[ आर विक्रम सिंह ]: आज जब हम स्वतंत्रता की वर्षगांठ मनाने की तैयारी कर रहे हैैं तब यह सवाल भी हमारे सामने आना चाहिए कि आखिर हम गुलाम क्यों हुए थे? क्यों हमारे ऊपर गुलामी, बेचारगी का एक लंबा दौर गुजरा? क्या हम राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय सशक्तीकरण के उन बिंदुओं को पुनर्जागृत कर सके जिससे हम दोबारा कभी गुलाम न हों? क्या समग्र भारत शक्तिहीनता की हीनभावना से बाहर आने में सफल हो रहा है? क्यों हम उस जातीय और क्षेत्रीय सोच को तिलांजलि देने को तैयार नहीं है जो हमें खंडित किए हुए है?

यह एक सवाल भी हमारे चिंतन-मनन का हिस्सा बनना चाहिए कि हमें आजादी दो सौ वर्षों की गुलामी से मिली या हजार वर्षों की गुलामी से? इस पर भी विचार होना चाहिए कि क्यों आजादी के साथ ही हमें त्रासद विभाजन से गुजरना पड़ा? हमारी गुलामी का मूल कारण ऊंच-नीच में विभाजित हमारा समाज था। तब समाज के एक बड़े वर्ग को इसमें कोई वास्ता न था कि शासक कौन है? ‘कोई नृप होहि हमें का हानी।’ चार वर्णों और अनगिनत जातियों में विभाजित समाज की आस्थाएं भी विभाजित हो जाती हैं। हर्षवर्धन और पृथ्वीराज चौहान के बाद अराजकता का दौर आता है। आक्रांताओं के लिए यह आदर्श काल था। हमारे इतिहासकार इस पर अफसोस नहीं करते, बल्कि बड़े उत्साह से नए आए शासकों के बारें में बताने लगते हैैं। ये नए आक्रांता अपना मजहब भी हम पर बलपूर्वक थोप रहे थे।

पहले भी भारत पर हमले हुए थे। सिकंदर का हमला, हूणों, कुषाणों, शकों के हमले। वे कोई मजहब साथ नहीं लाए। वे जीते भी, हारे भी और फिर हमारी माटी, हमारे धर्म, राष्ट्रीयता में समाहित हो गए। हम सिकंदर को सम्मान से याद करते हैं, क्योंकि उसने भारत को समझने की कोशिश की। उसने अपने देवताओं को हम पर थोपने का काम नहीं किया। अरब के हमलावरों ने 20 वर्षों में ही जरथ्रुस्ट के पारसी धर्म का नामोनिशान मिटा दिया। ईरान पर जो बीती उसकी व्यथा-कथा अब्दुलहुसैन जरीकूब ने अपनी पुस्तक टू सेंचुरीज आफ साइलेंस’ में बयान की है। आज वहां उस महान धर्म के अग्नि-मंदिरों के चंद ध्वंसावशेष ही रह गए हैैं।

ईरान की वही कहानी भारत में भी दोहराई जानी थी, लेकिन भारत ने ईरान बनने से इन्कार कर दिया। राजधानियों के पराजित होने के बाद भी यह युद्ध गलियों, मुहल्लों, गांवों तक लड़ा गया। हमारा धर्म-समाज मठाधीशों के शोषण का शिकार था और जातियों में विभाजित था। जब सामाजिक विद्वेष हावी हो तो शत्रुओं के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा लगाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। जब धर्म परिवर्तन के अभियान चले तब विद्रोह की आग फैलने लगी। किसानों ने हल गलाकर तलवारें बनाईं। वे खेती के औजारों, मूसलों, गड़ासों से भी लड़े। मेहरौली के पास धर्मपरिवर्तन के लिए करीब तीन सौ युवक बांधकर लाए गए। चंद युवकों ने किसी प्रकार हाथ खोल लिया। सिपाहियों से हथियार छीन ऊंचे आसन पर विराजमान धर्माधिकारी का वध कर डाला। वे सब निहत्थे मारे गए।

उस दौर की एक और घटना है, आक्रांताओं से घिर गए किसी ग्राम के युवकों ने अपनी एक-एक अंगुली काटकर गांव केब्राह्मण के पास रख दी, अपने क्रियाकर्म के लिए। यह एक आम व्यवस्था बन गई थी। शासक वर्ग तो पराजित हो गया था, लेकिन भारत नहीं हारा। इस लंबे संघर्ष ने भारत की धर्म संस्कृति की रक्षा की। इतिहास के विस्तृत फलक पर इन सैकड़ों वर्षों के मध्य बिखरे इस महान संग्राम की गाथा को लिखने वाला कोई नहीं है।

राष्ट्रवाद राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति है। यह हमारे यहां धर्म और सांस्कृतिक एकीकरण के माध्यम से आती है। सनातन धर्म किसी एक पुस्तक, विचार या अवतार से बंधकर नहीं रहा। यहां आध्यात्मिक खोज की एक सतत प्रवाहमान प्रक्रिया रही है। अनेक ग्रंथ प्रश्नोत्तरों के रूप में हैैं। यम-नचिकेता संवाद, अर्जुन-कृष्ण संवाद, मिलिंद के प्रश्न आदि। गीता वेदों के दो हजार वर्ष बाद प्रकट होती है। यदि मान लिया गया होता कि वेद ही अंतिम हैं तो गीता न आती। सनातन धर्म किसी एक पुस्तक से बंधा नहीं है।

मध्यकाल में आक्रांताओं से पराजय के कारणों को हमने न तो खोजा और न ही उनका निराकरण किया। हमने अपने धर्म संस्कृति को शक्ति नहीं दी। उसके बिखराव को संबोधित नहीं किया। हम सांस्कृतिक-धार्मिक जड़ता के शिकार हो रहे हैं। सामाजिक एकीकरण का कोई लक्ष्य नहीं, एकात्म भारत का कोई एजेंडा नहीं। राजनीति हमें बिखराव के रास्ते पर ले जा रही है। जातिवाद-क्षेत्रवाद भी सशक्त होता दिखता है। संकीर्ण धर्माधिकारी अपने सामाजिक दायित्वों से बेखबर हैैं। जातिवादियों या फिर क्षेत्रवादियों के पिछलग्गू बनकर हमने अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को स्वयं ही दरकिनार किया है। देश को खंडित करने वाली शक्तियां जब गृहयुद्ध की बातें कर रही हों तो राष्ट्रीय एकता सिर्फ एक नारा नहीं रह जाता, बल्कि राष्ट्रीय लक्ष्य बन जाता है।

हमारी आजादी का अभियान मात्र 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद से प्रारंभ होकर अंग्रेजी राज से मुक्ति तक सीमित नहीं माना जाएगा। हमारी आजादी उस दौर की गुलामी से भी है, जिसमें हमारे धर्म-संस्कृति को नेस्तनाबूद करने का प्रयास किया गया। सैकड़ों वर्षों तक लगातार धर्मस्थलों को ध्वस्त किया जाता रहा। बलात धर्मपरिवर्तन के अभियान चले। मध्यकाल की इन पराजयों का प्रतिकार भी हमारा आजादी का एजेंडा है। फिरोज शाह तुगलक, खिलजी, सिकंदर बुतशिकन, औरंगजेब, टीपू सुल्तान हमारे इतिहास के अंधकार भरे दौर के वे चरित्र हैं जिन्होंने हिंदू धर्म संस्कृति के समापन को अपना लक्ष्य बनाया। तब हमारी अस्मिता का संघर्ष ही नेपथ्य में चला गया था। आज तिरंगा सिर्फ गांधी, नेहरू का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि सम्राट अशोक, शिवाजी, महाराणा प्रताप और गुरु गोविंद के लिए भी उसी शान से फहराता है।

ईरान आज अरबों के कब्जे से आजाद है, लेकिन वहां के लोग अपना मूल धर्म खो चुके हैं। यदि भारत भी ईरान की गति को प्राप्त हुआ होता तो 1947 की आजादी का हमारे लिए कोई अर्थ ही न होता। 1947 में मिली हमारी आजादी को आठ सौ वर्षों के धर्म संस्कृति के लिए चले निरंतर युद्धों ने अर्थवत्ता दी। यह आजादी उनकी देन है जिन्होंने पानीपत, हल्दीघाटी के युद्धों की पराजय को स्वीकार नहीं किया। वे जंगलों, पहाड़ियों, गांवों और गलियों में लड़ते ही रहे। गुरुपुत्रों को दीवारों में चुनवा दिया गया। बंदा बहादुर पर भयंकर अत्याचार हुए फिर भी उन्होंने धर्म की राह नहीं छोड़ी।

अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन बदली हुई रणनीतियों के साथ आजादी के हजार वर्ष के अभियान की अगली कड़ी ही तो था। हमारे आजादी के नायकों का सिलसिला सिंध के राजा दाहिर, पृथ्वीराज चौहान, सोमनाथ के रक्षकों आदि के बलिदानों से प्रारंभ होकर गांधी के अंहिसक आंदोलन की सफलता पर आकर पूर्ण होता है। हमारे झंडे में जो केसरिया रंग है उसमें आपको चंद्र्रशेखर आजाद के साथ सिंध सोमनाथ, तराइन, हल्दीघाटी के शहीदों का लहू भी दिखेगा। तिंरगा उन तमाम अनाम योद्धाओं का भी है जो अपनी कटी हुई अंगुलियां मंदिरों में छोड़ धर्मशत्रुओं के विरुद्ध बलिदान हो गए थे।

[ लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैैं ]