[डा. ऋतु सारस्वत] देश में संवेदनशील मुद्दों की चर्चा राजनीतिक गलियारों में तभी जोर पकड़ती है, जब वे स्वार्थ सिद्धि के साधक नजर आते हैं, अन्यथा गंभीर विषय भी ताक पर रख दिए जाते हैं। भारत की गृहिणियां अवसाद में हैं। उनकी आत्महत्या दर किसानों से दोगुनी है, पर शायद इस तथ्य से कोई भी विचलित नहीं है। हाल में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक्सीडेंटल डेथ एंड सुसाइड रिपोर्ट, 2020 में खुलासा हुआ है कि बीते दशकों में घरेलू महिलाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। 2020 में भारत में हुई कुल आत्महत्याओं में किसानों का हिस्सा सात प्रतिशत था, वहीं घरेलू महिलाओं का हिस्सा 14.6 प्रतिशत। देश में आत्महत्या करने वाले कुल लोगों में दूसरे स्थान पर महिलाएं हैं और किसानों का स्थान सातवां है। यह स्थिति पिछले कई वर्षो से निरंतर कायम है, परंतु फिर भी राजनीतिक मंचों से चर्चा सिर्फ किसानों की आत्महत्या की ही क्यों होती है? शायद इसलिए कि महिलाओं की आत्महत्या पर बात करने से कोई राजनीतिक लाभ नहीं होने वाला। यह संवेदनशीलता नितांत एकपक्षीय क्यों? वर्ष 2020 में कुल 5,579 किसानों ने आत्महत्या की जिसमें 244 महिलाएं किसान थीं, क्या उनकी आत्महत्या विचारणीय नहीं है? इस पर निश्चित ही विचार किया जाना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि भारत में घरेलू महिलाओं की आत्महत्या दर वैश्विक औसत दर की दोगुनी से भी अधिक है। ये आंकड़े उन शोधों को गलत ठहराते हैं, जिनका निष्कर्ष यह है कि महिलाएं विवाहित होने पर कहीं अधिक सुरक्षित हो जाती हैं। अमेरिका और आस्ट्रेलिया के विवाहित लोगों में आत्महत्या की दर उसी आयु के अविवाहित लोगों की तुलना में कम है। आमतौर से घरेलू महिलाओं में आत्महत्या की ऊंची दर के लिए लैंगिक भेदभाव को जिम्मेदार ठहराया जाता है, परंतु ऐसे कई और भी कारण हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से असर डालते हैं। सितंबर 2018 में ‘ द ग्लोबल बर्डन आफ डिजीज स्टडी’ में बताया गया था कि दुनिया भर में महिलाओं की आत्महत्या का सीधा संबंध घरेलू हिंसा से है। राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि देश में 15 से 49 साल के आयु वर्ग में 29 प्रतिशत विवाहित महिलाओं ने अपने जीवन साथी से हिंसा ङोली है और इसी आयु वर्ग की गृहिणियां सबसे अधिक आत्महत्या करती हैं। यह बहुत चिंतित करने वाला रुझान है।

आत्महत्या को निजी मामला मानने की सोच मिथक है, क्योंकि वास्तविकता इससे इतर है। आत्महत्या सामाजिक दबाव का वह प्रतिफल है, जो ऐसी परिस्थितियों से निर्मित होता है, जहां व्यक्ति अपने जीवन को समाप्त करने जैसे कदम उठाने के लिए विवश हो जाता है। यह धारणा सही नहीं कि घरेलू महिलाओं का जीवन मानसिक तनाव से दूर, घर की चारदीवारी के भीतर सुकून से भरा दिखाई देता है। यह भी एक तथ्य है कि कामकाजी महिलाएं घर और दफ्तर के बीच संतुलन स्थापित करने की जिद्दोजहद में घरेलू महिलाओं की अपेक्षा अधिक संघर्ष और तनाव भरा जीवन जी रही हैं। इन सबके बीच गृहिणियों के अस्तित्व को नकार दिया जाता है। इस तरह घरेलू महिलाओं की संवेदनाएं न केवल उपेक्षित कर दी जाती हैं, बल्कि उनकी परेशानियों को उनका मानसिक विकार समझते हुए उन्हें परिवार के सदस्यों से अवहेलना मिलती है। दुखद पहलू यह है कि घरेलू महिलाओं की मन:स्थिति के संबंध में न चिकित्सीय स्तर पर और न ही सामाजिक स्तर पर चिंतन किया जाता है। ‘घर पर निठल्ले बैठे रहने’ का उलाहना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत की हरेक घरेलू महिला को समय-समय ङोलना पड़ता है। यह उनके मानसिक संत्रस का एक बड़ा कारण है। उच्च शिक्षित व्यक्ति को अगर लगातार यह अहसास कराया जाए कि उसकी उपस्थिति महत्वपूर्ण नहीं है तो उसका अवसाद में जाना निश्चित है और यही स्थिति भारतीय घरेलू महिलाओं की भी है। उनके श्रम को न तो सरकारें और न ही हमारा समाज मान्यता देता है। जबकि आक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि भारत में महिलाओं और लड़कियों के घरेलू काम का सालाना मूल्य कम से कम 19 लाख करोड़ रुपये के बराबर होगा। उनके काम को कम आंकना असंवेदनशीलता नहीं तो और क्या है? आत्महत्या पर किए गए विभिन्न अध्ययनों में पाया गया कि 80 प्रतिशत मामलों में पीड़ित महिलाएं अवसाद ग्रस्त थीं। दरअसल अल्पायु में विवाह और उसके तुरंत बाद मातृत्व का अनचाहा बोझ जब उन्हें बंधनों में जकड़ लेता है तो महिलाएं अवसाद का शिकार हो जाती हैं, क्योंकि युवावस्था में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है।

विवाहित महिलाओं के साथ दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह भी जुड़ा हुआ है कि विवाह के पश्चात उनके माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य उनके प्रति उदासीन हो जाते हैं। परिवार के महत्वपूर्ण निर्णयों में सहभागिता तो दूर निजी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी परिवार के अन्य सदस्यों पर निर्भरता उनके भीतर हीनभावना भरती है। अवसाद का एक बड़ा कारण दो व्यक्तियों के मध्य तुलना भी है। ऐसी तुलना का सामना देश की हरेक घरेलू महिला को करना पड़ता है। उनकी तुलना उन्हीं के समकक्ष शिक्षित, परंतु कामकाजी महिलाओं से की जाती है और उन्हें कमतर सिद्ध करने की चेष्टा की जाती है। निरंतर मिलने वाली उपेक्षाएं और अकेलापन उन्हें कई बार यह सोचने पर विवश कर देता है कि उनके परिवार को उनकी आवश्यकता नहीं है। यही भावनाएं आत्महत्या का कारण बनती हैं। घरेलू महिलाओं की सामाजिक भूमिका की अवहेलना समाज को घातक दिशा की ओर ले जा रही है। वे परिवार की धुरी हैं, लेकिन उनकी मुखिया नहीं, बल्कि उपेक्षित हैं।

(लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं)