[ क्षमा शर्मा ]: जब से कोरोना के कारण लोगों का कामकाज पर जाना बंद हुआ है तब से बड़े-बड़े लोग घर के कामों के फोटो पोस्ट कर रहे हैं। इसी सिलसिले में कैटरीना कैफ को बर्तन धोते और मलाइका अरोड़ा को खाना पकाते देखकर लगा कि क्या वाकई आपदा हमें अपनी जड़ों की ओर धकेलती है? बचना है, तो वह करो जो करते आए हो। जो दादी, नानियां करती थीं। अमीर से अमीर औरतें घर में खाना पकाती थीं। बहुत पहले नरगिस दत्त के बारे में पढ़ा था कि जब वह अमेरिका में रह रही थीं तो अपने घर में खाना पकाने से लेकर झाड़ू-पोंछा, बच्चों की देखभाल जैसे काम खुद करती थीं। ये बातें उनकी बेटी नम्रता दत्त ने ही बताई थीं।

खाना पकाना पिछड़ा काम माना जाने लगा

किसी ने फेसबुक पर लिखा-लॉकडाउन के दौरान सबसे बड़ी चुनौती उन निखट्टुओं के लिए है जिनकी मम्मी इठलाकर कहती थीं कि हमारा बेटा तो चाय तक नहीं बना पाता। इसमें मैं बेटियों को भी जोड़ना चाहती हूं, क्योंकि आजकल बहुत कम नौकरीपेशा लड़कियां ऐसी हैं जो खाना बनाना जानती हैं। एक लड़की का वीडियो देखा जिसमें वह एक बड़ी डिस्क मुंह के सामने लगाकर खाना पकाने की कोशिश कर रही है। अब तो अक्सर लड़कियों के माता-पिता विवाह से पहले ही लड़के वालों को बताते हैं कि उनकी बेटियां खाना बनाना नहीं जानतीं। बताया जाता है कि लड़की पढ़ने-लिखने में इतनी लगी रही कि खाना बनाना कब सीखती। खाना पकाना एक अरसे से पिछड़ा काम माना जाने लगा है।

आने वाले दिनों में अपने देश में हाउसवाइव्स नाम की प्रजाति ढूंढे नहीं मिलेगी

अगर ध्यान से देखें तो भारत में व्यापारियों की नजर रसोई पर रही है। अगर घर में खाना न पके, बाजार से मंगाया जाए तो यह व्यवसाय अरबों-खरबों का हो सकता है। पश्चिमी देशों में ऐसा ही है। खाने की पकी-पकाई चीजें लाकर फ्रीजर में रख दी जाती हैं, जो समय-समय पर खाई जाती हैं। वहां रसोई खाना पकाने के लिए बहुत कम और खाना गर्म करने की जगह के रूप में अधिक काम आती है। अपने देश में अब भी चूंकि औरतों की बहुसंख्या घरों में रहती है इसलिए वे खाना बनाने की अपनी घरेलू जिम्मेदारी को भी निभाती हैं। अगले पचास सालों में अपने देश में हाउसवाइव्स नाम की प्रजाति ढूंढे नहीं मिलेगी, जिन्हें इन दिनों होममेकर कहा जाता है। हालांकि यह भी अजब किस्म की परिभाषा है जो कहीं छिपे हुए इस मनोभाव को बताती है कि नौकरी करने वाली औरतें होम-ब्रेकर होती हैं।

पहली बार घरेलू सहायिकाओं की अहमियत पता चल रही है

बहरहाल यह भी सच है कि घर के काम करने से कोई छोटा नहीं हो जाता। इन दिनों लोग सोशल मीडिया पर घर का काम करते तस्वीरें डाल रहे हैं। यूट्यूब से खाना बनाने की विधियां सीखकर तरह-तरह के व्यंजन बना रहे हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि जिम नहीं जा पा रहे, घूम नहीं पा रहे तो उन्हें भी लोग घरेलू काम करने की सलाह दे रहे हैं कि मशीन में कपड़े न धोकर हाथ से कपड़े धोएं इससे काम भी निपटेगा और कैलोरी भी बर्न होगी। चूंकि घरेलू सहायिकाएं नहीं आ रही हैं तो घर का झाड़ू-पोंछा, बर्तन आदि का काम भी खुद करना पड़ रहा है। कई लोग यह भी लिख रहे हैं कि पहली बार अपनी घरेलू सहायिकाओं की अहमियत पता चल रही है कि कैसे वे हमारे घर की साफ-सफाई, कपड़े धोने, खाने आदि की जिम्मेदारियां निभाती रही हैं।

