[विमल मिश्र]। मैं एक डोगरा ब्राह्मण हूं, वतन से दूर रहने वाला और जड़ों से बिल्कुल कटा। मातृभाषा है डोगरी। पर मैंने क्या, मेरे पिता ने भी डोगरी या कश्मीरी कभी नहीं बोली। पुरखों की मातृभाषा से वास्ता पड़ा तो प्रवासियों के सालाना मिलन समारोहों में या रिश्तेदारों के घर जम्मू जाने पर। जब तक जम्मू-कश्मीर से अपने गहरे रिश्तों का भान होता, गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका था। अखबार की नौकरी बनारस से मुंबई खींच लाई, जहां डोगरी तो दूर, ढंग से मराठी भी नहीं सीख पाया हूं। महानगर में इस समुदाय से जो साबका पड़ा उससे अपने ही पुरखों की भाषा, रीति-रिवाज और संस्कार से परिचित न होने की कुंठा बढ़ती गई। महसूस किया कि तादाद में बहुत कम होने के बावजूद इन लोगों में अपनी जड़ों से जुड़ने की कामना कितनी प्रबल है। उन्हें हर जगह देखा-सिक्योरिटी एजेंसी और फौज में। आइटी, व्यापार और होटल बिजनेस में। सबसे ज्यादा तो फिल्म लाइन के साइड धंधों में। दिल्ली के बाद देश में सबसे ज्यादा डोगरे और कश्मीरी पंडित मुंबई में ही बसे हैं।

कुंठा के बाद जो पहली प्रतीति हुई वह गर्व की। देश की आर्थिक राजधानी में ऐसे बहुत कम समुदाय हैं, जिन्होंने दर-बदर और वतन से दूर होकर भी अपना अलग स्थान बनाने की जद्दोजहद नहीं छोड़ी है। डोगरे और कश्मीरी जहां भी हैं, अपनी मेहनत से नई जगह बनाते जा रहे हैं। अनुपम खेर तो खैर, सभी को मालूम हैं, पर मुंबई में ही ऐसे कितने ही लोगों को मैं जानता हूं। जैसे ऑफ बीट प्रोफेशन की दो लड़कियां-अफशान आशिक और कश्मीआ वाही। 25 वर्षीया अफशान-जिन्हें कश्मीर घाटी में ‘पुरुषों का खेल’ खेलने के लिए बैन कर दिया गया था-आज महिलाओं के फुटबॉल में धमाल मचा रही हैं। किशोरावस्था कश्मीआ, जिन्होंने मेनसा आइक्यू टेस्ट में सबसे ज्यादा स्कोर कर खुद को इंटेलिजेंट साबित कर दिया है। कश्मीरी पंडित समुदाय की उर्मिला जुत्शी से हुई मुलाकात याद आती है। कश्मीर घाटी में पंडितों के घर-बार और जमीन-जायदाद पर आतंकवादियों का नजला फूटा था, तो जुत्शी परिवार भी नहीं बच पाया था।

करीब 12 वर्ष पहले जब वापस लौटने की सारी उम्मीदें खत्म हो गईं, तो मजबूर होकर सब कुछ बेचकर उसे मुंबई को ही स्थायी ठौर बनाना पड़ा। 1989 के पलायन के बाद उनके बच्चों ने कश्मीर देखा तक नहीं है। अगर वे उन्हें अपनी परंपरा और संस्कृति के बारे में बताएंगे नहीं, तो उन्हें पता कैसे चलेगा कि कश्मीर है क्या? ‘यहूदियों का तो लंबे संघर्ष के बाद अपना एक ठिकाना भी है, पर हम तो दर-ब-दर ही भटक रहे हैं’, कश्मीरी पंडित एसोसिएशन के राजेन कौल कहते हैं, ‘अपनी भाषा और संस्कृति हमने बचाकर नहीं रखी तो यह खत्म हो जाएगी।’ इसीलिए 65 वर्षों से मुंबई के सारे डोगरे परिवार जनवरी-फरवरी के किसी सप्ताहांत में मिलकर 24 घंटों तक हवन और सामूहिक भोज का आयोजन करते आए हैं।

