राजीव सचान

गनीमत इसे कहें कि आज शकील बदायूंनी, नौशाद और मोहम्मद रफी नहीं हैं या फिर इसे कि उनके जमाने में फुलवारी शरीफ स्थित इमारत-ए-शरिया के मुफ्ती सोहेल अहमद कासमी और जमीयत उलेमा के अहमद कादरी नहीं थे? यह सवाल इसलिए, क्योंकि कासमी और कादरी को बिहार में मंत्री बने फिरोज उर्फ खुर्शीद अहमद को यह कहना रास नहीं आया कि ‘मैं राम और रहीम, दोनों को मानता हूं।’ इसमें संदेह है कि कासमी और कादरी को फिल्म बैजू बावरा के लिए शकील बदायूंनी की ओर से लिखा गया भजन-मन तड़पत हरि दर्शन को आज...रास आता। इसे मोहम्मद रफी ने गाया था और संगीत दिया था नौशाद ने। इन दोनों को शायद फिल्म हम दोनों के लिए साहिर लुधियानवी की ओर से लिखे गए गीत-अल्ला तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम.. पर भी आपत्ति होती। पता नहीं कासमी इन लोगों के खिलाफ फतवा जारी करने का साहस जुटाते या नहीं, लेकिन यह देखना-सुनना हैरान करता है तो कथित सेक्युलर-लिबरल खेमे के एक भी बड़े नेता या फिर विचारक ने यह नहीं कहा कि यह एक बेहूदा फतवा है। इस फतवे के जारी होते ही जमीयत उलेमा के साथ ही कुछ और संगठन खुर्शीद अहमद के विरोध में आ गए। बिना भीड़ इकट्ठा किए उनके खिलाफ वैसा ही माहौल बना दिया गया जैसा हिंसक भीड़ के चलते बनता है। नतीजा यह हुआ कि खुर्शीद अहमद ने टीवी कैमरों के सामने भी माफी मांगी और फुलवारी शरीफ जाकर इमारत-ए-शरिया के समक्ष भी। इसी के साथ यह आड़ ध्वस्त हो गई कि फतवा तो बस सलाह मात्र होता है। खुर्शीद फतवा के जरिये इस्लाम से खारिज करने के साथ ही पत्नी संग रहने के अयोग्य ठहरा दिए गए थे। जैसे खुर्शीद के मामले में सेक्युलर-लिबरल खेमे ने चुप रहने में ही भलाई समझी उसी तरह वह तसलीमा नसरीन को औरंगाबाद से एक उग्र भीड़ के चलते बैरंग लौटाए जाने पर भी मौन धरे रहा। हैरत इस पर है कि तसलीमा के मसले पर भाजपा भी मौन है।
तसलीमा महाराष्ट्र में औरंगाबाद जाकर अजंता और एलोरा की गुफाएं देखने जाना चाहती थीं। उन्हें शायद अंदेशा था कि असदुद्दीन औवेसी के राजनीतिक दल एआइएमआइएम के असर वाले इस शहर में उनका विरोध हो सकता है और इसीलिए उन्होंने अपनी मित्र के नाम से होटल बुक कराया था। उनके औरंगाबाद जाने और वहां होटल में रुकने की सूचना केवल पुलिस के पास थी, लेकिन उनके हवाईअड्डे पर उतरने के पहले ही एआइएमआइएम विधायक इम्तियाज जलील के नेतृत्व में एक भीड़ वहां तसलीमा वापस जाओ के नारे लगाती हुई मौजूद थी। जलील पहले पत्रकार रह चुके हैं, लेकिन उन्होंने तसलीमा की बैरंग वापसी को अपनी उपलब्धि माना और अपने नेता ओवैसी को सगर्व सूचित किया कि उनके विरोध के चलते विवादास्पद लेखिका तसलीमा उसी फ्लाइट से वापस लौटने को मजबूर हुईं। आए दिन टीवी चैनलों पर करीब-करीब हर मसले और खासकर सांप्रदायिकता पर बोलते हुए दिखने वाले ओवैसी तसलीमा के साथ अपने लोगों की बदसलूकी पर मौन हैं। सोमवार को लोकसभा में भीड़ की हिंसा पर वह यह बोलते अवश्य दिखे कि मोदी सरकार धर्म को विचारधारा के तौर पर प्रोत्साहित कर रही है। अभी तक किसी ने भी और यहां तक कि भाजपा नेताओं ने भी उनसे यह नहीं पूछा कि औरंगाबाद में उनके कार्यकर्ताओं ने तसलीमा को औरंगाबाद जाने से रोककर किस विचारधारा को प्रोत्साहित किया? तसलीमा को औरंगाबाद जाने से रोकने की जरूरत पर जलील का कहना है कि उनके शहर में आने से कानून एवं व्यवस्था के लिए संकट पैदा हो जाता। कोई नहीं जानता कि जलील ने पुलिस को यह जो समझाया वह उसे इतनी आसानी से कैसे समझ आ गया? इसके पहले तसलीमा के साथ हैदराबाद में भी मार-पीट की जा चुकी है। यह काम भी एआइएमआइएम समर्थकों ने किया था।
भीड़ की हिंसा और खासकर गाय के नाम पर हो रही हिंसा पर विपक्षी दलों के आरोपों का सामना कर रही भाजपा को यह शिकायत है कि जयश्रीराम पर फतवे के खिलाफ कोई क्यों नहीं बोला? उसे यह भी शिकायत है कि आखिर केरल और बंगाल में भीड़ की हिंसा पर चुप्पी क्यों छाई है? उसकी यह शिकायत सही है, लेकिन आखिर उसे ऐसे मसलों पर उस लिबरल खेमे से मुखर होने की अपेक्षा क्यों करनी चाहिए जिसे वह दोहरे मानदंड़ों वाला और छद्म सेक्युलर घोषित कर चुकी है? यह खेमा तो एक पक्ष की मनमानी पर मौन रहने के लिए कुख्यात हो चुका है। उसका एकपक्षीय नजरिया किस तरह एक सनक में तब्दील हो चुका है, इसका एक प्रमाण पिछले दिनों राज्यसभा में तब दिखा जब सपा सांसद नरेश अग्रवाल ने हिंदू देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक बयान दिया। इस बयान पर जब उनसे माफी मांगने की मांग की गई तो विपक्ष के किसी सांसद ने यह नहीं कहा कि उन्हें ऐसा करना चाहिए। अगर कथित सेक्युलर-लिबरल खेमा दोहरे मानदंडों का परिचय नहीं दे रहा होता तो उसकी इतनी दुर्गति ही नहीं हुई होती। इतनी दुर्गति के बाद भी अगर वह भीड़ की हिंसा को लेकर मोदी सरकार को घेरने में लगा हुआ है तो भाजपा की अपनी कुछ कमियों के कारण।
आज भाजपा भीड़ की हिंसा को लेकर विपक्षी दलों के आरोपों से इसीलिए घिरी है, क्योंकि वह गाय की रक्षा के नाम कानून हाथ में लेने वाले बेलगाम तत्वों की गतिविधियों पर समय रहते नहीं चेती। उसके नेता केवल यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री करते रहे कि वे इस तरह की घटनाओं का विरोध करते हैं और कानून एवं व्यवस्था तो राज्यों का विषय है। आखिर तमाम राज्यों में शासन तो उसी का है। अब जब प्रधानमंत्री गंदगी, भ्रष्टाचार और जातिवाद के साथ सांप्रदायिकता से भी लड़ने का संकल्प लेने की बात कह रहे हैं तब फिर यह और जरूरी हो जाता है कि भाजपा खुद इस संकल्प से लैस नजर आए। अगर वह इस संकल्प से भली तरह लैस होती तो शायद इस आरोप से बची रहती कि भीड़ की हिंसा की सबसे ज्यादा घटनाएं उसके शासित राज्यों में हो रही हैं। इस देश में सांप्रदायिकता से वही दल निपट सकता है जो हर तरह के सांप्रदायिक तत्वों के खिलाफ न केवल सख्त नजर आए, बल्कि सख्ती बरते भी। जब कोई दल ऐसा नहीं कर रहा तब भाजपा को यह काम आगे बढ़कर करना चाहिए। उसे किस्म-किस्म के बेलगाम तत्वों से यह कहना होगा कि किसी बात का विरोध करना और उसके नाम पर कानून हाथ में लेना दो बिल्कुल अलग-अलग चीजे हैं।
[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं ]