोनों ने कभी भी केंद्र की किसी योजना पर आक्षेप नहीं लगाया था। यह ‘ज्ञान’ उन्हें इस चुनाव में भाजपा को मिली जबरदस्त देशव्यापी जीत के बाद आया है।

केंद्र के खिलाफ मोर्चा

यह भी ध्यान रहे कि केरल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक ने भी केंद्र के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। ऐसे समय में जब देशों की अर्थव्यवस्था दुनिया के साथ समेकित हो चुकी हो, जब किसानों की उपज का सही मूल्य दिलाने के लिए कृषि-बाजार को देशव्यापी बनाने की कवायद चल रही हो, जब केंद्र की नीतियों का राज्यों में व्यापक प्रभाव पड़ रहा हो तब यह तनाव विकास और जनकल्याण को बुरी तरह अवरुद्ध कर सकता है।

भाजपा का बढ़ता जनाधार

ध्यान रहे केंद्र की अधिकांश योजनाओं पर अमल राज्य सरकारें करती हैं। देखा जाए तो इस बढ़ते तनाव के पीछे दो कारण हैं। पहला, राज्यों में भाजपा का स्थानीय दलों के मुकाबले बढ़ता जनाधार और दूसरा, केंद्र में भाजपा की ताकत बढ़ने से गैर-भाजपा राज्यों में (कांग्रेस या उनके द्वारा समर्थित सरकार में भी) पार्टी के टूटने का खतरा। ये दोनों पहलू क्षेत्रीय दलों को ही नहीं, कांग्रेस को भी हाशिये पर ला सकते हैं। यह डर भी राज्य सरकारों को केंद्र के साथ दो-दो हाथ करने के भाव में ला रहा है।

राज्य की शक्तियों का दमन

इतिहास गवाह है कि जब कभी केंद्र ने राज्य की शक्तियों का प्रभुत्व के आधार पर एक सीमा से अधिक दमन किया तो केंद्र ही कमजोर हुआ, क्योंकि राज्य की शक्तियां बगावत पर आ गईं। अतीत में अंग्रेज मजबूत केंद्र की नीति के तहत चार्टर एक्ट ऑफ इंडिया, 1833 बना कर सारी शक्तियां केंद्र में निहित करने लगे। लॉर्ड डलहौजी ने सुधार के नाम पर इस केंद्रीकरण के शिकंजे को और मजबूत किया। नतीजा था 1857 का विद्रोह। अंग्रेज सकते में थे और अगले ही साल पूरा शासन सीधे ब्रिटिश ताज के हाथों आ गया।

सारी शक्तियां केंद्र में निहित

अगले तीन सालों में अंग्रेज हुकूमत को समझ में आ गया कि भारत जैसे वैविध्यपूर्ण देश में स्थानीय शक्तियों को दबाकर पूर्ण केंद्रीकरण करके शासन करना असंभव है। इसके लिए उन्होंने राजाओं की सहायता ली, जो कहने को तो संप्रभु थे, लेकिन शक्तिहीन थे। अंग्रेजों ने अगले 90 साल इसी तरह सफलतापूर्वक शासन किया। इसके बाद आजाद भारत का संविधान बनाने के समय तीन जून, 1947 को संघ शक्ति समिति की दूसरी रिपोर्ट में भी कहा गया ‘अब जबकि विभाजन एक निर्विवाद सत्य है तब हम सर्वसम्मति से इस राय के साथ हैं कि देश के हित के लिए यह घातक होगा कि ऐसा एक कमजोर केंद्रीय शासन हो जो जरूरी मुद्दों पर समन्वय बनाने में अक्षम हो। पुख्ता संवैधानिक ढांचा वह है जिसमें परिसंघ के साथ ही एक मजबूत केंद्र हो।’

केंद्र मजबूत पायदान पर

शायद इसी भावना से प्रेरित होकर संविधान निर्माताओं ने कुछ ऐसे प्रावधान रखे जो आज राज्यों के मुकाबले केंद्र को मजबूत पायदान पर रखते हैं, लेकिन आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को या भाजपा को जो जन स्वीकार्यता मिल रही है वह पुराने जमाने का ‘नृप-प्रजा’ भाव नहीं है, क्योंकि प्रजातंत्र में लालू यादव, जयललिता, मायावती भी समय-समय पर यह जन स्वीकार्यता हासिल कर चुकी हैं। यह उनकी गलती थी कि वे झूठे सशक्तीकरण के जरिये सता पर काबिज रहना चाहते थे।

जातिवादी पार्टियां

दरअसल क्षेत्रीय ताकतों के उभार का मुख्य कारण समाजशास्त्रीय न होकर राजनीतिक रहा है। ये वहीं उभरती हैं जहां अल्पसंख्यक अपने राष्ट्रीय औसत 14.2 प्रतिशत से ज्यादा हैं जैसे पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, असम और केरल। अल्पसंख्यकों का वोट जब उस पार्टी के आधार वोट जो नेता की जाति से तय होता है, से मिल जाता है तो यह मेल सीटों पर जीत में तब्दील हो जाता है। इसलिए गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण पर आधारित जातिवादी पार्टियां देखने को नहीं मिलतीं।

ममता नहीं बदल सकतीं अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति

ममता बनर्जी का संकट यह है कि वह अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की अपनी नीति रातों-रात बदल नहीं सकतीं और नाराज बहुसंख्यक भाजपा के रूप में अपना ‘रक्षक’ देखने लगा है। सामाजिक तनाव का राजनीति में लाभ का यह दोनों तरफ से अद्भुत नमूना है और भाजपा इस खेल में भारी पड़ रही है, लेकिन क्या मोदी इस ‘हम-बनाम-वे’ से राज्यों में काबिज होकर समाज को अपेक्षित समरसता दे सकेंगे? क्या उन्हें सामाजिक तनाव जनित बिगड़ते केंद्र-राज्य संबंधों के काल में तब तक इंतजार करना होगा जब तक भाजपा पूरे राज्यों में ‘अपना’ शासन नहीं कर लेती?

केंद्र-राज्य संबंधों में सुधार की जरूरत

भाजपा के विस्तार के इस उद्दात भाव के ही कारण ममता-चंद्रबाबू तो छोड़िए, शिवसेना और नीतीश भी हमेशा उससे सशंकित रहते हैं, भले ही चुनाव के कारण उन्हें साथ आना पड़ता हो। ऐसे में क्या अब समय नहीं आ गया है जब संविधान में व्यक्त किए गए केंद्र-राज्य संबंधों को एक बार फिर से परिभाषित किया जाए, ताकि सार्थक क्षेत्रीय भावनाएं प्रतिक्रियात्मक बहुसंख्यकवाद की बाढ़ में बह न जाएं?

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैैं )

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