[शंकर शरण]। कांग्रेस नेता शशि थरूर का यह कथन चर्चा में है कि 'हमारा यह हाल हो गया है कि धर्म-मजहब के किसी पक्ष पर कुछ भी कहने पर कोई न कोई भावना आहत होने का दावा कर नाराज होने लगता है। तृणमूल नेत्री महुआ मोइत्रा द्वारा देवी काली के बारे में दिए गए बयान के संदर्भ में उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी बातें सहजता से लेनी चाहिए, क्योंकि इसके पीछे किसी को चोट पहुंचाने का भाव नहीं रहता। थरूर की बात सही है।

समस्या यह है कि उन जैसे अधिकांश नेता और बौद्धिक तब चुप रह जाते हैं, जब मामला इस्लामी प्रसंगों का होता है। तब अभिव्यक्ति के सहज अधिकार पर दोहरापन झलकता है, जो सबसे बड़ा संकट है। लोग किसी चोट से अधिक उस पर शासन और बुद्धिजीवियों के दो तरह के रुख दिखाने से अधिक क्षुब्ध होते हैं। महुआ मोइत्रा के पक्ष में कही बात नुपुर शर्मा के लिए तो और सही है, जिन्होंने अपने देवता के उपहास पर प्रतिक्रिया में कुछ कहा। इसके विपरीत महुआ ने स्वत: टिप्पणी की।

यह एक तथ्य है कि धर्म की आलोचना के मामले में हिंदू सबसे अधिक उदार रहे हैं। यहां ईसाई मिशनरी सदियों से हिंदू धर्म, देवी-देवताओं, परंपराओं की खुली निंदा करते रहे हैं। अपने प्रकाशनों में और यहां तक कि हिंदू तीर्थों में खड़े होकर वे हिंदू धर्म को दुर्बल, अंधविश्वासी बताते रहे हैं। ईसाई मिशनरियों की तरह इस्लामी तब्लीगी भी हिंदू, बौद्ध धर्म को 'कुफ्र', 'मूर्तिपूजक' आदि कहकर निंदा करते हैं। वे हिंदू रीति-रिवाजों, पर्व-त्योहारों को भी अनुचित बताते हैं और मुसलमानों को हर उस चीज से दूर होने को कहते हैं, जो हिंदू परंपरा से जुड़ी हो। रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, बोल-चाल आदि में भी मुसलमानों को हिंदुओं से कुछ साझा करने से मना करते हैं। इस अलगाव के पीछे केवल इस्लाम को ऊंचा और दूसरे धर्मों को झूठा बताने पर जोर रहता है।

मिशनरियों की तरह इस्लामी भी हिंदू धर्म के महापुरुषों पर आक्षेप करते रहे हैं, किंतु जब कोई हिंदू इस्लामी मतवाद के संबंध में बिल्कुल प्रामाणिक बातें भी कहता है, तब उसे 'अपमान' कहकर हिंसा, हंगामा किया जाता है। तब अधिकांश नेता और बौद्धिक उस बेचारे हिंदू की ही निंदा शुरू कर देते हैं और कानून, संविधान को ताक पर रखकर मुसलमानों को भड़काते हैं, जबकि उसी समय मुसलमानों को समान नैतिकता की सीख देकर सार्थक चर्चा हो सकती है। तब अधिकांश मुसलमान भी यह स्वीकार करेंगे कि विभिन्न समुदायों के बीच मान-सम्मान केवल बराबरी और परस्परता पर ही कायम हो सकता है।

भारत विश्व में विविध धर्मों, समुदायों के शांतिपूर्ण सहजीवन का सबसे ऐतिहासिक उदाहरण रहा है। इसका श्रेय हिंदू धर्म-परंपरा को जाता है, जिसमें मत-विश्वासों में विविधता की स्वीकृति है। इससे इन्कार कर हर अवसर पर हिंदू समाज को ही दोषी ठहराने का अभियान चलता है। जब कभी हिंदुओं के खिलाफ संगठित हिंसा होती है तब भी मामले को रफा-दफा करने की कोशिश होती है। दोषियों की पहचान तक छिपाई जाती है, किंतु यदि प्रतिक्रिया में एक भी चोट हो तो सारी दुनिया में 'हिंदू फासिज्म', 'असहिष्णुता', 'अल्पसंख्यकों पर अत्याचार' आदि का अंतहीन प्रचार शुरू हो जाता है। सारे यथार्थ-बोध को तिलांजलि दे दी जाती है। यह सब हिंदुओं पर दोहरी-तिहरी चोट है।

आज सूचना-तकनीक के सर्वव्यापी होने के कारण हर ऐसी घटना, बयान या करतूत को लाखों लोग तुरंत जान जाते हैं। दुर्भाग्य यह है कि हमारे नेता और मीडिया के एक हिस्से के लोग इस पर सत्यनिष्ठ रुख अपनाने के बजाय दलीय राजनीति की रोटी सेंकने लगते हैं। फलत: सामुदायिक संबंधों के समान मापदंड बनाने या धर्म-विश्वास की आलोचना को सहज बताने का अवसर नष्ट हो जाता है और सामुदायिक द्वेष बढ़ता जाता है।

ईसाई और मुस्लिम नेताओं ने हिंदू उदारता की बात समय-समय पर स्वीकार की है। देसी-विदेशी मुस्लिम नेता यह मानते हैं कि भारत में मुसलमानों को जितनी शांति, सुविधा, स्वतंत्रता और उन्नति के अवसर हैं, वे किसी मुस्लिम देश में भी नहीं हैं।

आज के सुलभ-सूचना युग में इन तथ्यों को कोई भी परख सकता है, किंतु विविध दल, देसी-विदेशी संस्थाएं और निहित स्वार्थों वाला प्रचारतंत्र मुसलमानों के विरुद्ध भेदभाव और अन्याय की झूठी बातें भी फैलाता है। ऐसा करके मुसलमानों में अस्वस्थकर भावनाएं भरी जाती हैं, विशेषत: धार्मिक भावनाओं के प्रसंग में। जबकि सत्य यह है कि भारत-भूमि के तीनों खंडों- भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश में हिंदू समाज ही निरंतर चोट और अपमान झेल रहा है।

पाकिस्तान और बंगलादेश में तो हिंदू बाकायदा निम्न दर्जे के नागरिक बना दिए गए हैं। उनके मंदिर, परिवार और संपत्ति पर नियमित हमले होते रहते हैं। भारत में हिंदू अपनी शिक्षा और अपने मंदिरों के संचालन में ईसाई और मुस्लिम समुदायों को मिले अधिकारों से वंचित है। इस तरह वे यहां भी दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिए गए हैं। ऐसी दुर्दशा तो ब्रिटिश राज में भी नहीं थी। ऐसी विडंबना के बीच एक हिंदू को अपने धर्म के बचाव में दूसरे की आलोचना करने के लिए दंडित करने का मामला सरगर्म है।

हिंदू धर्म, परंपरा, देवी-देवताओं को 'कुफ्र' कहकर घृणित बताना तो दूसरों का सहज अधिकार है, किंतु हिंदू किसी दूसरे मत-मजहब को तथ्यत: भी अत्याचारी, अंधविश्वासी नहीं कह सकता। इसके लिए उसे फौरन मार डालने के आह्वानों से लेकर पुलिस, अदालती कार्रवाई तक शुरू हो जाती है। उस हिंदू का समर्थन करने वाले पर भी खतरा मंडराने लगता है। इस सब पर राज्यतंत्र और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा घोर दोहरापन दिखाता है। यह प्रवृत्ति देश के लिए अनिष्टकारी है।

हमारे नेताओं और गणमान्य लोगों को धार्मिक आलोचना पर सहज, समान मानदंड बनाने के लिए पहल करनी चाहिए। धार्मिक भावनाओं से संबंधित सभी मुद्दों के समाधान के लिए सामान्य कसौटी बनानी चाहिए। हिंसा और दबाव के तर्क को दो-टूक खारिज कर मात्र मानवीय विवेक और समान नैतिकता का आधार बनाना होगा। सदैव किसी तरह शांति बनाने और लेन-देन की नीति से हिंसक तत्वों को ही प्रोत्साहन मिलता है। विभिन्न पंथों, उनकी किताबों, इतिहास आदि की आलोचना पर सार्वभौमिक सहजता ही उपाय है। हर तरह के विशेषाधिकार को ठुकराना होगा। इसी से यूरोप और अमेरिका आगे बढ़ सके। आलोचना समेत जो अधिकार एक समुदाय को मिले हैं, वही सबको देना ही मानवीय उन्नति का मार्ग है।

(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)