छत्तीसगढ़, मनोज झा। पुणे में भूखों मरने की नौबत से घबराकर रामकिशन अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ किसी तरह महासमुंद जिला स्थित अपने गांव लौट आया है। पुणे में सप्ताह भर की भाग-दौड़ और अफसरों के हाथ-पैर जोड़ने के बाद आखिरकार उसे किसी तरह श्रमिक स्पेशल ट्रेन में जगह मिल पाई थी। ट्रेन में भूख और प्यास से व्याकुल बच्चों को किसी तरह संभालते हुए पत्नी के साथ जब वह रायपुर रेलवे स्टेशन उतरा तो उसकी आंखें डबडबा रही थीं।

बहुत देर तक वह संज्ञाशून्य स्थिति में स्टेशन परिसर में ही बैठा रहा। सजल पलकों से कभी प्लेटफॉर्म पर सरक रही ट्रेन तो कभी स्टेशन के बाहर के आसमान को निहार रहा था। आखिर अपनी माटी, अपना देस आंखों में डूबकर ही तो दिल तक उतरता है। परदेस में टूटी उम्मीदों को यही माटी, यही देस आगे बढ़कर सहारा भी देता है। बहरहाल वह स्टेशन से सीधे गांव के बाहर स्थित क्वारंटाइन सेंटर पहुंचता है। फिर वहां से चौदह दिन बाद घर की दहलीज पर कदम रखता है।

पुणे में स्टोर कीपर की नौकरी करने वाला रामकिशन ढाई साल बाद गांव लौटा है। शुरू के दो-चार दिन का समय तो भाई-भतीजे, भाभियां, चाची-ताई और बचपन के दोस्तों से मिलने-जुलने में कट गए। कइयों ने देश-दुनिया में फैल रहे कोरोना का हालचाल पूछा। पूछने वाले को यह पता ही कहां था कि लॉकडाउन के दौरान पुणे में ङोली दुश्वारियों के अलावा उसे कुछ पता नहीं। कोरोना के बारे में तो उसे शायद ग्रामीणों से भी कम जानकारियां हैं। पिछले दो महीनों से तो वह बस इसी मशक्कत में लगा था कि मकान का किराया कैसे देना है, राशन-पानी कैसे जुटाना है, बिना तनख्वाह मिले पूरे परिवार की गाड़ी को कैसे चलाना है। सेठ से पैसे मांगे तो उसने कारोबार ठप होने की बात कहकर टरका दिया। महीना शुरू होते ही मकान मालिक अल्टीमेटम देने लगा। आखिर के पंद्रह-बीस दिन तो बेहद तंगहाली में गुजरे। पत्नी ने घर लौट जाने की सलाह दी तो ट्रेन पकड़कर किसी तरह परिवार समेत गांव तो पहुंचा, लेकिन जेब खाली है। तेरह हजार की नौकरी में जो कुछ भी बचता था, लॉकडाउन उसे पुणो में ही लील चुका है। उधर छोटे भाई बालकिशन की अपेक्षाएं कुछ ज्यादा हैं। उसे लगता है कि पुणो से माल काटकर आया है। बालकिशन को नहीं पता कि भाई की जेब जर्जर है और पुणो में कोई ऐश-मौज की जिंदगी नहीं, बल्कि किसी तरह परिवार का पालन-पोषण कर रहा था। उल्टे अंदर ही अंदर इस बात से कुपित है कि घर में रखे अनाज को खाने वाले अब चार और लोग आ गए हैं।

रामकिशन की दिक्कत यह है कि उसके पास गांव में कोई काम नहीं है। स्टोर कीपर की नौकरी ने मनरेगा के लायक छोड़ा नहीं है। फिर कुछ लाज-शरम भी है। भाई बालकिशन की तरह कई गांव वाले भी यही मान रहे हैं कि शहर में जाकर साफ-सुथरा और चिकना दिखने वाले रामकिशन के पास जमा-पूंजी तो है ही। मतलब कि उसकी दिक्कत से फिलहाल सभी अनजान हैं। फिर एक रामकिशन ही क्यों, इन दिनों दूसरे राज्यों से लौटे तमाम प्रवासी कामगारों के समक्ष यह बहुत बड़ी समस्या है। शहरों में दैनिक श्रम करने वालों के लिए तो मनरेगा फिर भी एक विकल्प है, लेकिन ये स्टोरकीपर, कंप्यूटर ऑपरेटर, सिक्योरिटी इंचार्ज, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन जैसे अनगिनत कामगारों के लिए गांव लौटना बड़ी मुसीबत बन गई है। गांवों में उनके पास फिलहाल कोई काम नहीं है और वे फाकाकशी के दौर काट रहे हैं। अपवाद को छोड़ दें तो इन प्रवासियों के भाई-भतीजे भी अंदर से बहुत खुश नहीं हैं। गांव की संपत्ति पर अचानक से पैदा हुई इस दावेदारी ने उन्हें व्याकुल कर दिया है। दबी जुबान से वे लॉकडाउन खत्म होने और इनके दोबारा शहर लौटने की बाट जोह रहे हैं। कह सकते हैं कि कोरोना के चलते इन दिनों गांवों में एक अलग किस्म की बेचैनी भी पनप रही है।

छत्तीसगढ़ के ऐसे प्रवासियों के लिए यहां के उद्यमियों की ताजा पहल उम्मीद की किरण लेकर आई है। उद्यमियों ने कई गांवों के सरपंचों, पंचायत प्रतिनिधियों और यहां तक कि सरकारी विभागों से यह कहा है कि उन्हें कुशल यानी प्रशिक्षित श्रमिकों की जरूरत है। बाहर से लौटे ऐसे कामगारों को वे यहीं काम देंगे। फिलहाल यह कहना तो मुश्किल है कि बड़ी संख्या में छत्तीसगढ़ लौटे ऐसे प्रवासियों में से कितनों को यहां रोजगार मिल पाएगा, फिर भी इस पहल का स्वागत तो किया ही जाना चाहिए। थोड़े आंसू, थोड़े गम और थोड़ी मुसीबतें भी कम हो जाएं तो यह गांव-शहर दोनों के लिए अच्छा रहेगा।

[राज्य संपादक, छत्तीसगढ़]