तरुण गुप्त। अब भले ही कोविड के नए मामलों में कमी आती दिख रही हो, लेकिन इस महामारी के कारण हो रही मौतों के आंकड़े अपेक्षित तेजी से घटने का नाम नहीं ले रहे हैं। अमेरिका और ब्राजील के बाद भारत दुनिया का तीसरा ऐसा देश बन गया है, जहां कोविड महामारी तीन लाख से अधिक लोगों को अपना काल बना चुकी है। आबादी के अनुपात में हुई मौतों को लेकर भारत की स्थिति दूसरे कई देशों से बेहतर है, लेकिन इससे इस मानवीय आपदा की भयावहता कम नहीं हो जाती। इस दौरान राज्य और जनता की लापरवाहियों को लेकर काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है। केंद्र सरकार और तमाम राज्य सरकारों की अक्षमताओं पर भी सवाल उठे हैं। हम पुरानी गलतियों को तो पलट नहीं सकते, लेकिन उनसे सबक अवश्य सीखना चाहिए, परंतु अफसोस...!

नि:संदेह कोविड की दूसरी लहर ने हमारे खस्ताहाल स्वास्थ्य ढांचे की कलई पूरी तरह खोलकर रख दी। आवश्यक दवाओं की किल्लत में हमारे समाजवादी अतीत की तंगहाल अर्थव्यवस्था के अवशेष ही दिखते हैं। इससे भी अधिक निराशाजनक यह है कि हम आपूर्ति की बाधाओं से पार पाने में सक्षम नहीं हो पाए। संसाधनों की भारी कमी ने रिकवरी की हमारी राह पर ग्रहण लगा दिया। पहले तो मेडिकल आक्सीजन, रेमडेसिविर और टासिलिजुमाब का संकट उत्पन्न हुआ और अब लाइपोसोमल एंफोटेरिसिन-बी जैसी उस एंटीफंगल दवा की कमी लोगों पर काल बनकर टूट रही है, जो म्यूकरमाइकोसिस, जिसे अनौपचारिक रूप से ब्लैक फंगस कहा जा रहा है, के उपचार में काम आती है। घरेलू उत्पादन बढ़ाकर या फिर आयात के जरिये इस जीवन रक्षक दवा की पर्याप्त आपूर्ति में हमारी अक्षमता बड़ी घातक रही। जहां तक घरेलू उत्पादन की बात है तो वह कच्चे माल की उपलब्धता और अन्य पहलुओं से प्रभावित होता है, लेकिन विदेश से उसकी खरीद क्यों नहीं की जा सकी? भारत से बाहर यह दवा बहुतायत में उपलब्ध है और विदेशी आपूर्तिकर्ताओं से उसकी बड़े पैमाने पर खरीदारी में आखिर क्या कठिनाई रही?

लाइपोसोमल एंफोटेरिसिन-बी के वितरण का पूरा नियंत्रण सरकार ने अपने हाथ में ले लिया, ताकि उसकी कालाबाजारी रोकी जा सके। वह उद्देश्य तो पूरा न हो सका, उलटे निजी आपूर्ति ठप पड़ी हुई है। स्थिति यह है कि 6000 रुपये का यह इंजेक्शन लोगों को अनधिकृत रूप से 20,000 से 30,000 रुपये के बीच खरीदना पड़ रहा है। तिस पर उसके असली होने की भी कोई गारंटी नहीं। यह राज्य सत्ता की चिर-परिचित विडंबनापूर्ण दास्तान लगती है। यह सच है कि ऐसा घृणित आचरण करने वाले कालाबाजारी हमारे बीच के ही हैं, लेकिन यह तो सरकार का दायित्व है कि वह ऐसे उत्पीड़क तत्वों पर लगाम लगाए और आपूर्ति को बेहतर बनाए।