कायम है उम्मीद

सौ से भी ज्यादा वर्ष हुए मेरे पूर्वज कश्मीर घाटी से बनारस आ बसे थे। यहां से मेरे दादा कोलकाता गए और वहां से ‘भारत मित्र’ नामक अखबार निकाला। कोई चार दशक पुरानी वह याद आज तक स्मृति पटल पर अमर हो गई है। पिताजी बताते थे, सांभा कस्बे में हमारा एक बेशकीमती मकान था, जिस पर किराएदारों ने कब्जा जमा लिया था। पिता जब उसका हाल लेने गए तो कब्जेदारों ने धमकाकर उन्हें भगा दिया था। जाने-माने हिंदी फिल्मकार और डोगरी व हिंदी के ख्यातनाम लेखक वेद राही की पीढ़ियों को भी यही समस्या पेश आ रही है। वेद राही की दोनों बेटियों का विवाह डोगरों से इतर कुल में हुआ है। वे बताते हैं, ‘मेरी एक बेटी जम्मूकश्मीर आने पर ठहरने का ठिकाना चाहतीथी, तो मैंने कहा कि भूल जाओ, क्योंकि तुम्हें संविधान के तहत इसकी इजाजत ही नहीं है।’

कश्मीर को संविधान के अनुच्छेद 370 से आजाद करने के निर्णय ने यह वाकया याद करा दिया। मालूम नहीं, मेरे जैसे लोगोंको अपनी खोई संपत्ति मिलेगी या नहीं, पर इसकी धुंधली आशा पैदा हुई यह क्या कम बात है! जिस समुदाय को अपना घर-बार, जमीन-जायदाद-सब कुछ वहीं छोड़ आने के लिए बाध्य होना पड़ा, वह सबसे खुश हो, स्वाभाविक है। मुंबई के कश्मीरी पंडित एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी सुनील रंजन कौल कहते हैं, ‘अनुच्छेद 370 खत्म होगा, यही किसे आशा थी, पर यह हुआ। जब तक हम जिंदा हैं, उम्मीद का साथ नहीं छोड़ेंगे।’

यह उम्मीद ही इस निर्णय की सबसे खास बात है। उम्मीद अपनी जुबान, बोली और संस्कृति से फिर से जुड़ने की। रोजी-रोटी और रोजगार के नए रास्ते खुलने की। देश में शरणार्थी शिविरों में बसे लाखों की तादाद में बसे इन बेघर लोगों के फिर से अपने पूर्वजों की जगहों पर आबाद होने की। नि:संदेह इसके साथ बहुत सी जोखिमें भी जुड़ी हैं। पर जब इतना बड़ा निर्णय हुआ है, तो हम इन जोखिमों से निस्तार की उम्मीद भी क्यों छोड़ें! बात फिर भाषा पर। डोगरी न बोल पाने की मजबूरी के लिए मैं जम्मू-कश्मीर से पीढ़ियों पहले से अलगाव को जिम्मेदार ठहरा खुद को सांत्वना दे सकता हूं। पर उनका क्या जिन्हें पिछले 30 वर्षों में वहां से जाना पड़ा है! ये लोग जिन सूबों में जाकर बसे हैं, वहां कहीं भी डोगरी-कश्मीरी सीख पाने की व्यवस्था नहीं है। ये भाषाएं सीखी जा सकती हैं तो केवल घरों और समुदाय के सदस्यों के बीच आपसी बातचीत में। आप पूछकर देखिए, इन घरों में भी अब डोगरी और कश्मीरी स्वाभाविक जुबान नहीं रही, वहां हिंदी, उर्दू या उन जगहों की स्थानीय भाषा बोली जा रही है। अनुच्छेद 370 खत्म करने के बाद अब हमारी सरकारों को इस दिशा में भी कुछ सोचना चाहिए।

(लेखक जम्मू-कश्मीर से संबंध रखते हैं)