नई दिल्ली [ स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती ]। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने राज्य के लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करके केंद्र सरकार को अपनी अनुशंसा भेजी है। स्वाभाविक रूप से यह वोट बैंक की राजनीति है, मगर इसका दूसरा पक्ष भी जानना आवश्यक है। अंग्रेजों ने 1857 के बाद मुसलमानों को अल्पसंख्यक बताकर हिंदुओं पर वरीयता देना आरंभ किया। इसके परिणामस्वरूप भारत के दो टुकड़े हुए। इसके बाद भी हमारे देश के सत्ताधीशों ने अंग्रेजों द्वारा पोषित मानसिकता को और बढ़ावा ही दिया। अल्पसंख्यक बनने की होड़ सिख पंथ, रामकृष्ण मिशन, जैन समाज आदि से होते हुए अब लिंगायत समुदाय तक पहुंच गई है। एक नए संप्रदाय के रूप में कर्नाटक सरकार द्वारा मान्यता दिए जाने की अनुशंसा पर जो तमाम प्रश्न उठ खड़े हुए हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि किसी राजनीतिक सत्ता को यह अधिकार कहां से प्राप्त हो गया कि वह धर्म और संप्रदाय की भी रचना करने लगे?

 कोई सरकार हमें संप्रदाय के रूप में कैसे विभक्त कर सकती है?

अगर धर्म स्वतंत्रता हमारा मूल अधिकार है तो कोई सरकार हमें संप्रदाय के रूप में कैसे विभक्त कर सकती है? सनातन धर्म, जिसे हिंदू कहते हैं, के 127 अलग-अलग वर्ग अपनी-अपनी पूजा पद्धतियों के साथ कुंभ के मेलों में एक साथ मिलते हैं। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद में शामिल 13 अखाड़ों में छह संन्यासियों के, तीन वैष्णवों के, दो उदासीनों के और एक-एक ब्रह्मचारियों और सिखों के हैैं, जिसे निर्मल अखाड़ा नाम से जाना जाता है। ये सभी सनातन धर्म की ध्वजा तले शाही स्नान करते हैं। क्या इस आधार पर हम इन सभी को अलग संप्रदाय की मान्यता दे देंगे? शिया, सुन्नी, बरेलवी, देवबंदी समेत 73 फिरके में विभक्त इस्लाम में एक के शव दूसरे के कब्रिस्तान में नहीं दफनाए जा सकते और दूसरे की मस्जिद में नमाज नहीं पढ़ी जा सकती। क्या इस आधार पर कोई सरकार इन्हें अलग-अलग संप्रदाय की मान्यता दे सकती है? न्यू टेस्टामेंट से लेकर ओल्ड टेस्टामेंट तक की बात करने वाला और 146 टुकड़ों में बंटा ईसाई समाज क्या अलग-अलग संप्रदाय की मान्यता प्राप्त कर सकता है?

जीवन जीने के दर्शन का नाम सनातन धर्म है: सुप्रीम कोर्ट

इतिहास गवाह है कि सनातन धर्म किसी व्यक्ति द्वारा नियोजित अथवा प्रायोजित धर्म नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में जीवन जीने के दर्शन का नाम सनातन धर्म है। विडंबना यह है कि एक तरफ तो हम जाति, धर्म, संप्रदाय के आधार पर चुनाव न लड़ने की बात करते हैं और दूसरी तरफ मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा में मत्था टेक अभियान चलाते हैं। लिंगायतों को अलग संप्रदाय की मान्यता देने की यह कोई नई कोशिश नहीं है। 2013-14 में दक्षिण महाराष्ट्र में रहने वाले लिंगायतों के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण द्वारा इसी प्रकार की अनुशंसा की गई थी जिसे संप्रग सरकार ने खारिज कर दिया था, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जैन समाज को अल्पसंख्यक दर्जा दे दिया गया।

अल्पसंख्यकवाद ने समाज को खोखला कर दिया

वस्तुत: मूल समस्या संविधान के अंदर अल्पसंख्यकवाद का प्रबल होना है। इस लोभ और लाभ के सिद्धांत ने समाज को अंदर तक खोखला कर रखा है कि जो अल्पसंख्यक हैैं वे विशिष्ट सुविधाओं के हकदार हैं। जिसे भी अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाता है उसे यह बताया जाता है कि अनुच्छेद 29, 30 के कारण उसके द्वारा संचालित किसी भी योजना एवं संस्थान में आरक्षण नहीं होगा। एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा प्राप्त नहीं, फिर भी वहां आरक्षण लागू नहीं है। किसी अल्पसंख्यक को शिक्षण संस्थान खोलने के लिए सरकार 95 प्रतिशत तक आर्थिक सहयोग करती है। इसके लिए नेशनल कमीशन फॉर माइनॉरिटी इंस्टीट्यूट्स नामक संस्था बनी है। दूसरी ओर किसी हिंदू को अपने संस्थान खोलने के लिए आसानी से लोन तक नहीं मिलता।

अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान शिक्षकों की भर्ती के लिए आरक्षण नहीं है

अल्पसंख्यक संस्थान एससी/एसटी/ओबीसी के अनुपात में शिक्षकों की भर्ती के लिए बाध्य नहीं हैं, जबकि एक हिंदू के संस्थान को सरकारी नियम के अनुसार अध्यापकों की भर्ती करनी होती है। इसके चलते किसी मुस्लिम या ईसाई संस्थान के सौ प्रतिशत शिक्षक मुस्लिम या ईसाई हो सकते है। ऐसे संस्थान को कोई भी हिंदू शिक्षक रखने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। कदाचित इसी कारण जीवनभर हिंदुत्व का प्रचार-प्रसार करने वाले स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित संगठन रामकृष्ण मिशन भी एक समय अल्पसंख्यक दर्जे की मांग कर चुका है। गैर हिंदुओं के सभी वर्णों ने अपने लाल दिए थे खालसा बनाने के लिए, लेकिन यह खालसा पंथ धीरे-धीरे सिख नाम से अल्पसंख्यक संप्रदाय में बदल गया।

कांग्रेस ने हिंदू समाज को अंदर से तोड़ने का काम किया

कांग्रेस ने बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से हिंदू समाज को अंदर से तोड़ने का काम किया है। आज परिस्थिति उस जगह खड़ी है जहां कुछ सवालों के कारण अब लिंगायत स्वयं ही यह कहने लगे हैैं कि हमें ऐसा अल्पसंख्यक दर्जा नहीं चाहिए कि हम अपने आराध्य भगवान शिव से ही दूर चले जाए। लिंगायत अपने गले में शिवलिंग धारण करते हैं। लिंगायत और साथ ही वीरशैव, दोनों संप्रदाय शिव को मानते हैं। शव विच्छेदन की प्रक्रिया में लिंगायतों के शव जलाए नहीं, बल्कि दफनाए जाते हैं। ऐसी परंपरा सनातन धर्म के दर्जनों समाजों में हैैं।

लिंगायतों को गैर-हिंदू करार देने का षड्यंत्र किया जा रहा है

हमारे यहां शव विच्छेदन की पांच प्रक्रियाओं का वर्णन है। इनमें भूसमाधि, जलसमाधि, अग्निसमाधि, वायुसमाधि और खुले में अंगों को डालना भी है, फिर भी कुतर्कों के आधार पर लिंगायतों को गैर-हिंदू करार देने का षड्यंत्र किया जा रहा है। समाधि पद्धति एवं मूर्ति पूजा निषेध आर्य समाज भी करता है तो क्या वह भी गैर हिंदू हो जाएगा? भारत के छह ऐसे प्रसिद्ध शिवमंदिर हैं जहां भगवान शिव को भोग-आरती का अधिकार लिंगायतों को है।

कर्नाटक में लिंगायत समुदाय पिछड़े वर्ग में है

क्या लिंगायत अल्पसंख्यक दर्जे के लाभ के लिए अपने ईष्ट भगवान शिव से अलग होना पसंद करेंगे? वाराणसी में द्वादश जयोर्तिलिंगों में से एक विश्वेश्वर महादेव काशी विश्वनाथ का भोग तीनों समय जगद्गुरु विश्वराध्यपीठ जंगमबाड़ी नाटिकोट्टम क्षेत्र गोदौलिया से जाता है। कन्नड़ शैली की शहनाई एवं मंगल वाद्ययंत्रों के साथ सैकड़ों सालों से चली आ रही भोग और आरती का अधिकार क्या लिंगायत समाज इस कारण छोड़ देगा कि कर्नाटक की कांग्रेसी सत्ता यह कह रही कि आप हिंदुओं से अलग हैैं? कर्नाटक में लिंगायत समुदाय पिछड़े वर्ग में गिना जाता है, लेकिन पशुपति नाथ मंदिर का पुजारी लिंगायत ही होता है। यह साफ है कि जो अधिकार और सम्मान लिंगायत समाज को सनातनी कहलाने में प्राप्त है वह अल्पसंख्यक कहलाने में प्राप्त नहीं होगा। अगर लिंगायत धर्माचार्यों को किसी प्रकार की कोई समस्या है तो उन्हें सनातन परंपरा के आचार्यों के साथ बैठकर समाधान का प्रयास करने चाहिए। ऐसे ही प्रयासों के लिए कुंभ के मेले और शास्त्रार्थ की परंपराएं हैं।

[ लेखक अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री हैैं ]