लॉकआउट के चलते पूरा परिवार घर में है, बच्चों को समझाएं कि वे घर में क्यों हैं

यह बात भी है कि बहुत दिनों बाद अपने घर की साज-संभाल पर ध्यान गया है। हर कोना पुकार रहा है। इससे यह भी पता चलता है कि जिस घर में हम रहते हैं, उसकी कितनी कम चिंता करते हैं। इसके कारण भी हैं। युवा पीढ़ी मुंह अंधेरे काम पर निकलती है, देर से लौटती है। साथ में दफ्तर का काम ले आती है। ऐसे में घर देखने का समय वाकई बहुत कम है। जिनके बच्चे हैं उनकी जिम्मेदारियां और भी अधिक हैं। एकल परिवारों में बुजुर्ग भी नहीं जो बच्चों की देखभाल कर सकें। इन दिनों भी जब पूरा परिवार घर में है तो लोग पूछ रहे हैं कि बच्चों को कैसे समझाएं कि वे घर में क्यों हैं। उन्हें कैसे व्यस्त रखें।

यदि खाना, खाना अच्छा लगता है तो बनाना क्यों नहीं

पंद्रह साल पहले मैं ऐसे कई जोड़ों से मिली जो घर में खाना नहीं पकाते थे, सिर्फ चाय बनती थी। घर से सवेरे निकलते थे। दफ्तर की कैंटीन में ही नाश्ता और लंच करते थे। फिर वहीं से पैक कराके शाम के लिए ले जाते थे। कुक रखने और घर का राशन आदि लाने के सब कामों की छुट्टी। एक महिला ने सालों पहले मुझसे कहा था कि मैं क्या कोई खाना बनाने वाली हूं। मैं पत्रकार हूं। तब उसकी बात सुनकर लगा था कि क्या खाना बनाना इतना बुरा काम है। यदि खाना, खाना अच्छा लगता है तो बनाना क्यों नहीं? दरअसल इस तरह का सामंतवाद हमारे जैसे देश में ही संभव है जहां हर काम के लिए नौकर मिलते हैं और एक मध्यवर्ग का आदमी भी नौकरों की फौज रखकर खुद को धन्ना सेठ समझता है।

युवा वर्ग की रुचि अब खाना पकाने में नहीं रह गई

सालों पहले उस महिला की कही बात आज जेनरेशन एक्स, वाई, जेड और अब मिलेनियल्स पर सही बैठती है। वर्षों पहले एक खबर पढ़ी थी कि चूंकि युवा वर्ग की रुचि अब खाना पकाने में नहीं रह गई है तो बहुत से बिल्डर्स अब घर में रसोई नहीं बनाते हैं। उन्हीं दिनों इस संदर्भ में एक लड़के का इंटरव्यू पढ़ा था, जिसने कहा था कि हम घर में किचन का झंझट नहीं पालना चाहते।

नई पीढ़ी के लिए पहला संकट जहां किसी को छूना, हाथ मिलाना खतरे को निमंत्रण देना है

आज नई पीढ़ी ही नहीं हमारी पीढ़ी भी इस तरह के संकट को पहली बार झेल रही है। जहां किसी को छूना, स्पर्श, हाथ मिलाना, मिलना-जुलना किसी उत्सव आदि में भाग लेना खतरे को निमंत्रण देना है। कोरोना नाम का एक अदृश्य शत्रु कब गिरफ्त में लेकर मौत की नींद सुला देगा, पता नहीं। इसीलिए डर भी है।

( लेखिका साहित्यकार हैं )