सतीश सिंह। डॉल्फिन मूल रूप से समुद्री जीव है, लेकिन इसकी कुछ प्रजातियां मीठे पानी में भी पाई जाती हैं। कुछ साल पहले तक दुनिया में इसकी चार प्रजातियां नदियों के मीठे पानी में पाई जाती थीं, लेकिन मौजूदा समय में इनमें से तीन ही अपने अस्तित्व को बचाने में कामयाब रही हैं। वर्ष 2006 तक चीन की यांग्तजी नदी के मीठे पानी में बैजी नाम की डॉल्फिन पाई जाती थी, जो अब लुप्त हो चुकी है। गंगा को छोड़कर अब केवल सिंधु और अमेजन नदी में ही डॉल्फिन पाई जाती है जिसे भुलन और बोटा के नाम से जाना जाता है। गांगेय डॉल्फिन हमारे देश का राष्ट्रीय जलीय जीव है और हम हर वर्ष पांच अक्तूबर को यानी आज के दिन गांगेय डॉल्फिन दिवस व दो से आठ अक्टूबर तक यह सप्ताह मनाते हैं। वर्ष 1996 में गांगेय डॉल्फिन को लुप्तप्राय प्राणी घोषित किया गया था। लेकिन इसके संरक्षण के लिए अभी तक गंभीर प्रयास नहीं किए गए हैं।

जुझारू जलीय जीव
वर्ष 1982 में इसकी आबादी 6,000 थी, जो घटकर 1,200 से 1,800 रह गई है। गांगेय डॉल्फिन को जुझारू जलीय जीव माना गया है क्योंकि प्रतिकूल माहौल में भी यह जीने का माद्दा रखती है। तापमान में होने वाले बड़े उतार-चढ़ाव के साथ यह आसानी से सामंजस्य बैठा लेती है। फिर भी तेजी से इसकी संख्या का कम होना निश्चित रूप से चिंता का विषय है। नेपाल में करनाली नदी में यह पांच डिग्री सेल्सियस तापमान को सह लेती है वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश में बहने वाली गंगा में यह 35 डिग्री सेल्सियस तापमान का आसानी से सामना कर लेती है। आमतौर पर यह गंगा और उसकी सहायक नदियों के संगम पर पाई जाती है ताकि मुश्किल घड़ी में यह सहायक नदियों में अपना ठिकाना बना सके।

सहायक नदियों में बनाती है घर 
गंगा नदी में पानी कम होने पर यह सहायक नदियों में अपना अस्थाई घर बनाती है। दरअसल गांगेय डॉल्फिन को छिछले पानी एवं संकरी चट्टानों में रहना पसंद नहीं है। इस तरह के स्वभाव के कारण यह गंगा की सहायक नदियों जैसे- रामगंगा, यमुना, गोमती, राप्ती, दिखो, मानस, भरेली, तिस्ता, लोहित, दिसांग, दिहांग, दिवांग, कुलसी आदि नदियों में रहना पसंद करती है। बीते सालों पटना के पास गांगेय डॉल्फिन के गंगा से सोन नदी और हुगली से दामोदर नदी में जाने का मामला प्रकाश में आया था। गंगा नदी में पाए जाने वाले डॉल्फिन का प्रचलित नाम सोंस है। वैसे यह नदी और समंदर के मिलन स्थल पर अवस्थित खारे पानी में भी रह सकती है, लेकिन समंदर में रहना इसे पसंद नहीं है। प्रत्येक 30 से 120 सेकेंड के बाद इसे सांस लेने के लिए पानी के सतह पर आना पड़ता है।

