डॉ. विकास सिंह। धूरी नीति निर्माण के कारण अक्सर देश में अधिकांश परियोजनाएं या कार्यक्रम अपेक्षित लक्ष्य नहीं हासिल कर पाते हैं। हमारे ज्ञानी पाठकों को शायद कोबरा प्रभाव के बारे में जरूर पता होगा। दरअसल यह तब होता है जब कोई समाधान अपने समस्या को सुलझाने के बजाय उल्टा बिगड़ने लगता है। दुर्भाग्य से, इस वाक्यांश की कुख्याति कहीं और से नहीं, बल्कि नीति निर्माण से उत्पन्न होती है!

दरअसल कोबरा सांपों की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाने पर ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने भारत के कई हिस्सों में एक योजना लागू की थी। इस योजना के तहत मृत कोबरा सांप लाने वाले व्यक्ति को कुछ पैसे दिए जाते थे। यह नीति शुरू में तो सफल रही और कोबरा सांपों की संख्या कम होती दिखने लगी। परंतु कुछ समय बाद घटने के बजाय मृत कोबरा सांपों की संख्या बढ़ने लगी और बड़ी संख्या में लोगों द्वारा इनाम पर दावा किया जाने लगा, क्योंकि उद्यमी नागरिकों ने कोबरा पालना शुरू कर दिया। फिर उन्हें मारकर वे संबंधित सरकारी विभाग को कोबरा सांप सौंप देते और इस प्रकार से उन्होंने इसे कमाई का एक जरिया बना लिया।

एक बार जब सरकार को अपनी गलती का एहसास हुआ, तो उसने केवल उसी तरीके से काम किया, जैसा कि वह जानती है यानी अल्पकालिक समाधान। फिर नीति निर्माताओं ने उस योजना को बंद कर दिया, जिससे समस्या और भी बढ़ गई। दरअसल आमदनी की राह को बंद होते देख कोबरा पालकों ने इन अनुपयोगी हो चुके सांपों को खुले में छोड़ दिया। उपरोक्त संदर्भ महज एक उदाहरण हो सकता है, फिर भी अक्सर यह देखा जाता है कि अधिकांश नीतियों में सही रूपरेखा की समस्या होती है। ये स्वाभाविक रूप से असफल हो जाते हैं और दुर्भाग्यवश कार्यान्वयन को ही दोषी ठहराया जाता है।

नीति निर्माण की जटिल प्रक्रिया : भारत में नीति निर्माण की प्रक्रिया पर अक्सर सवाल खड़े होते रहे हैं। यह पूरी तरह से अव्यवस्थित है। कई बार यह अनौपचारिक, अनेक प्रकार के कारकों से प्रभावित और राजनीतिक संरक्षण या इसकी कमी से संचालित दिखते हैं। जब इस प्रकार के तमाम कारकों पर शोध किया जाता है, तो राजनीतिक हालात उस समझ को अव्यवस्थित कर देते हैं, जिनसे कई बार प्रभाव तथा स्थिरता पर कम और वास्तविक इनपुट और त्वरित परिणाम पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाता है। ये शोध भी हमेशा निश्चित उत्तर नहीं देते हैं। दवाइयों के इतिहास को ही अगर देखें तो इससे पता चलता है कि कई सिद्धांत अस्पष्ट थे, समुचित रूप से पर्याप्त नहीं थे, लेकिन उस पर भरोसा किया जाता था। तंबाकू और अफीम जैसे उपायों वाली तकनीक फायदा से अधिक नुकसान पहुंचाते थे।

मुद्दों की जटिलता को कम आंकना : नीति निर्माता अक्सर बड़े मुद्दों को कम नहीं करते हैं और जटिलता को आम तौर पर बहुत कम आंकते हैं। वे समस्याओं को परिभाषित करने में न तो पर्याप्त रूप से कठोर हैं और न ही इसमें शामिल जटिलताओं को समझ पाते हैं। कई बार यह अज्ञानता, तो कई बार अहंकार की स्वीकृति में होता है। अधिकांशत: झूठी या अतिशयोक्तिपूर्ण क्षमता पर बहुत अधिक भरोसा होता है, जो समग्र सोच में निवेश को हतोत्साहित करता है। विरोधाभासी लक्ष्यों की वजह से नीति निर्धारण भी प्रभावित होता है। इन्हीं सब वजहों से आखिरकार वे असफल हो जाते हैं। दूसरी ओर अत्यधिक आशावादी अपेक्षाओं के कारण कार्यान्वयन प्रभावित होता है। प्रमुख नीति निर्माताओं की अक्षमता, विघटित शासन रूपरेखा, धूमिल संदर्भ, क्षमता, इच्छाशक्ति और राजनीतिक चक्र की अनिश्चितताएं केवल परिणाम को कमजोर करते हैं। नीतियों को समझदारी एवं दूरदर्शिता और विलक्षण विनम्रता दोनों से निर्धारित किया जाना चाहिए।

अर्थव्यवस्था को संगठित रूप देने की प्रक्रिया में गड़बड़ी : इस सरकार और अन्य लोगों ने व्यापक विशिष्टताओं के साथ अंतिम अवसर की घोषणा की है और सुस्त लोगों (जो विचाराधीन हैं या भुला दिए गए हैं) को एक प्रस्ताव दिया है और उन करदाताओं को प्रलोभन दिया है जो अपनी चोरी के दाग से साफ होकर बाहर निकलना चाहते हैं। इसी तरह बिना पूरी तैयारी के डिजाइन किया गया नोटबंदी कार्यक्रम और बेहद लचर तरीके से किए गए उसके कार्यान्वयन ने उन लोगों को ही नुकसान पहुंचाया, जिनकी मदद के लिए इस ऐतिहासिक अभियान को अंजाम दिया गया था। इस दौरान गरीब और छोटे व्यवसाय बड़े लोगों की कीमत पर प्रभावित हुए। अर्थव्यवस्था को संगठित रूप देने की प्रक्रिया ने कई व्यवसायों को पूरी तरह से दिवालिया कर दिया।

दूरदर्शिता की कमी से होने वाला नुकसान : किसी समस्या को सुलझाने में व्यापक दूरदर्शिता की कमी का सामना दुनिया के अन्य कई देशों के लोगों को भी करना पड़ा है। लगभग छह दशक पहले माओ जेडॉन्ग ने विभिन्न बीमारियों के प्रसार के लिए जिम्मेदार मच्छरों, चूहों, मक्खियों और गौरैयों को मिटाने के लिए चार कीटनाशक वाले अभियान की शुरुआत की थी। उन्होंने कीटों और गौरैयों को तो नष्ट कर दिया, लेकिन इसके परिणामस्वरूप फसलों को संक्रमित करने वाले कीटों का भी प्रसार हो गया। यह अभियान चीन की अब तक सबसे भयावह मानी जाने वाली अकाल का कारण बना था। संयुक्त राष्ट्र ने भी इस संदर्भ में अभी तक कुछ खास नहीं किया है। इस संदर्भ में दुनिया के तमाम हिस्सों में बनी नीतियां बेहद ढुलमुल अवस्था में हैं।

आसान समाधान का आदर्श होना जरूरी नहीं : ऋण माफी एक राजनीतिक समाधान और क्विक फिक्स के समान है, जो संकट को किसी दूसरे के द्वार पर स्थानांतरित कर देता है। कम क्रेडिट में ऋण माफी के फलस्वरूप छोटे किसानों को नुकसान होता है। बैंक किसानों को अपने से दूर कर साहूकारों की ओर जाने पर मजबूर कर देते हैं और साहूकार किसानों को कर्ज के जाल में फंसा लेते हैं। जबकि इसके विपरीत ऋण माफी अमीर किसानों के लिए एक वरदान है। वे अधिक क्रेडिट पर एकाधिकार रखते हैं। इसी तरह, न्यूनतम मजदूरी उन लोगों को ही नुकसान पहुंचाती है, जिनकी सुरक्षा के लिए इसे बनाया गया है। इसकी वजह से काम मांगने वालों को बाजार से बाहर होना पड़ता है, जो अनुभव पाने के अवसरों और कौशल निर्माण को सीमित करता है। कम कुशलता, अनुभवहीनता, कम उत्पादकता और न्यूनतम मजदूरी का दुष्चक्र उन्हें बेरोजगारी या अनियोजन के गड्ढे में फंसा देता है।

कमजोर उद्योग से अर्थव्यवस्था को नुकसान : सरकार बिल्डरों को न्यूनतम पाìकग प्रदान करने के लिए राजी कर रही है। हालांकि यह प्रशंसनीय तो है, पर साथ ही अनुचित भी कहा जा सकता है, क्योंकि यह न केवल आवास निर्माण की लागत को बढ़ाता है, बल्कि वहनीय समुदायों के व्यय को कम करने पर मजबूर करता है। मेक्सिको सिटी के असफल अनुभव से उधार लेकर लागू की गई ओड इवेन योजना के साथ हर साल सíदयों में दिल्ली को भी कोबरा का सामना करना पड़ता है। बहुत सारे संपन्न लोग ओड इवेन के दौरान अपनी सुविधा के लिए सस्ती (अधिक प्रदूषण फैलाने वाली) कारें खरीद लेते हैं। इस तरह कारों की संख्या बढ़ने से समाज में कार का स्वामित्व हासिल करने की अवधारणा को प्रोत्साहित करने के साथ यातायात को बाधित करता है और प्रदूषण फैलाता है। इसके अन्य बहुत से नुकसान तो हैं ही।

बुनियादी आर्थिक सिद्धांतों की अनदेखी : कोरोना महामारी के संबंध में सरकार की प्रतिक्रिया को देखें, तो इसमें कई बुनियादी आर्थिक सिद्धांतों की अनदेखी की गई है। बड़े पैमाने पर और संयुक्त रूप से मौद्रिक और राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की गई। जब मांग सृजन को बढ़ाने की जरूरत थी, तो इसने सस्ते ऋणों पर जोर दिया और उसे आगे बढ़ाया। उपभोक्ता खर्च हमारी अर्थव्यवस्था का लगभग दो-तिहाई है। लॉकडाउन ने उपभोक्ताओं से उनकी आय का एक तिहाई हिस्सा छीन लिया, जिससे मांग में कमी आई और विवेकाधीन खर्च 70 प्रतिशत तक कम हो गए। यदि सरकार ने केवल लाभकारी संपत्तियों और मांग सृजित करने पर ध्यान केंद्रित किया होता, तो हमारे देश की अर्थव्यवस्था अन्य देशों के मुकाबले अधिक तेजी से पटरी पर आ सकती थी। कई बार हम नीतियों को अपनी शर्तो पर और स्वयं महसूस होने वाली संवेदनाओं के नजरिये से देखते हैं।

एक देशवासी के तौर पर विडंबना यह कि विभिन्न कारणों से हर सरकार में भारतीयों को नीतिगत विफलताएं ङोलने के लिए अभिशप्त किया जाता है। अधिकांश पीड़ित लोग उन अनुभवी लोगों को कार्यान्वयन का दोष देते हैं, जो इन नीतियों को लागू करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। हालांकि इस संबंध में किया गया एक गहन मूल्यांकन कई अन्य कारणों की ओर इशारा करता है। इस संबंध में विस्तृत अध्ययन से यह भी पाया गया है कि नीतियों के कामयाब नहीं होने का असली कारण उनका डिजाइन ही है। डिजाइनिंग नीतियां बिल्कुल भी रॉकेट साइंस नहीं हैं। इसमें कार्यक्षेत्र का गहन ज्ञान, जमीनी हकीकतों का मूल्यांकन, कुछ हद तक निर्णय लेने, लक्ष्यों की स्पष्टता आदि शामिल हैं, जो इसके कार्यान्वयन को आकार देता है। हालांकि कई बार नीतियों में संतुष्टि के लिए विभिन्न और संभावित रूप से परस्पर विरोधी लक्ष्य शामिल होते हैं।

शक्ति का वितरण, कई बार पोषक परिवेश में सक्षम होता है, लेकिन इसकी अनुपस्थिति में एक बुनियादी बाधा होती है। विभिन्न सब्सिडी कार्यक्रमों के बारे में एक सूक्ष्म अध्ययन इस तथ्य को उजागर करता है कि शीर्ष पांच सब्सिडी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन से पता चलता है कि बेहतर तरीके से डिजाइन की गई योजना को बेहतर तरीके से लागू नहीं किया गया होगा, बल्कि इसे और अधिक आसानी से लागू किया जा सकता है। अध्ययन बताता है कि अच्छी तरह से डिजाइन किए गए कार्यक्रम न केवल उसकी लागत को कम करने में समर्थ होते हैं, बल्कि अधिक प्रभावी भी होते हैं और कई संबंधित लाभ प्रदान करने में भी सक्षम होते हैं। मुख्य रूप से ये उपचार तंत्र में लोगों का विश्वास बढ़ाते हैं, शासन में विश्वसनीयता लाते हैं और इन सबसे अधिक इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि सरकार वास्तव में आम लोगों के लिए है।

[मैनेजमेंट गुरु तथा वित्तीय एवं समग्र विकास के विशेषज्ञ]