[ विवेक कौल ]; किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का अंदाजा वहां की आर्थिक गतिविधियों को देखकर लगाया जा सकता है। 2019 के आरंभ से भारत में आर्थिक मोर्चे पर हाल कुछ सही नहीं रहे हैं। इन दिनों स्थिति और भी बदतर हो गई है। हम आर्थिक सूचकों को देखकर इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। अब गाड़ियों की बिक्री को ही ले लीजिए। अप्रैल से जून 2019 के बीच में इनकी बिक्री पिछले साल की तुलना 23.3 प्रतिशत गिरी है। यह करीब 15 वर्षों में गाड़ियों की बिक्री में आई सबसे बड़ी गिरावट रही है।

दोपहिया वाहनों की बिक्री में गिरावट

यहां यह कहना जरूरी है कि गाड़ी खरीदने की हैसियत सब भारतीय नहीं रखते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि हम दोपहिया वाहनों की बिक्री पर भी नजर डालें। इनकी बिक्री भी अप्रैल से जून 2019 के बीच में पिछले साल की तुलना में 11.7 प्रतिशत गिरी है। अक्टूबर से दिसंबर 2008 के बाद यह सबसे बड़ा संकुचन है। उन तीन महीनों में दोपहिया वाहनों की बिक्री में 14.8 प्रतिशत की गिरावट आई थी। पते की बात यह है कि मोपेड की बिक्री में भी भारी गिरावट आई है। उनकी बिक्री अप्रैल और जून 2019 के बीच पिछले साल के बनिस्बत 19.9 प्रतिशत गिरी है। इसके अलावा ट्रैक्टरों की बिक्री में भी 14.1 प्रतिशत की गिरावट आई है।

लोगों का आर्थिक भविष्य डांवाडोल

इन आर्थिक सूचकों को देखकर हमें क्या पता चलता है? कोई भी आदमी एक गाड़ी या एक दोपहिया वाहन या फिर एक ट्रैक्टर अपनी मर्जी से खरीदता है। इस बात के लिए उसे कोई मजबूर नहीं करता है। ऐसा करते हुए वह अपनी बचत का एक हिस्सा इन पर खर्च करता है। इसके अलावा इस खरीद के लिए पूरे पैसे का जुगाड़ करने के लिए ज्यादातर लोगों को बैंक या एनबीएफसी से कर्ज लेने की जरूरत भी पड़ती है। अब कर्ज लिया है तो इस कर्ज की भरपाई करने के लिए आने वाले दिनों में ईएमआइ भी देनी पड़ेगी। जब एक आदमी ईएमआइ देने की प्रतिबद्धता दिखा रहा है तो उसे अपने आर्थिक भविष्य पर विश्वास होता है। उसे यह भरोसा है कि ईएमआइ देने के लिए जितने पैसों की जरूरत पड़ेगी उससे कहीं ज्यादा पैसा कमा लेगा, पर हाल-फिलहाल ऐसा नहीं हो रहा है। वाहनों की गिरती हुई बिक्री दर्शाती है कि लोगों को अपना आर्थिक भविष्य कुछ डांवाडोल नजर आ रहा है। इसलिए वे खर्चा नहीं कर रहे हैं और इसका गुणक प्रभाव भी प्रत्यक्ष रूप से दिख रहा है।

एक के साथ औरों का भी धंधा ठप होने लगता है

गाड़ी या दोपहिया वाहन बनाने वाली कंपनी सब कुछ खुद नहीं बनाती है। जैसे एक कार निर्माता कंपनी को ही लीजिए। पहिये कोई और बनाता है तथा स्टियरिंग कोई और। गाड़ी को बनाने के लिए जो स्टील लगता है वह भी किसी और कंपनी से आता है। तो अगर गाड़ियों की बिक्री में एक ठहराव सा आता है तो इसका असर बाकी कंपनियों पर भी पड़ता है। यह गुणक प्रभाव धीरे-धीरे पूरी अर्थव्यवस्था में फैलता है। जैसे गाड़ी बनाने वाली कंपनी का कारोबार घटता है तो फिर टायर की कंपनी और फिर रबर, जिससे टायर बनते हैं, बनाने वाली कंपनी का भी धंधा ठप होना भी स्वाभाविक ही है।

लोगों की नौकरियां जा सकती हैैं

जब ऐसा होता तो इन कंपनियों में काम करने वाले लोगों की नौकरियां जा सकती हैैं या वेतन स्थिर या कम हो सकता है। इसका प्रभाव उनके खर्चे पर पड़ता है। इसकी वजह से हिंदुस्तान यूनिलीवर जैसी उपभोक्ता वस्तु बनाने वाली कंपनियां भी पहले जैसा कारोबार नहीं कर पा रही हैं। अप्रैल से जून 2019 के बीच में उसकी वॉल्यूम ग्रोथ (पैक बेचने में वृद्धि) करीब पांच प्रतिशत रही। पिछले साल यह करीब 12 प्रतिशत थी। हिंदुस्तान यूनिलीवर जैसी बाकी कंपनियां भी अपने कारोबार में पहले जैसी वृद्धि नहीं पा रही हैं। इन सब नकारात्मक कारकों के बीच बैंकों द्वारा दिया गया खुदरा ऋण अभी भी काफी मजबूत चल रहा है। अप्रैल से जून 2019 के बीच इसकी वृद्धि 16.6 प्रतिशत रही। पिछले साल इसी अवधि के दौरान यह वृद्धि 17.9 प्रतिशत रही थी। उपभोग व्यय भारतीय अर्थव्यवस्था का करीब 60 प्रतिशत हिस्सा है। यदि उपभोग व्यय में मंदी देखी जा रही है तो यह स्वाभाविक है कि व्यापक अर्थव्यवस्था में भी मंदी फैल रही है।

निवेश में गिरावट

अगला प्रश्न यह उठता है कि अर्थव्यवस्था में निवेश की क्या स्थिति है? यदि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की मानें तो अप्रैल से जून 2019 के बीच मूल्य के हिसाब से नई निवेश परियोजनाओं की घोषणाओं में पिछले साल के मुकाबले करीब 80 प्रतिशत की गिरावट आई है। इसके अलावा निवेश परियोजनाओं के पूरे होने में भी 48 प्रतिशत की गिरावट आई है। इससे स्पष्ट है कि कारोबारियों को वास्तव में भारत के आर्थिक भविष्य में भरोसा नहीं है, चाहे वे सार्वजनिक रूप से इस बात को मानें या न मानें।

कर संग्रह में भी आर्थिक मंदी

यह आर्थिक मंदी सरकार के कर संग्रह में भी दिख रही है। अप्रैल से जून 2019 के बीच केंद्र सरकार का सकल कर संग्रह केवल 1.4 प्रतिशत बढ़ा। पिछले साल इसमें 22.1 प्रतिशत का इजाफा हुआ था। इसके अलावा वस्तु निर्यात अप्रैल से जून के बीच में ़81.1 अरब डॉलर रहा। पिछले वर्ष इसी अवधि में यह ़82 अरब डॉलर रहा था।

एक लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की मांग

ये सारे आर्थिक सूचक आर्थिक मंदी का संकेत कर रहे हैं। ऐसे समय में सरकार क्या कर सकती है? कारोबारियों ने सरकार से एक लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की मांग की है। इसका एक तरीका यह हो सकता है कि सरकार चालू वित्त वर्ष में बजट में तय खर्चे से एक लाख करोड़ रुपये ज्यादा खर्च करे। बेहतर यह होगा कि सरकार ये पैसा उपभोक्ताओं के हाथों में दे और उन्हें खर्चा करने दे। यह कैसे होगा? इसके लिए जरूरी है कि इनकम टैक्स की दरें इस साल के लिए कम की जाएं। दूसरा वस्तु एवं सेवा कर की दरों में भी कुछ संशोधन किया जाए। इससे उपभोक्ताओं के हाथों में कुछ पैसा आएगा और चीजों के दाम भी गिरेंगे। इससे फिर उपभोक्ताओं द्वारा अधिक उपभोग की संभावना बढ़ेगी।

सरकार खस्ताहालत कंपनियों पर पैसा न गंवाए

इसके साथ यह भी जरूरी है कि सरकार बीएसएनएल, एमटीएनएल और एयर इंडिया जैसी कंपनियों पर और पैसा न गंवाए। सार्वजनिक क्षेत्रों के उद्यमों के पास जो जमीनें हैैं उन्हें भी बेचने की कोशिश होनी चाहिए। इससे सरकार के पास पैसा आएगा और उधार लेने की जरूरत कम होगी। सरकार अगर कम उधार लेगी तो ब्याज दरें भी कम होंगी। इन सब चीजों के अलावा सरकार को यह भी कोशिश करनी पड़ेगी कि व्यापारियों के लिए चीजें और मुश्किल न बनाई जाएं।

( इजी मनी ट्राइलॉजी के लेखक अर्थशास्त्री एवं स्तंभकार हैैं )