हृदयनारायण दीक्षित

कलाएं रसरंजन और आनंदवर्धन के लिए होती हैं। आनंद सृजन और लोकमंगल ही कला के उद्देश्य हैं। अरस्तु के विवेचन में ‘कला प्रकृति की अनुकृति है।’ ‘अनुकृति’ की रक्षा सर्जक का कत्र्तव्य है। बेशक वह आनंद सृजन के लिए कल्पनालोक गढ़ने में स्वतंत्र है, लेकिन उस पर इतिहास और लोकमर्यादा की सीमा के बंधन हैं। कल्पित कथा में भी सत्यनिष्ठा भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में कला का नीति निदेशक तत्व है। भारतीय सिनेमा का पूर्वार्ध ऐसा ही रहा है, लेकिन इधर के बीसेक वर्ष से सिने कला भी कौशल हो रही है। यहां फैंटेसी है। इतिहास के साथ छेड़छाड़ भी है। संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावती’ ऐसी ही वजहों से बड़े विवाद में है। भंसाली की प्रतिभा प्रशंसनीय है। ‘देवदास’ और ‘हम दिल दे चुके सनम’ जैसी फिल्मों ने खासी लोकप्रियता पाई थी। लेकिन लोगों को संदेह है कि उन्होंने पद्मावती की वीरता और नायकत्व को सही रूप में पेश नहीं किया। उन्होंने तत्कालीन सल्तनत के शासक अलाउद्दीन खिलजी द्वारा भारत के बहुसंख्यकों पर किए गए अत्याचारों के इतिहास की भी उपेक्षा की। इतिहास का मध्यकाल भारत के तन मन को तोड़ने की व्यथा कथा है। इस कथा के तथ्य विदेशी शासकों के रक्त चरित्र का दस्तावेज हैं। फिल्म का विवाद पिछले दो सप्ताह से राष्ट्रीय चर्चा में है। पहले भंसाली इस विवाद से खुश रहे होंगे। विवाद से दर्शक संख्या बढ़ती है। लेकिन विवाद बढ़ता गया। प्रदर्शन हुए, जुलूस निकले। तमाम तीखे प्रतिवाद हुए। वादी भंसाली शांत रहे, प्रतिवादी बिना फिल्म देखे ही उग्र होते रहे। लेकिन भंसाली ने विवाद में अपनी सफलता देखी। पानी सिर से ऊपर निकला तो उन्होंने कुछ चुने हुए लोगों को फिल्म दिखाई। ऐसे महानुभावों ने समाचार माध्यमों में फिल्म के सकारात्मक पहलू पर टिप्पणियां भी कीं। लेकिन ऐसे लोगों की टिप्पणियों के अपने दृष्टिकोण होते हैं। जनभावना और दृष्टिकोण में हमेशा अंतर होते हैं। उनके कथन शील और मर्यादा का प्रमाण नहीं भी हो सकते हैं। इस बीच केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के प्रमुख प्रसून जोशी ने सेंसर प्रमाण पत्र बिना ही कुछ लोगों को फिल्म दिखाने पर नाराजगी जाहिर की है। इसका नतीजा यही निकला कि निर्माताओं ने स्वेच्छा से फिल्म की रिलीज टाल दी है। दोनों पक्ष मोर्चे पर हैं। उत्तर प्रदेश सहित कई राज्य इस विवाद से कठिनाई में हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने आवश्यक बदलाव के बाद ही फिल्म दिखाने पर जोर दिया है। आश्चर्य है कि ‘भावप्रवणता’ का ही व्यापार करने वाले सिने जगत के लोग यथार्थ जीवन की ‘भावप्रवणता’ का मतलब क्यों नहीं जानते?


