[ ज्ञान चतुर्वेदी ]: बड़ी तेज सर्दी पड़ रही है भाई साहब। चिल्ला जाड़े कहते थे इसे हमारे दादाजी। कहते थे कि इस बार के चिल्ला जाड़े निकलते नहीं दिखते हमें। वह हर ऐसी सर्दी में अपने मरने की भविष्यवाणी करते थे और ठाठ से अगले पच्चीस साल और जिए। वह मानते थे कि सर्दी का इंतजाम ही ईश्वर ने बूढ़ों की मुक्ति के लिए किया है। मैं बूढ़ा हो रहा हूं, पर दादाजी से अलग सोचता हूं। मेरा मानना है कि मरने के लिए हर मौसम मुफीद है। बहरहाल। ठंड बेहद ज्यादा है। गर्म कपड़ों में कहीं गुम हूं मैं, पर मन धूप में बैठने को कर रहा है। लॉन के एक छोटे से कोने में धूप आ भी गई अभी। वहीं पर कुर्सी डालकर धूप सेंकने बैठ गया मैं, पर यह कैसी धूप है कि इसमें कोई आंच ही नहीं। क्या धूप भी नकली आने लगी आजकल? अभी तो धूप स्वयं ही ठिठुरती सी लग रही है।

सर्दी के दिन हैं, कर्मचारियों को आते-आते टेम लग जाता है

‘यार, थोड़ी सी गर्मी तो दे?’ मैंने धूप से उसकी कमजोर सर्विसेज की शिकायत की। धूप का रुख किसी सरकारी दफ्तर की तरह है जो खुल तो गया हो, लेकिन वहां अभी काम बाकायदा शुरू न हो पाया हो। बाबू लोग अभी पहुंचे नहीं हैं। धूप की टेबल पर गर्मी की फाइल अधखुली पड़ी है। सर्दी के दिन हैं साहब। कर्मचारियों को आते-आते टेम लग जाता है। आने दें। देख रहे हैं न-फाइल सामने पड़ी है। आने दें। गर्मी अलॉट करने वाले बाबू आएं कि धूप गर्म भी होगी।

सरकार क्या-क्या करेगी? खुद भी इंतजाम करके रखें

‘थोड़ी देर बैठिये तो श्रीमान। गर्मी भी मिलेगी और धूप पर ही निर्भर न रहें। सरकार क्या-क्या करेगी? खुद भी इंतजाम करके रखें। प्योर वूल का स्वेटर क्यों नहीं डालते? सस्ता स्वेटर डालकर धूप के भरोसे बैठ गए हो।’ धूप उस प्यून की तरह बड़बड़ाने लगी जिसे दफ्तर टाइम पर खोलना पड़ता हो।

धूप में बैठने का कुछ मतलब नहीं

‘बैठे ही हैं यार, पर धूप में बैठने का कुछ तो मतलब निकले।’ मैंने कानों पर टोपा खिसकाते हुए कहा। धूप कुछ नहीं बोली। घास पर अलसाई बैठी रही। धुआं सा है या शायद कोहरा हो। तभी पड़ोस के दो पिल्ले खेलते-खेलते इसी तरफ निकल आए हैं। धूप के बचे हुए टुकड़े पर वे खूब खिलंदड़ी करने लगे। एक ने खेल-खेल में दूसरे की टांग में काट लिया है तो वह दांत दिखाता हुआ गुर्रा रहा है।

व्यंग्यकार जानता है कि उसे कहां चुप रह जाना चाहिए

‘क्यों बे? क्यों काटा रे उसे?’ मेरे भीतर बैठे सजग नागरिक और मजलूमों के हक के लिए हरदम जागृत होने का भ्रम पाले लेखक ने दूसरे पिल्ले को फटकारा। ‘क्यों? क्यों न काटें? ‘यह पिल्ला शक्ल से ही बड़ा ढीठ टाइप का है। क्या इससे भिड़ना शास्त्रोचित कहा जाएगा? लेखक होने के कारण बचकर लिखने की लंबी आदत है मुझे। समझदार व्यंग्यकार जानता है कि उसे कहां चुप रह जाना चाहिए। मैं उसे घूरकर चुप रह गया। मन को समझाया कि यदि ठंड ऐसी जबर न होती और टांगों पर पड़ी शॉल को मैं हटा पाता तो देता एक लात उसे। पहले मारी भी है। आपको पता ही है, पर अभी यह ठीक न होगा। इसी बीच पिल्ले एक दूसरे का पीछा करते हुए दूर भाग गए।

धूप मुस्कुरा दी

‘और चौबेजी?’ तभी मोहल्ले के अरोरा साहब मफलर लपेटे, पुराना कोट डाले, दूध की थैलियों का झोला टांगे हुए घर के सामने से निकले और मुझे बाहर बैठा पाकर रुक गए। ‘बस, ठीक है सब।’ मैंने कहा। ‘धूप सेंकी जा रही है? क्यों? ‘अरोरा साहब बोले। धूप मुस्कुरा दी। मानो मेरी चोरी पकड़ी गई हो, ऐसे। शिकायत करता है कि गर्मी नहीं है, पर धूप ले भी रहा है पट्ठा। जिनके खिलाफ लिखता है उनसे ही लाभ भी लेता रहता है गो कि मानेगा कभी नहीं।

धूप भी धूप जैसी कहां बची है आजकल

‘काहे की सेंक अरोरा जी। धूप भी धूप जैसी कहां बची है आजकल।’ मैंने कहा। धूप रूठ गई। नाशुक्रा लेखक। हमीं से धूप लेना और हमारे ही खिलाफ बातें। हमीं से पुरस्कार और हमारे ही खिलाफ बयानबाजी। धूप मुंह फुलाकर दूर निकल गई। सर्दी में धूप भी नकचढ़ी हो गई है। नखरे तो देखो इसके। सही बात कह दी तो असहिष्णुता पर उतर आई है। अपने होने का रूआब दिखा रही है मुझे। ‘टोपे से काम न होगा चौबे जी।

कलम पर इतना भरोसा ठीक नहीं, मौसम देखकर लिखा करिए

मौसम खिलाफ है। ऐसे खुलेआम बाहर बैठकर सर्दी को चुनौती मत दीजिए। उमर हो गई है हम लोगों की।’ अरोरा जी मुझे समझाने लगे। आजकल लोग समझाते ही हैं कि कलम पर इतना भरोसा ठीक नहीं भाई साहब। मौसम देखकर लिखा करिए। अपनी अभिव्यक्ति पर कुछ ओढ़कर, ढंक कर रहा करिए।

[ लेखक हास्य व्यंग्यकार हैं ]