[ बद्री नारायण ]: कोरोना वायरस ने अन्य तमाम काम थामने के साथ ही शिक्षा की दुनिया में भी अभूतपूर्व संकट पैदा कर दिया है। पिछले कई महीनों से विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों के कैंपस खाली हैं। कक्षाओं में होने वाली पढ़ाई बंद है। इस संकट के क्षण में शिक्षा व्यवस्था का समकालीन नेतृत्व अनेक नवाचारी विकल्पों को तलाश रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और उनकी पूरी टीम इस संकट से जूझने में लगी है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी के चेयरमैन और शिक्षा से जुड़ी अन्य संस्थाओं से जुड़े नेतृत्व भी अपनी-अपनी तरह से इस विकट समय से मुठभेड़ में लगे हैं।

कोरोना के चलते शिक्षा संस्थाओं ने ऑनलाइन शिक्षण का विकल्प किया विकसित

जब कोरोना ने हमारे कदमों को रोक दिया है, मिलने-जुलने पर लगाम लगा दी है तो आमने-सामने की शिक्षण विधि अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय, यूजीसी तथा राज्यों में शिक्षा को संचालित करने वाली संस्थाओं ने ऑनलाइन शिक्षण का विकल्प विकसित किया है। हालांकि इस पर अकादमिक जगत में बहस जारी है कि ऑनलाइन शिक्षण माध्यम कितना कारगर है? इससे छात्रों एवं शिक्षकों को शिक्षा लेकर-देकर कितना संतोष प्राप्त हो रहा है? दूसरी बहस है कि जो सामाजिक समूह हाशिये पर हैं, जो दूरस्थ हैं और जिनके पास स्मार्टफोन एवं लैपटॉप खरीदने की क्षमता नहीं है, वे इस विकल्प का कितना फायदा उठा पा रहे हैं?

जब शिक्षण विधि का कोई विकल्प नहीं तो ऑनलाइन शिक्षण ही एकमात्र विकल्प है

इस बहस के बीच हमें यह मानना पड़ेगा कि जब शिक्षण विधि का कोई विकल्प नहीं है तो ऑनलाइन शिक्षण ही एकमात्र विकल्प है। कई शिक्षा संस्थाओं ने तो नियुक्तियों के लिए साक्षात्कार भी ऑनलाइन शुरू कर दिए हैं।

शिक्षा संस्थाओं में अकादमिक बैठक वेबिनार के माध्यम से चल रहे हैं

शिक्षा संस्थाओं में अकादमिक बैठक, विमर्श एवं विचार-विनिमय वेबिनार के माध्यम से चल रहे हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नेतृत्व में अनेक शिक्षा संस्थाओं ने ज्ञान आधारित अनेक एप भी बनाए हैं। इसके कारण छात्रों के लिए आज असीमित ई-स्नोत तैयार हो गए हैं।

ऑनलाइन शिक्षण से कोर्स तो हुए पूरे, लेकिन फाइनल सेमेस्टर की परीक्षाओं को लेकर है धर्म संकट

पिछले लगभग चार महीनों से विभिन्न शिक्षा संस्थाओं ने ऑनलाइन शिक्षण के माध्यम से क्लास करके छात्रों के कोर्स तो पूरे करा दिए, लेकिन अब प्रश्न उठा है कि फाइनल सेमेस्टर की परीक्षाएं कैसे कराई जाएं। इसी परीक्षा के बाद डिग्री मिलती है। इस संदर्भ में दो प्रकार की राय उभरी है। एक वर्ग यह मानता है कि पिछली परीक्षाओं में प्रदर्शन के आधार पर छात्रों को डिग्री दे दी जाए। दूसरी राय के तहत बिना फाइनल सेमेस्टर परीक्षा के डिग्री देना छात्रों के लिए सम्मानपूर्ण नहीं होगा।

यूजीसी ने फाइनल सेमेस्टर की परीक्षा ऑनलाइन या ऑफलाइन कराने के दिए निर्देश

इस सबके बीच यूजीसी ने फाइनल सेमेस्टर की परीक्षा ऑनलाइन या ऑफलाइन कराने का निर्देश जारी किया है। इस निर्णय के पीछे निहित नैतिक पक्ष की ओर इशारा करते हुए निशंक ने कहा है कि बिना परीक्षा के डिग्री दे देने पर उसे कोरोना-डिग्री कहकर लांछित किया जाएगा।

ऑनलाइन के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, ऑफलाइन परीक्षा कराने पर संक्रमण बढ़ने का खतरा

विपदाएं हमारे लिए बहुत कम विकल्प छोड़ती हैं। नि:संदेह ऑनलाइन के लिए पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर एवं क्षमता की कमी है। यह भी ठीक है कि ऑफलाइन परीक्षा कराने पर संक्रमण बढ़ने का जोखिम भी है, किंतु अगर शिक्षा व्यवस्था की जरूरतों, उसके नैतिक पक्ष एवं संक्रमण की स्थिति को सामने रखा जाए तो शायद ही कोई निष्पक्ष व्यक्ति बिना किंतु-परंतु के इस पर अपनी स्पष्ट राय रख पाएगा। एक स्थिति है-परीक्षा कराने के निर्णय को लेकर किंतु-परंतु से घिरी राय। दूसरी स्थिति है-शिक्षा व्यवस्था की उत्कृष्टता को बचाए रखने के लिए परीक्षा कराने की मजबूरी। तीसरी स्थिति है-इस निर्णय का विरोध।

कई राज्यों ने यूजीसी के निर्णय का किया विरोध 

खबर है कि कई राज्यों ने इस निर्णय का विरोध किया है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे इस निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट भी जा चुके हैं। हालांकि यूजीसी द्वारा परीक्षा कराने का निर्णय पूरी तरह से प्रशासनिक एवं व्यवस्था संबंधी निर्णय है, किंतु कई जगह इसे सियासी चश्मे से देखा जा रहा है। इसके समर्थन-विरोध की राजनीतिक व्याख्याएं की जा रही हैं। ऐसा करने वालों को समझना होगा कि इतिहास में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब कुछ भी बनाम नहीं रह जाता। तब चीजों को हर क्षण श्वेत-श्याम जैसी श्रेणियों में रखकर नहीं समझा जा सकता।

एक तरफ कोरोना से सुरक्षा की जिम्मेदारी तो दूसरी तरफ शिक्षा के स्तर को बनाए रखने की चुनौती 

संकट के क्षणों में श्वेत-श्याम के बीच एक ग्रे एरिया होता है, जिसे हमें देखना होता है। शिक्षा व्यवस्था जितना व्यावहारिक ढांचे पर टिकी होती है, उतनी ही नैतिक ढांचे पर भी। इसीलिए शिक्षा व्यवस्था के लिए यह कठिन निर्णय का क्षण है। यह ऐसा क्षण है जिसमें खोने-पाने को हमें बड़े नैतिक प्रश्नों से जोड़कर देखना होगा। संक्रमण से सुरक्षा भी हमारी जिम्मेदारी है, पर शिक्षा के स्तर को बनाए रखना भी चुनौती है। ऐसे में हमारे लिए निर्णय लेना आसान नहीं है।

छात्रों को ऑफलाइन-ऑनलाइन परीक्षा के दोनों ही विकल्प मिलने चाहिए

यह समस्या पश्चिमी मुल्कों या विकसित देशों में उतनी नहीं है, लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों में संपूर्ण ऑनलाइन परिवेश विकसित करने की अपनी समस्याएं हैं। ऐसी स्थिति में छात्रों को ऑफलाइन-ऑनलाइन परीक्षा के दोनों ही विकल्प मिलने चाहिए।

ऑफलाइन परीक्षा के वक्त छात्रों, परीक्षकों को कोरोना से बचाने की जिम्मेदारी शिक्षा संस्थानों की होगी

ऑफलाइन परीक्षा के वक्त छात्रों और परीक्षकों को संक्रमण से बचाने के सभी उपाय शिक्षा संस्थानों को करने ही होंगे। वास्तव में हमें कुछ ऐसा करना होगा कि हम कोरोना संकट से भी बचे रहें और हमारी शिक्षा व्यवस्था का मान-सम्मान भी बना रहे।

जब हमारी शिक्षा उत्कृष्ट होगी तभी हमारा समाज भी उत्कृष्ट हो पाएगा

कोरोना संकट ने हम सबको शिक्षा जैसे ज्ञान एवं नैतिकता से जुड़े क्षेत्र के संबंध में अनेक दुविधाओं में डाल दिया है। इन दुविधाओं से हम सब मिलकर ही बाहर आने का रास्ता निकाल सकते हैं। इस विकट समय में शिक्षा के क्षेत्र का हमारा नेतृत्व छात्रों एवं समाज के अन्य समूहों से संवाद कर रास्ते निकालने में लगा है। संभव है संक्रमण पर नियंत्रण के बाद दुविधाओं से निकलकर भारतीय शिक्षा व्यवस्था स्वयं को विश्व स्तर पर खड़ा कर पाएगी। इतना तो तय है कि जब हमारी शिक्षा उत्कृष्ट होगी तभी हमारा समाज भी उत्कृष्ट हो पाएगा।

( लेखक जीबी पंत समाज विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं )