उमेश चतुर्वेदी। कोरोना ने पूरी दुनिया को तबाह कर रखा है। लेकिन इस तबाही से सबसे ज्यादा परेशान वर्ग में कच्चे मन वाले स्कूली छात्र भी हैं। खासकर शहरी क्षेत्रों के स्कूली छात्र इन दिनों संकट को अवसर बनाने वाले निजी स्कूलों के चक्कर में पिस रहे हैं। रोजाना घंटों उन्हें वेब पर अपने अध्यापकों के लैक्चर सुनने पड़ रहे हैं। आधुनिक शिक्षा के नाम पर हमने जो व्यवस्था अपनाई है, उसमें निजी स्कूलों का जोर पाठ्यक्रम को पूरा करने पर रहता है तो सरकारी स्कूलों में से ज्यादातर की स्थिति एक रूटीन कार्य को निबटाने जैसी है।

बहरहाल कोरोना संकट में दोनों ही तरह से बच्चों को वेबिनार के जरिये लगातार ज्ञान की घुट्टी पिलाई जा रही है। चूंकि कोरोना जैसा संकट पहली बार आया है, लिहाजा वेब के जरिये पहली बार बच्चों को ज्ञानवान बनाने की कोशिश हो रही है। इसलिए इसका कैसा नतीजा रहेगा, यह तो बाद में पता चलेगा। लेकिन इस पर सवाल उठने लगे हैं। चूंकि पूरी दुनिया में कोरोना के लिए जिम्मेदार विषाणु काबू में आता नजर नहीं दिख रहा है, लिहाजा यह माना जा रहा है कि कम से कम वर्तमान सत्र के दौरान वेब के जरिये ही बच्चों को शिक्षा दी जाए। वैसे अभिभावक भी डरे हुए हैं, लिहाजा वे स्कूलों से बचना चाहते हैं। सोशल मीडिया पर एक अभियान भी चल रहा है, जिसमें कहा जा रहा है कि एक साल बच्चे स्कूल नहीं जाएंगे तो बहुत नुकसान नहीं होगा। इसके बावजूद एक बड़ा तबका ऐसा भी है, जो चाहता है कि बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई चलती रहे।

कोरोना ने भले ही लोगों को प्रकृति की ताकत का अहसास कराया है, लेकिन करीब तीन दशकों से जारी नई आर्थिक से बनी सोच इतनी जल्दी नहीं बदलने वाली है। आर्थिक और भौतिक आधार पर जिंदगी के मूल्यों का हिसाब लगाने वाली सोच को यह शायद ही स्वीकार्य हो कि बच्चों का कोरोना के चलते एक साल बरबाद हो जाए। यही सोच निजी स्कूलों के लिए कोरोना संकट के दौर का अवसर बनकर सामने आई है। निजी तंत्र की इस सोच की वजह से सरकारी शिक्षा तंत्र भी अपनी जिम्मेदारी को येन-केन प्रकारेण निबटाने के दबाव में है। लेकिन शिक्षा के इस स्वरूप पर देश के जाने- माने वैज्ञानिक और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन इंटरनेट के जरिये दी जा रही शिक्षा के विरोध में सामने आ गए हैं। चूंकि कस्तूरीरंगन राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 की प्रारूप समिति के अध्यक्ष भी हैं, लिहाजा उनकी बात को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। उनका मानना है कि पढ़ाई के लिए बच्चों का शारीरिक और मानसिक संपर्क बहुत जरूरी है। चंचलता, रचनात्मकता और कई अन्य चीजें कभी भी ऑनलाइन कक्षाओं से बच्चों में नहीं आ सकती हैं।

कस्तूरीरंगन का तर्क है कि आठ साल की उम्र तक मस्तिष्क का विकास लगातार होता रहा है और अगर बातचीत के जरिये लगातार बच्चों के मस्तिष्क को उभारने का कार्य नहीं किया तो प्रत्यक्ष रूप से आप उनकी सर्वश्रेष्ठ दिमागी शक्ति और प्रस्तुति से वंचित रह सकते हैं। पूरी दुनिया के शिक्षा शास्त्री इसे लेकर एक मत रहे हैं कि बच्चों के विकास में अध्यापकों से सतत संपर्क और कक्षाओं के साथ ही कक्षाओं से बाहर की गतिविधियां ज्यादा सहयोगी रही हैं।

भारतीय शिक्षा दर्शन में अध्यापक को गोविंद से भी बड़ा बताने की जो अवधारणा है, उसके पीछे भी अध्यापक से प्रत्यक्ष संपर्क और मूल्य ग्रहण करने का भाव रहा है। शांतिनिकेतन में विश्वभारती की स्थापना के पीछे भी गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की सोच भी यही थी। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान के प्रख्यात पत्रकार रामानंद चटर्जी जब विश्वभारती में दाखिल अपने बच्चे की शिक्षा जांचने पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर अचरज से भर गए थे, क्योंकि बच्चे तब पेड़ों पर झूल रहे थे। चटर्जी ने जब इसका जिक्र किया तो गुरुदेव ने कहा कि मुझे अफसोस है कि मैं पेड़ों पर नहीं चढ़ सकता। ये बच्चे ज्यादा खुशनसीब हैं। आज भले ही कोई अभिभावक स्कूल में अपने बच्चों को गुरुदेव की तरह पेड़ों पर चढ़ने को स्वीकार ना करे, लेकिन उसे यह मानना पड़ेगा कि बच्चे अपने अध्यापक और परिवेश से सीधे संपर्क के जरिये जितना सीखते हैं, वैसा वह एकांतमुखी होकर नहीं सीख सकते। भारत रत्न से सम्मानित वैज्ञानिक सीएन राव भी ऐसी ही सोच रखते हैं। उन्होंने भी कहा है कि वे ऑनलाइन शिक्षा को लेकर उत्साहित नहीं हैं।

ऐसे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सामने चुनौती है कि वह कोरोना संकट के दौर में बिना वजह की ऑनलाइन स्कूली शिक्षा को नियंत्रित करे या फिर उसे संतुलित करने के लिए ना सिर्फ मानक दिशा-निर्देश बनाए, बल्कि उसे कड़ाई से लागू करने के लिए तैयारी भी करे। वैसे भी ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों और बच्चों की दूसरी चुनौती है। वहां न तो शहरों जैसा इंटरनेट है और ना ही एंड्रॉयड फोन सबके पास है। इसलिए वहां तो ऑनलाइन शिक्षा की बात सोचना भी बेमानी है। अंग्रेजी शिक्षा के प्रति बढ़ते मोह और सरकारी शिक्षा की बदहाली के चलते दड़बों में जो कथित अंग्रेजी माध्यम स्कूल चल रहे हैं, वहां बच्चों को कोरोना काल में भेजना भी नई चुनौतियों को न्योता देना है। वैसे सुदूरवर्ती क्षेत्रों के भी अभिभावक शायद ही शिक्षा सत्र को शून्य बनाने की बात स्वीकार करें। ऐसे में मानव संसाधन मंत्रालय को बीच की राह निकालनी ही होगी।

वरिष्ठ पत्रकार