[ हरेंद्र प्रताप ]: एक ऐसे समय जब असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी के दूसरे और अंतिम मसौदे के प्रकाशन को लेकर गुवाहाटी से लेकर दिल्ली तक हंगामा मचा है तब इस राज्य के साथ-साथ देश के अन्य प्रांतों के जन सांख्यिकीय स्वरूप में हो रहे बदलाव पर एक निगाह डालना आवश्यक है। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि अगर हम चेते नहीं तो जैसी स्थिति असम की बनी वैसी ही अन्य राज्यों की भी बन सकती है। ध्यान रहे कि आजादी के पहले 1901 में असम में मुस्लिम जनसंख्या 12.40 प्रतिशत थी जो 1941 में 25.72 प्रतिशत हो गई। एक तरह से 40 वर्ष में मुस्लिम जनसंख्या का प्रतिशत 12 से 25 प्रतिशत हो गया। यह सिलसिला आजादी के बाद भी कायम रहा।

1971 में बांग्लादेश बनने के बाद भी इस सिलसिले में और तेजी आई। बांग्लादेशी घुसपैठियों के असम का नागरिक बनने के सिलसिले के कारण ही असम छात्र संगठन ने 1980 में घुसपैठियों को बाहर निकालने का आंदोलन छेड़ा गया, फिर भी बांग्लादेश से अवैध तरीके से आने वाले लोगों की आमद थमी नहीं। एक आकलन असम में 1971 से 2011 के बीच मुस्लिम जनसंख्या 24.56 प्रतिशत से बढ़कर 34.22 प्रतिशत हो गई। असम के विपरीत दूसरे राज्यों में विदेशी घुसपैठ के कारण नहीं, बल्कि ‘अन्य’ कारण से हालात बदल रहे हैैं। 2011 की जनगणना में देश की आबादी 1210854977 थी जिसमें ‘अन्य’ की संख्या 7937734 और ‘उल्लेख नही’ की संख्या 2867303 थी। इस तरह कुल 10805037 लोगों ने जनगणना में भरे जाने वाले पंथों वाले कॉलम से अपने को अलग रखा।

जिन लोगों ने अपने को ‘अन्य’ में लिखवाया उसमें जनजातियों/आदिवासियों की संख्या 7095408 है। ‘अन्य’ में मात्र एक राज्य झारखंड की हिस्सेदारी 4235786 यानी 53.36 प्रतिशत है। अगर देशव्यापी स्तर पर ‘अन्य’ में 89.38 प्रतिशत हिससेदारी आदिवासियों की है तो अकेले झारखंड के कुल ‘अन्य’ में 94.73 प्रतिशत हिस्सेदारी आदिवासियों की है। ये ‘अन्य’ कौन हैैं और क्यों वे अपना धर्म/पंथ ‘अन्य’ लिखवाते हैैं, इसकी पृष्ठभूमि में जाना आवश्यक है।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन से अंग्रेज भयभीत हो गए थे। पूरा देश उन्हें विदेशी मान कर उनके खिलाफ संगठित होकर खड़ा होता दिखाई पड़ा। इस पर अंग्रेजो ने फूट डालो और राज करो नीति अपनाते हुए कई तरह के षड़यंत्र रचे। इसी में से एक था आदिवासी-गैर आदिवासियों के बीच विभेद। विडंबना यह है कि अभी भी विदेशी प्रभाव और सहायता वाले कुछ संगठन-समूह आदिवासियों के बीच जाकर यह कहते हैैं, ‘‘तुम्हारी एक अलग पहचान है और वह पहचान ही तुुम्हें इस देश के मूल निवासी होने की गारंटी देती है। चूंकि हिंदूवादी ताकतें विविधता में एकता की बात करके तुम्हारी पहचान मिटाना चाहती हैैं इसलिए तुम अपनी पहचान बचाने हेतु अपने को हिंदू कहना छोड़ो।’’ झारखंड के कुछ आदिवासी जनगणना के समय अपना धर्म/पंथ ‘आदि’ या ‘सरना’ लिखवाते हैं। यही काम पूर्वोत्तर के आदिवासी भी करते हैैं। चूंकि ‘आदि’ या ‘सरना’ करके कोई कॉलम होता नहीं अत: जनगणना करने वाले कर्मचारी उनका नाम ‘अन्य’ के खाते में डाल देते हैैं। कुछ वर्षों बाद वही समूह-संगठन आदिवासियों से कहते हैैं, ‘‘देखो तुम्हारे धर्म/पंथ को भारत सरकार मान्यता ही नहीं देती। इससे बेहतर है कि तुम ईसाई बन जाओ।’’

आजादी के बाद से लेकर अभी तक यह षड़यंत्र चल रहा है। यह किसी से छिपा नहीं कि पूर्वोत्तर के राज्यों में आज का ‘अन्य’ कल का ईसाई होता गया। यह इससे समझा जा सकता है कि 1971 में अरुणाचल की कुल आबादी 467511 थी जिसमें ईसाई जनसंख्या 0.78 प्रतिशत और ‘अन्य’ की 63.45 प्रतिशत थी। 2011 की जनगणना के तहत अरुणाचल की आबादी 1383727 है जिसमें ‘अन्य’ की आबादी कुल आबादी का 26.20 प्रतिशत है। यहां ‘अन्य’ 63.45 प्रतिशत से घटकर 26.20 पर आ गया परंतु ईसाई 0.78 प्रतिशत से बढ़कर 30.26 प्रतिशत हो गया। आने वाले दिनों में इसके आसार अधिक हैैं कि इस सीमांत प्रांत के अधिसंख्य ‘अन्य’ भविष्य में ईसाई बन जाएंगे। ऐसा हुआ तो अरुणाचल भी जल्द ईसाई बहुल हो सकता है।

नगालैंड तो ईसाई बहुल बहुत पहले ही हो गया था। 1951 में यहां की आबादी में ईसाई 46.04 प्रतिशत और अन्य 49.50 प्रतिशत थे। 2011 की जनगणना के हिसाब से नगालैंड की आबादी में ‘अन्य’ की जनसंख्या मात्र 0.16 प्रतिशत है पर ईसाई आबादी 87.92 प्रतिशत हो गई। यहां भी ‘अन्य’ घटा तो ईसाई बढ़ा। पूर्वोतर का मणिपुर वैष्णव पंथ के अनुयायियों के कारण अपनी एक अलग ही पहचान रखता है, लेकिन आज यह प्रांत अशांति से घिरा है। अगर आने वाले दिनों में यहां भी अगर ‘अन्य’ ईसाई बन जाएं तो हैरत नहीं। अगर ऐसा हुआ तो यह प्रांत भी ईसाई बहुल हो जाएगा।

2011 की जनगणना के तहत झारखंड, पश्चिम बंगाल,ओडिसा छतीसगढ़ और मध्यप्रदेश -इन पांच राज्यों में ही ‘अन्य’ की संख्या करीब 67 लाख है। इसमें 63 लाख आदिवासी हैैं। झारखड के ‘अन्य’ में विभिन्न जनजातियों की संख्या देखें तो सबसे ज्यादा उरांव मिलेंगे, फिर संथाल, मुंडा आदि। इन्होंने खुद को हिंदू के बजाय ‘सरना’ के रूप में दर्ज कराया है। झारखंड में कुल अनुसूचित जनजातियों की संख्या 86 लाख है जिसमें संथाल़, उरांव और मुंडा 76.68 प्रतिशत हैैं।

साफ है कि आदिवासी जातियां खुद को हिंदू कहलाने से बच रही हैैं। केवल आदिवासी बहळ्ल प्रांतो में ही ‘अन्य’ की संख्या में वृद्धि नहीं हो रही। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु में ‘उल्लेख नहीं’ वालों की संख्या में वृद्धि हो रही है और यह चिंता का कारण है। देश के कुल ‘उल्लेख नहीं’ वाले लोगों की संख्या 2867303 है। इनमें इन राज्यों की हिस्सेदारी 2108079 है। मात्र 10 वर्ष में ‘उल्लेख नही’ वाले उत्तर प्रदेश में 69 हजार से बढ़कर 58 हजार, बिहार में 37 हजार से बढ़कर ढाई लाख, पश्चिम बंगाल में 54 हजार से बढ़कर सवा दो लाख हो गए।

यही स्थिति अन्य राज्यों में भी देखी जा सकती है। इस सिलसिले में यह ध्यान रहे कि 1987 में बिशप निर्मल मिंज के नेतृत्व में छतीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और असम के आदिवासी प्रभाव वाले जिलों को काटकर एक अलग प्रांत उदयांचल की मांग की गई थी। चूकि इन्हीं राज्यों के आदिवासी ‘अन्य’ में अपना नाम लिखवा रहे हैं इसलिए भारत सरकार को ‘अन्य’ की संख्या में हो रहे वृद्धि को गंभीरता से लेना होगा और आगामी जनगणना को ध्यान में रखकर कोई नया दिशानिर्देश जारी करना होगा वरना देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ सकती है।

[ लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैैं ]