[ सुधीर पंवार ]: लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया के अंतिम चरणों तक आते-आते यह स्पष्ट हो रहा है कि आगामी लोकसभा का स्वरूप पिछली लोकसभा से भिन्न रहने वाला है। चुनावी सर्वेक्षणों एवं भविष्यवाणियों से इतर इसके स्पष्ट संकेत मौजूदा चुनावों की पृष्ठभूमि, सत्तापक्ष एवं विपक्ष के चुनावी मुद्दे, क्षेत्रीय दलो के परस्पर एवं राष्ट्रीय दलों के चुनाव पूर्व हुए गठबंधनों एवं महत्वपूर्ण नेताओं के साक्षात्कारों/बयानों से मिल रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव दस साल की मनमोहन सिंह सरकार के सत्ता जनित विरोध, सरकार के कार्यकलापों पर सीएजी की रिपोर्ट में उजागर हुए कथित भ्रष्टाचार, महंगाई एवं बेरोजगारी पर युवाओं में बढ़ते असंतोष की पृष्ठभूमि में हुए थे। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के विरोध में हुए लोकपाल से जुड़े अराजनीतिक आंदोलन ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के विरुद्ध जनमानस में गहरी छाप छोड़ी थी।

वंदे मातरम, भारत माता की जय के नारों के बीच लहराते तिरंगों ने पहली बार भ्रष्टाचार विरोध को राष्ट्रीयता की भावना से जोड़ा था। मनमोहन सिंह सरकार के विरुद्ध उपजे जनाक्रोश की पृष्ठभूमि में नरेंद्र मोदी ने अंतर्निहित हिंदुत्व छवि, गुजरात विकास मॉडल एवं युवा आकांक्षाओं के सफल संयोजन से न केवल केंद्र में भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिलाया, वरन भाजपा को चुनाव जीतने वाली मशीन के रूप में स्थापित करने मे भी सफल रहे। कांग्रेस मात्र 44 सांसदों तक सीमित रह गई और अधिकांश क्षेत्रीय दल या तो भाजपा के नेतृत्व वाले राजग में शामिल हो गए या फिर हाशिए पर सिमट गए।

मोदी सरकार के कार्यकाल की समाप्ति के पूर्व ही भाजपा के ‘अच्छे दिनों’ के सपने से जनता का मोहभंग होने लगा तथा भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के नारों के बीच जनता ने भाजपा को उसके मजबूत गढ़ माने जाने वाले राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में हराकर कांग्रेस की सरकार बनवाई। देश के अधिकांश राज्यों में हुए लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की हार ने उसके अविजित रहने के मिथक को तोड़ दिया। उत्तर प्रदेश में गोरखपुर, फूलपुर एवं कैराना में हुए लोकसभा उपचुनावों के परिणामों में भाजपा को मिली चुनावी पराजय ने सपा-बसपा-रालोद गठबंधन की नींव रखने में अहम भूमिका निभाई। लोकसभा चुनावों की पृष्ठभूमि में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की सफलताओं/असफलताओं के साथ-साथ भाजपा शासित राज्यों की सरकारों की कार्यप्रणाली भी है।

मोदी सरकार के तीन बड़े फैसले-नोटबंदी, जीएसटी एवं किसानों की दोगुनी आमदनी मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में लाने में नाकाम रहे हैं। सरकारी नौकरियों एवं रोजगार के घटते अवसरों ने आकांक्षी युवाओं का भाजपा से मोहभंग ही किया है। भाजपा नेतृत्व वाली राज्य सरकारें भी सरकारी कार्यसंस्कृति में सुधार लाने में असफल रही हैं। इसका प्रभाव भी लोकसभा चुनावों पर हुआ। राम मंदिर, धारा 370 एवं समान नागरिक संहिता पर मोदी सरकार के रवैये ने भाजपा एवं संघ के पुराने कार्यकर्ताओं एवं परंपरागत समर्थकों को यदि असंतुष्ट नहीं तो निराश अवश्य किया है।

चुनावों के ठीक पहले सवर्णों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण के लिए संवैधानिक संशोधन, पिछड़ों के आरक्षण को विभाजित करने की घोषणा एवं संघ के आनुषंगिक संगठनों द्वारा उग्र हिंदुत्व पर दिए गए बयानों एवं कार्रवाइयों ने दलितों, पिछड़ों एवं मुस्लिमों को सशंकित और भाजपा के विरोध में संगठित किया है। इन चुनावों में भाजपा की सबसे बड़ी विफलता अखिल भारतीय विस्तार के बाद भी राष्ट्रीय विमर्श का अभाव है जिसका प्रमाण भाजपा नेताओं द्वारा लोकसभा चुनाव के विभिन्न चरणों में अलग-अलग मुद्दे उठाना है जैसे सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट, अली-बजरंग बली, प्रज्ञा ठाकुर, राजीव गांधी का भ्रष्टाचार। भाजपा का चुनाव प्रचार इस बार राष्ट्रीयता, आतंकवाद और मजबूत नेता तक सिमट गया है जो पिछड़ों, दलितों, मुस्लिमों एवं युवाओं की चिंता एवं आकांक्षाओं को संबोधित एवं समायोजित करने में विफल रहा है।

भाजपा को निर्णायक चुनौती उत्तर प्रदेश में मिल रही है। अखिलेश एवं मायावती ने दलितों, मुस्लिमों एवं अधिकांश पिछड़ी जातियों के मजबूत गठबंधन का विकल्प देकर सत्ता में हिस्सेदारी का विश्वास दिलाया है। उत्तर प्रदेश एवं बिहार में इस चुनाव का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष भाजपा एव विपक्षी गठबंधन के पक्ष-विपक्ष में हुआ समाज का स्पष्ट क्षैतिज विभाजन है। इस विभाजन में जहां मुस्लिम, दलित एवं अधिकांश पिछड़ी जातियां गठबंधन के पक्ष में हैं वहीं सवर्ण और कुछ अन्य पिछड़ी जातियां भाजपा के पक्ष में हैं। कभी चुनावी परिणाम प्रभावित करने वाला निर्णायक ‘फ्लोटिंग वोटर’ इस चुनाव में गायब है। अभी तक हुए चुनावों पर मीडिया रपटों, भाजपा महासचिव राम माधव एवं शिवसेना के नेता संजय राउत के बयानों से स्पष्ट हो रहा है कि संभवत: भाजपा बहुमत के आंकड़े तक नही पहुंच पाएगी। कांग्रेस के कपिल सिब्बल भी स्पष्ट कर चुके हैं कि उनकी पार्टी भी बहुमत से दूर ही रहेगी।

ऐसे में संभावना है कि आगामी सरकार के स्वरूप एवं गठन में क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो। इसे देखते हुए तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू तीसरा मोर्चा बनाने के प्रयासों में जुट गए हैं। संभावित स्थिति पर भाजपा की भी पैनी नजर है। इसकी पुष्टि कांग्रेस द्वारा सपा-बसपा प्रत्याशियों के चुनावों में रणनीतिक समर्थन में भेदभाव वाले बयान से होती है। क्षेत्रीय दलों के चुनाव पूर्व हुए गठबंधनों के कारण तीसरे मोर्चे के गठन में भी उलझनें हैं। जेडीएस कर्नाटक में कांग्रेस समर्थन से सरकार चला रहा है। बिहार में राजद कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहा है।

द्रमुक तमिलनाडु में न केवल कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ रहा है, बल्कि उसके नेता स्टालिन राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की वकालत कर चुके हैं। जहां माकपा और कांग्रेस साथ होने की बात कर रहे हैं, लेकिन केरल और बंगाल में एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में भाजपा एवं कांग्र्रेस से समान दूरी रखने वाले अखिलेश यादव, मायावती, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक एवं जगनमोहन रेड्डी की भूमिका महत्वपूर्ण होने वाली है। क्षेत्रीय दलों में तालमेल बैठाने के लिए चुनाव परिणामों से दो दिन पहले 22 क्षेत्रीय दलों की बैठक के लिए तैयारी भी शुरू हो चुकी है।

सभी संभावनाओं के बीच यह तय है कि भाजपा को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय राजनीति में वर्चस्व बढ़ने वाला है। अधिकांश क्षेत्रीय दल कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनाने की अपेक्षा क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर तीसरे मोर्चे की सरकार को प्राथमिकता देना पंसद करेंगे।

( लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं )

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