इतिहास बोध राष्ट्र निर्माण का मुख्य सूत्र है। अलाउद्दीन खिलजी हुकूमत का समय सिर्फ सात सौ साल पुराना है। विवादित फिल्म की कथा इसी हुकूमत का एक अंश है। खिलजी हुकूमत की शुरुआत जलालुद्दीन खिलजी से हुई। उनके पूर्वज तुर्किस्तान से भारत आए थे। उन्होंने सुल्तानों के यहां नौकरी की। जलालुद्दीन को सैन्य कुशलता के कारण ‘शाईस्ताखां’ की पदवी मिली। वह सुल्तान बना। अलाउद्दीन खिलजी इसी सुल्तान फिरोज का भतीजा और दामाद था। वह इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) के निकट कड़ा मानिकपुर का सूबेदार था। उसने 1292 में मालवा पर हमला किया। भयंकर रक्तपात के बाद भारी लूट की। वह अवध का सूबेदार बनाया गया। उसने 1294 में देवगिरि पर हमला किया। अपार धन लूटा। इसी धनराशि को देने के बहाने उसने ससुर सुल्तान फिरोज को मानिकपुर बुलाया और मार दिया।
वह जुलाई 1296 में सुल्तान बना। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. एएल श्रीवास्तव ने ‘भारत का इतिहास’ में लिखा है ‘हिंदुओं का दमन करने की उसकी नीति क्षणिक आवेश का परिणाम नहीं, अपितु निश्चित विचारधारा का अंग थी।’ सर वूज्ले हेग ने लिखा है ‘हिंदू संपूर्ण राज्य में दुख और दरिद्रता में डूब गए।’ इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि समाज के प्रतिष्ठित लोग ‘अच्छे कपड़े नहीं पहन सकते थे।’ इतिहासकार वीए स्मिथ ने लिखा ‘अलाउद्दीन वास्तव में बर्बर अत्याचारी था। उसके हृदय में न्याय के लिए कोई जगह नहीं थी।’ भंसाली ने इन तथ्यों को जरूर पढ़ा होगा।
इतिहास का आदर्श सत्य है और बाजार का सत्य मुनाफा। इतिहास यह है कि बर्बर सुल्तान ने 28 जनवरी, 1303 के दिन चित्तौड़ को घेर लिया। कहा जाता है कि उसके आक्रमण का उद्देश्य राणा रतन सिंह की पत्नी रानी पद्मिनी को पाना था। इस पर इतिहासकारों में मतभेद हैं। डॉ. केएस लाल व हीरा चंद्र ओझा आदि ने इसे सही नहीं माना। सुल्तान को कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। अमीर खुसरो ने पूरा युद्ध देखा था। उसने लिखा है कि केवल एक दिन में तीस हजार राजपूत मारे गए थे। सुल्तान ने भयंकर रक्तपात किया। विजय के बाद उसने चित्तौड़ का नाम अपने पुत्र के नाम पर खिजराबाद रखा। रानी पद्मावती भी युद्ध में शामिल थीं। उन्होंने हजारों राजपूत स्त्रियों के साथ ‘जौहर’ बलिदान किया। यह बात अलग है कि रानी पद्मावती इतिहास की पात्र हैं या नहीं, लेकिन भारत में वह श्रद्धा की पात्र हैं। इन्हीं पर कवि जायसी ने प्रेम काव्य पद्मावत लिखा। कथानक खुसरो के ‘खजाएं-उल-फतूह’ से लिया। इतिहासकार एएल श्रीवास्तव के अनुसार ‘पद्मावत की वर्णित प्रेम कहानी के ब्योरे की अनेक घटनाएं कल्पित हैं।’ खुसरो दरबारी शायर थे। उन्होंने हिंदू को हिरण और तुर्क को सिंह बताया। सुल्तान की क्रूरता बर्बरता और राजपूतों की वीरता पर वह मौन हैं। उन्होंने इतिहास के साथ ईमानदारी नहीं निभाई। मध्यकाल भारत के मूल निवासियों के उत्पीड़न और निरंतर वध की कथा है। अंग्रेजी राज का उत्पीड़न ताजा है। अंगे्रजों के क्रूर शासन, भारतीय संपदा की लूट और उत्पीड़न को भी हम भूल रहे हैं। इतिहास पर लीपापोती वाले महानुभाव यहां विद्वान कहे जाते हैं। खिलजी की बर्बरता और निर्दोषों के वध कैसे भुलाए जा सकते हैं? अलाउद्दीन हिंदुओं की बहुसंख्या से आहत था। उसने बयाना के काजी से मशवरा मांगा और मशवरे का स्वागत भी किया।
सिनेमा लोकलुभावन कला है। फिल्मांकन का उद्देश्य मुनाफे के साथ लोकमंगल और आनंदवर्धन भी होना चाहिए। भारत में शाश्वत मूल्यों व सत्य को सृजन का विषय बनाने की सुदीर्घ परंपरा है। शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा जरूरी है। सांस्कृतिक मर्यादा और शील का संवर्धन प्रत्येक सर्जक का दायित्व है। सृजन शाश्वत और चिरंतन का आधुनिक आख्यान होता है। इतिहास के आदरणीय पात्रों को नृत्य कराना आखिरकार जरूरी क्यों है? इतिहास में कल्पना का घालमेल उचित नहीं होता। तब न इतिहास बचता है और न ही कल्पना। इतिहास विकृत होता है और कल्पना नवसृजन का आह्लाद नहीं देती। फिल्में बनती हैं, आती हैं, जाती हैं। लेकिन इतिहास जस का तस रहता है। उसे परिशुद्ध बनाए रखना जरूरी भी होता है। भारत के इतिहास में अनेक त्रासद खंड हैं और अनेक उल्लास के नायक और महानायक भी। इतिहास का अनुकरणीय भाग संस्कृति है और हम भारत के लोग सांस्कृतिक राष्ट्र हैं और अपनी धरती, अपने लोग शुद्ध इतिहास लोकमंगल प्रतिबद्ध कला और शील आचार ही सांस्कृतिक राष्ट्र के मुख्य घटक हैं।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]