[ रिजवान अंसारी ]: मुसलमानों के बीच अल्लामा इकबाल की यह उक्ति बेहद मशहूर है, ‘एक ही सफ में खड़े हो गए महमूद व अयाज, न कोई बंदा रहा न कोई बंदा नवाज।’ दरअसल जब भी मुसलमानों में गैर-बराबरी का सवाल उठता है तब इसी उक्ति के जरिये सभी लोगों के बराबर होने का दावा किया जाता है और फिर असमानता के सारे सवाल कहीं गुम हो जाते हैं। एक ऐसे समय जब मुस्लिमों में भी जातिवादी सोच अपनी गहरी पैठ बना चुकी है तब सवाल है कि बराबरी का यह दावा कितना दुरुस्त है? क्या वाकई मुस्लिमों की जाति व्यवस्था, दूसरे धर्मों की जाति-व्यवस्था से परे है? यह सवाल इसलिए भी कि हिंदू धर्म में सवर्णों और दलितों के बीच के मतभेद तो एक राष्ट्रीय मुद्दा बन जाते हैैं, लेकिन मुस्लिम समाज में जड़ें जमा चुकी इस जाति व्यवस्था की विसंगतियां शायद ही प्रकाश में आ पाती हैं।

देखा जाए तो मुस्लिमों में बराबरी का शिगूफा महज मस्जिद और शरीयत से जुड़े मसलों तक ही सीमित है। अन्यथा जातिवादी मानसिकता की बेड़ियों में पूरा मुस्लिम समाज ही जकड़ा हुआ है। कुछ हद तक तथाकथित बराबरी दिखाने की कोशिश भी होती है तो ऐसा केवल धार्मिक कारणों से ही संभव हो पाता है, लेकिन हर लिहाज से पिछड़े मुस्लिम अगड़े मुस्लिमों की उपेक्षा के शिकार ही होते रहे हैं। यही वजह है कि इन दो वर्गों के बीच अभी तक भरोसेमंद सामाजिक रिश्ते कायम नहीं हो सके हैं। बेटी-रोटी का रिश्ता तो दूर, पिछड़े मुसलमान अगड़ों की उपेक्षा का शिकार होते रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पिछड़े मुसलमानों की एक बड़ी आबादी थोड़े से अगड़े मुसलमानों के कारण विकसित नहीं हो सकी है।

2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 14.2 फीसद मुस्लिम हैं। एक अध्ययन के अनुसार देश की लगभग 80 फीसद मुस्लिम आबादी पिछड़ी जाति से आती है वहीं किसी राज्य विशेष में तो यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से भी अधिक है। बिहार में तो 85 फीसद से अधिक मुस्लिम पिछड़े हैं। ये सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तीनों ही रूप से पिछड़े रहे हैं। ‘दलित मुस्लिम’ की संकल्पना इसी का एक पहलू है।

गौरतलब है कि मुस्लिमों को दो बड़े वर्गों मसलन-अशरफी और गैर-अशरफी में बांटा गया है। अशरफी यानी सवर्ण मुस्लिमों में मुगल, सैयद, शेख और पठान आते हैं और शेष सभी जातियां पिछड़ी यानी गैर-अशरफी के तहत आती हैं। हालांकि इस्लाम में जाति व्यवस्था की कोई संकल्पना नहीं है, लेकिन मौजूदा व्यवस्था परिस्थितिजन्य कही जा सकती है। जाति के आधार पर भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार की समस्या इसी का एक पहलू है। सच्चर कमेटी, मंडल आयोग और सतीश देशपांडे की रिपोर्ट ने भी मुस्लिमों में मौजूद इसी जाति व्यवस्था के कारण पिछड़ों के बिगड़ते हालात की तरफ संकेत किए हैैं।

आर्थिक रूप से भी पिछड़े मुसलमान लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। गरीबी और बेरोजगारी की समस्याएं इनमें अपनी जड़ें जमा चुकी हैैं। आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण इनमें शिक्षा का घोर अभाव देखा जा सकता है। हालांकि देश के महज 57 फीसद मुस्लिम ही साक्षर हैं, लेकिन पिछड़े मुसलमानों की बात करें तो मुस्लिमों की कुल साक्षरता में उनकी भागीदारी चिंताजनक स्थिति में है। यही कारण है कि सरकारी सेवाओं में अगड़े मुस्लिमों का बोलबाला है। सरकारी सेवाओं में पिछड़ों की जो भी भागीदारी है उनमें उनकी मौजूदगी छोटे पदों पर ही देखी जाती है।

शैक्षणिक रूप से पिछड़े होने की वजह से इनमें कोई बड़ा राजनीतिक नेतृत्व भी विकसित नहीं हो पाया है। यही वजह है कि पिछड़े मुस्लिम राजनीतिक रूप से अदृश्य सामाजिक समूह बनकर रह गए हैैं। एक अध्ययन के मुताबिक देशभर के कुल मुस्लिम विधायकों में पिछड़ों की भागीदारी लगभग 30 फीसद ही है। उदाहरण के तौर पर राज्य विशेष की बात करें तो आजादी के बाद से वर्ष 2010 तक बिहार में 255 मुस्लिम विधायक बने जिनमें केवल 70 ही पिछड़े वर्ग से थे। कमोबेश यही हाल केंद्र की राजनीति में है। लगभग तीन चौथाई मुस्लिम सांसद सामान्य वर्ग के होते हैं, जबकि देश की मुस्लिम आबादी में तीन चौथाई से भी अधिक हिस्सेदारी पिछड़ों की है। ऐसे में यह राजनीतिक पिछड़ापन जहां मुस्लिमों की सामाजिक व्यवस्था की पोल खोलता है वहीं उन सभी सियासी दलों की नीयत पर भी सवालिया निशान लगाता है जो दबे-कुचलों के हिमायती होने का दम भरते रहे हैं।

पिछड़े मुस्लिमों में कोई भी बड़ा राजनीतिक नेतृत्व विकसित नहीं होने की वजह से वे उच्च वर्गों के उम्मीदवारों को ही हमेशा अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए मजबूर होते रहे हैं। लिहाजा जहां एक तरफ अगड़े मुस्लिम हर लिहाज से सशक्त होते रहे, वहीं पिछड़े मुस्लिम कमजोर होते चले गए। निरंतर अनदेखी और उपेक्षा के कारण आज उनकी स्थिर्ति ंहदू-दलितों से भी दयनीय हो गई है। यही कारण है कि दलित मुस्लिम अपने ही समाज के अंदर उच्च वर्गों के शोषण के खिलाफ आंदोलनरत हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में ‘पसमांदा मुस्लिम महाज’ का अगड़े मुस्लिमों और उलेमाओं के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन इसी का एक पहलू है। विडंबना है कि 21वीं सदी में भी पिछड़े मुस्लिमों को असमानता, उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। नासूर बन चुकी इस जातिवादी मानसिकता से मुस्लिम समाज को आजादी दिलाने और देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि उनके सवालों और आवाज को सामने लाया जाए।

आज पिछड़े मुस्लिमों के लिए एक ऐसा मंच विकसित करने की जरूरत है जो अन्यायपूर्ण सामाजिक संरचना के खिलाफ लड़ सके और पिछड़ों के लिए एक सम्मानपूर्ण जगह समाज में सुनिश्चित कर सके। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग द्वारा ‘दलित मुस्लिमों’ को उनके हिंदू समकक्षों के साथ अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल किए जाने की सिफारिश इसी का एक पहलू है। सरकार को भी इस दिशा में सकारात्मक पहल करनी चाहिए। आज जब भारत विज्ञान, सूचना प्रौद्योगिकी और आर्थिक विकास में लगातार अपना परचम लहरा रहा है तब यह ठीक नहीं कि मुसलमानों का एक बड़ा तबका अभी भी दर्जी, नाई, सब्जी विक्रेता आदि जैसे पेशों में ही उलझा हुआ है। जब तक समाज को इस जातिवादी मानसिकता से आजादी नहीं मिल जाती तब तक पिछड़े और पसमांदा मुसलमानों को ‘न्याय’ का इंतजार रहेगा।

( लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया विवि में अध्येता हैैं )