[ गिरीश्वर मिश्र ]: दिवाली अंधकार और प्रकाश की अद्भुत आंख-मिचौली का लोक उत्सव है। कार्तिक मास की अमावस्या की रात को मनाए जाने वाले इस उत्सव में दीये जलाए जाते हैं। घने अंधकार वाली इस काली रात में प्रकाश की तलब ज्यादा होती है। प्रकाश ऊर्जा का स्नोत है। सूर्य की रश्मियां और अग्नि के स्फुलिंग में जीवन का सार जानकर मनुष्य ने प्रण किया कि ‘अंधकार से डरना नहीं है, उसे चुनौती देना है।’ इसी भाव को स्थापित करना दिवाली के उत्सव का मूल प्रयोजन है। मिट्टी के दीयों की पांत से दिवाली बनती है। अब दीयों की पांत कम होती जा रही है। उसकी जगह मोमबत्ती या फिर बिजली के जगमगाते लट्टू या लड़ी प्रयोग में आने लगी है, परंतु अंधेरी रात में जगमगाती रोशनी से अद्भुत सौंदर्य की सृष्टि होती है और तमो गुण को दूरकर सत्व ग़ुण की प्रतिष्ठा के संकल्प के साथ दीया-दियारी का यह उत्सव मनुष्य की आत्मिक शक्ति के संधान का आह्वान करता है।

दिवाली का संबंध ऋतु-परिवर्तन और खेती-किसानी से भी है

देश काल की दृष्टि से आमजन या कहें कि गृहस्थों के इस उत्सव के साथ एक भौतिक-सामाजिक गतिशीलता का भी एक पक्ष जुड़ा हुआ है जिसमें समाज के हर वर्ग के लोग शामिल होते हैं। इसका सीधा रिश्ता ऋतु-परिवर्तन और खेती-किसानी से भी है। वर्षा ऋतु की समाप्ति और शरद ऋतु के आरंभ के साथ मौसम नए संकेत देता है और नई तैयारी के लिए आमंत्रण मिलता है। खरीफ की फसल तैयार होने से किसान भी समृद्धि का अनुभव करता है। एक तरह से यह उत्सव सृष्टि-चक्र के संगीत का एक राग है जिसमें सबकी भागीदारी होती है। इस राग के गायन में मनुष्य, पशु-पक्षी, संध्या-प्रभात, दिन-रात सबकी संगति और लय के साथ अपनी-अपनी भूमिका होती है। सभी अपने को नए आरंभ के लिए तैयार करते हैं। सभी दिवाली की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं।

घर की साफ-सफाई होती है, घर के बाहर रंगोली भी बनाते हैं, बाजार में दुकानें सजती हैं

इस अवसर पर घर की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाता है, घर के बाहर रंगोली भी बनाते हैं। बाजार में भी दुकानदार दुकानें सजाते हैं और नए उत्पाद बाजार में उतारते हैं। इस दिन आतिशबाजी भी होती है। खील-बताशा, मिठाई, वस्त्र आदि के उपहार देकर लोग पारस्परिक संबंधों को प्रगाढ़ करते हैं और एक-दूसरे के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। दीपावली के पहले ‘धनतेरस’ के दिन खरीद फरोख्त को शुभ माना जाता है और अपनी हैसियत के अनुसार सोने या चांदी की खरीदारी की जाती है। अगले दिन नरक चतुर्दशी या छोटी दिवाली होती है जब तुलसी के चौरे पर दीपक जलाया जाता है। दीपावली के दिन विष्णुप्रिया लक्ष्मी और गणपति गणेश की विशेष पूजा की जाती है और रात भर दीपक जलाकर रखा जाता है। अगले दिन भाई दूज या यम द्वितीया मनाई जाती है। दुकानदार अपना नया बही खाता शुरू करते हैं।

दिवाली का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व भी है

दिवाली का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व इसलिए बढ़ जाता है, क्योंकि इसका संबंध अनेक धर्मों और अनेक सामाजिक स्मृतियों से है। वस्तुत: यह अनेक पर्वों का एक संकुल सरीखा है जिसकी शुरुआत मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र से जुड़े मिथकों से होती है। कहते हैं कि 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटने पर पुरवासियों द्वारा दीप जलाकर उनका भव्य स्वागत किया गया। अब फिर अयोध्या में दीपोत्सव की भव्य परंपरा शुरू हुई है जिसमें कई लाख दीयों के साथ भगवान राम का स्मरण किया जाता है। पांडवों की वनवास से वापसी की भी यही तिथि मानी जाती है। नरकासुर और हिरण्यकश्यप जैसे दुष्ट राक्षसों का वध और समुद्र-मंथन से वैद्यराज धन्वंतरि के प्रकट होने की कथा भी दिवाली पर्व से जुड़ी हुई है। बंगाल में काली पूजा और मथुरा में गोवर्धन पूजा भी बड़ी लोकप्रिय है। दिवाली से यम और नचिकेता की याद भी जुड़ी हुई है जो भौतिक सत्ता की नश्वरता और आत्मज्ञान की महिमा का बखान करती है। प्रमुख जैन तीर्थंकर महावीर के मोक्ष की भी यही तिथि है। अमृतसर के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास इसी दिन हुआ था।

आज दिवाली का पर्व संपन्नता का प्रतीक

आज दिवाली का पर्व संपन्नता का प्रतीक और अर्थ की साधना का अवसर माना जाने लगा है। विकास के नाम पर आज एक विराट उपभोक्ता संस्कृति मुंह बाएं खड़ी हो रही है जिसमें बाजार का वर्चस्व है। हावी होते अंधकार के चलते आज तृष्णा और लोभ के वशीभूत लोग मोह और लिप्सा में फंसते जा रहे हैं। इसके साथ अनावश्यक वस्तुओं की भूख बढ़ रही है। समाज में असमानता और असंतुलन भी बढ़ रहा है। ऐसे में नकली रोशनी की जगह स्निग्ध रोशनी की दरकार है जो मन के भीतर तक हर कोने को आलोकित कर सके।

अंधकार के साथ मनुष्य का संघर्ष सतत चलता रहा

इतिहास साक्षी है कि अंधकार के साथ मनुष्य का संघर्ष सतत चलता रहा है। प्रकाश का मूल्य गहरे अंधकार के क्षणों में पता चलता है जब राह नहीं सूझती, इधर-उधर पैर पड़े तो ठोकर लगती है और हम अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच पाते। हमारा सामाजिक जीवन भी कुछ ऐसी ही यात्रा है जिसमें विवेक का आलोक चाहिए। इस आलोक की सहायता से हमें सदाचार के पथ पर अग्रसर होने में सहायता मिलती है। महात्मा गांधी ने इसी दिशा में कदम बढ़ाया था। काफी सोच विचार के बाद ही उन्होने सत्य की कसौटी और अहिंसा की राह चुनी थी। पंथ, जाति, वर्ग और क्षेत्र जैसे सीमित आधारों को परे धकेल कर उन्होने निखालिस मानुष धर्म को अंगीकार किया था। उनकी सोच में सभी बराबर थे और लोक-हित ही सर्वोपरि था। उनके लिए सभी आत्मीय थे और ‘पराई पीर’ और ‘पर दुख’ का निवारण कैसे हो, यही उनके वैष्णव मन की सबसे बड़ी चिंता थी। उनका जीवन, नीतियां और रचनात्मक कार्यक्रम सभी गहन लोक-संग्रह के विवेक से अनुप्राणित थे।

दिवाली में मुख्य रूप से गणेश जी और लक्ष्मी जी की पूजा होती है

आज हमारे भीतर मौजूद राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, चोरी, बेईमानी, दायित्वहीनता, अहंकार और आत्म-श्लाघा जैसे कलुष चुनौती बनकर सिर उठा रहे हैं। इसका परिणाम व्यक्ति या समाज के हित में अच्छा नहीं हो रहा। दिवाली में मुख्य रूप से गणेश जी और लक्ष्मी जी की पूजा होती है। गणेश जी गणदेवता हैं जिनकी विधिवत पूजा आराधना के बिना अर्थात लोककल्याण के बिना लक्ष्मी जी कभी प्रसन्न नहीं होंगी। भगवान बुद्ध कहते हैं कि मनुष्य आत्मदीप होता है। इसीलिए कहा जाता है कि अपना दीया खुद बनो। दिवाली का उत्सव इसी आत्म-साक्षात्कार को न्योता देता है।

( लेखक शिक्षाविद् हैैं )