नर से अधिक होती है मादा डॉल्फिन की लंबाई 
मादा गांगेय डॉल्फिन की नाक एवं शरीर की लंबाई नर से अधिक होती है। जबड़ा भींचा रहने के बावजूद इसके लंबे नुकीले दांतों को देखा जा सकता है। एक वयस्क गांगेय डॉल्फिन का वजन 70 से 100 किलोग्राम के बीच होता है। मादा डाल्फिन की गर्भधारण अवधि नौ माह होती है और एक बार में वह एक बच्चे को जन्म देती है। वर्तमान में गांगेय डॉल्फिन का निवासस्थल भारत के गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेघना, बांग्लादेश के करनाफुली, सांगू और नेपाल के करनाली व सप्तकोशी नदी में है। कभी यह जीव नदियों के सभी हिस्सों में विचरण करती थी, लेकिन 1966 में नरौरा, 1975 में फरक्का और 1984 में बिजनौर में बैराज बनने से इसका घर तीन भागों में बंट गया, जिसकी वजह से गांगेय डॉल्फिनों के लिए गंगा के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक जाना मुश्किल हो गया है। नरौरा परमाणु संयंत्र एवं कानपुर के आसपास स्थित करीब पांच सौ छोटे-बड़े कारखानों से निकलने वाला रसायनिक कचरा गंगा में प्रवाहित होने से कानपुर के आसपास रहने वाली गांगेय डॉल्फिनें धीरे-धीरे मर गईं।

कई जगहों पर थम गया है गंगा का प्रवाह
बैराज निर्माण से गंगा का प्रवाह बहुत जगहों पर थम गया है। नदी में पानी का स्तर कम होने के कारण गांगेय डॉल्फिन को स्वाभाविक जीवन जीने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। गाद के कारण नदी उथली हो गई है। गंगा में इंसानों का घर बनने से गंगा की जान मुश्किल में है। गांगेय डॉल्फिन का शिकार करना शिकारियों के लिए आसान हो गया है। मौजूदा समय में इसका शिकार करना शिकारियों का पसंदीदा शौक है। इसका शिकार मीट, तेल, चारे (कैटफिश को पकड़ने के उद्देश्य से) आदि के लिए किया जाता है। बांग्लादेश में गर्भवती महिलाओं द्वारा गांगेय डॉल्फिन का तेल पीने की भी परंपरा है। माना जाता है कि इससे शिशु स्वस्थ व सुंदर होता है।

स्‍टीमर या फेरी से घायल हो रही हैं डॉल्फिन
कोलकाता के हुगली नदी में फेरी व स्टीमर की व्यापक आवाजाही होती है। पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर पटना, कोलकाता आदि शहरों में गंगा नदी में स्टीमर व फेरी चलाए जाते हैं जिससे यह जलीय जीव टकराकर घायल हो जाती हैं या फिर मर जाती हैं। ध्वनि प्रदूषण से भी इनके स्वास्थ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मछुआरे मछली पकड़ने के लिए नायलोन के जाल का इस्तेमाल करते हैं जिसमें गांगेय डॉल्फिन भी फंस जाती हैं। जागरुकता के अभाव में या लालच के कारण इन्हें मार दिया जाता है। गंगा को कूड़ादान समझने के कारण इसमें खाद, पेस्टीसाइड, औद्योगिक एवं घरेलू कचरे का संकेंद्रण तेजी से बढ़ रहा है। जलीय प्रदूषण के कारण गांगेय डॉल्फिन की आयु कम हो रही है।

गंगा में प्रवाहित हो रहा पेस्टिसाइड
एक अनुमान के मुताबिक 1.5 मिलियन मीटिक टन केमिकल फर्टिलाइजर के अलावा 21,000 टन टेक्निकल ग्रेड पेस्टीसाइड प्रतिवर्ष गंगा और ब्रह्मपुत्र में प्रवाहित किया जाता है जिस कारण पोलीक्लोरीनेटेड बाइफेनाइल्स (पीसीबी), हेक्साक्लोरो साइक्लोहेक्सन (एचसीएच), क्लोरोडेन कंपाउंड्स हेक्साक्लोरोबेंजेन (एचसीबी), परफ्लोरिनेटेड कंपाउंड्स (पीएफसी) आदि की मात्र नदी में अब इनके लिए असहनीय हो गई है, जो गांगेय डॉल्फिन के मसल, किडनी, लीवर आदि के लिए घातक हैं। इस जीव को बचाने के लिए डॉल्फिन पार्क की स्थापना की जा सकती है, मछुआरों व आम लोगों को जागरूक बनाया जा सकता है, भूलवश या जान बचाने के लिए नहर या सहायक नदियों में गई डॉल्फिन को सुरक्षित जगह पर लाकर उनका पुनर्वास किया जा सकता है, लेकिन अभी भी ऐसे प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। जाहिर है डॉल्फिन दिवस व सप्ताह मनाने से इस दिशा में सकारात्मक परिणाम नहीं दिखाई दे सकते हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)