दवा वितरण तंत्र की कार्यप्रणाली हास्यास्पद होने के साथ ही त्रासदपूर्ण भी है। एक उदाहरण से ही इसे समझ सकते हैं। देश में सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में यह दवा लखनऊ, वाराणसी, मेरठ और आगरा के संभागीय मुख्यालयों से वितरित की जाती है। मुंबई स्थित दवा निर्माता से दिल्ली के रास्ते यह राज्य की राजधानी लखनऊ तक पहुंचती है। मेरठ और आगरा जैसे शहर दिल्ली से दो-चार घंटे की दूरी पर हैं, वहां सीधे पहुंचाने के बजाय दवा हवाई मार्ग से 500 किलोमीटर दूर लखनऊ भेजी जाती है और वहां वाहनों के जरिये संबंधित केंद्रों पर पहुंचाई जाती है। इस उलझाऊ और मुश्किल प्रक्रिया में समय ही व्यर्थ होता है, जिससे उपचार में देरी होती है। स्पष्ट है कि महामारी के इस दौर में भी तात्कालिकता पर लालफीताशाही भारी पड़ रही है।

फिर निर्णायक आवंटन तो हमारे जले पर नमक छिड़कने जैसा है। मांग आपूर्ति की तुलना में कई गुना बढ़ गई है। मरीजों को डॉक्टर द्वारा सुझाई गई खुराक से कम मात्रा में दवा मिल पा रही है, क्योंकि नौकरशाह अधिक मरीजों तक दवा पहुंचाने के फेर में पर्याप्त मात्रा में दवा उपलब्ध नहीं करा रहे। परिणामस्वरूप प्रत्येक मरीज के हिस्से में आवश्यकता से कम दवा आती है। होना तो यह चाहिए कि मामले की गंभीरता के अनुसार ही दवा वितरित की जाए। ऐसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण की उपेक्षा कर कोटा सिस्टम या लोकलुभावन कदम के जरिये अधिक से अधिक लोगों तक दवा पहुंचाना किसी के लिए भी उपयोगी नहीं।

ऐसी तबाही कई ज्वलंत प्रश्न उठाती है। दुनिया की पांचवीं या छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था समय से आवश्यक दवाएं और वैक्सीन उपलब्ध कराने में अक्षम है। विदेशी मुद्रा भंडार के सर्वकालिक उच्च स्तर पर होने के बावजूद दवाएं आयात करने में संभवत: विलंब किया गया। ऐसा संघीय ढांचा जहां राज्य सरकारें शोषणकारी और मुनाफाखोरों के साथ ही नकली दवाओं की धरपकड़ में नाकाम हैं। वहीं नौकरशाही के स्तर पर सीमित संसाधनों के उपयोग में वांछित कुशलता का अभाव दिखता है। आंकड़े शायद झूठी तस्वीर न दिखाते हों, परंतु कभी-कभार भ्रमित अवश्य करते हैं। प्रति व्यक्ति संक्रमण और मृत्यु दर के मामले में हमारी स्थिति भले ही कई देशों से बेहतर हो, परंतु बड़ी तादाद में हुई मौतों और भयावह परिस्थितियों ने समाज को भयाक्रांत कर दिया है। इसके अलावा कोरोना की दूसरी लहर ने भारत में तब तांडव दिखाया, जब वैक्सीन आने के बाद शेष विश्व में हालात सामान्य होने की ओर बढ़ रहे थे।

हमारा टीकाकरण अभियान भी मंद गति से आगे बढ़ रहा है। 18 साल से कम आयु वर्ग के लिए अभी टीकाकरण से जुड़े परीक्षण चल रहे हैं। यानी फिलहाल टीका इस आयु वर्ग की पहुंच से दूर है। ऐसे में तीसरी लहर में किसी अनिष्ट की आशंका को समाप्त करने के लिए बच्चों और किशोरों के अभिभावकों को टीकाकरण में वरीयता दी जानी चाहिए। यदि हमें पहली दुनिया के देशों जैसा स्वास्थ्य ढांचा विकसित करना है तो समाज के सभी वर्गों को इसे अपनी प्राथमिकता के केंद्र में रखना होगा। हालांकि यह रातोंरात संभव नहीं, लेकिन तब तक कम से कम यह तो विस्मृत न करें कि नवाचार केवल नवसृजन में ही नहीं, बल्कि उपलब्ध संसाधनों के अधिकतम उपयोग में भी निहित होता है।