सुनील आंबेकर। भारत का विभाजन वर्ष 1947 में हुआ और वह भी धर्म के नाम पर। मुस्लिम पूजा पद्धति मानने वालों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान बना। भारत ने यहां बसे सभी मुस्लिमों को भी समान नागरिक के रूप में भारत में शामिल करने की घोषणा की और आज तक उसका पालन हो रहा है, और बाद में भी होता रहेगा। परंतु पाकिस्तान (पूर्व व पश्चिम) और बाद में बांग्लादेश ने उसका कभी भी पालन नहीं किया। इसके विपरीत हिंदू , सिख, जैन, बौद्ध, पारसी तथा ईसाई एवं सभी गैर मुस्लिम मतावलंबियों पर अत्याचार किए। नतीजन इन देशों में इन लोगों की आबादी कम होती चली गई। कई लोग दयनीय परिस्थितियों में सतत पलायन करते रहे।

परंतु करीब 72 वर्षो तक उन्हें कोई ठोस सहायता नहीं दी गई, क्योंकि भारत में तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यक मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति हिंदुओं की उपेक्षा का पर्याय बनती चली गई। विस्तारवाद के षड्यंत्रों के तहत लाखों की संख्या में मुस्लिम घुसपैठियों का बांग्लादेश से भारत में अवैध प्रवेश चलता रहा। कई धर्मनिरपेक्ष दल इन्हें अपना पक्का मतदाता बनाकर सत्ता में पहुंचने की राजनीति में जुट गए। असम में तो गैर असमी लोगों की एआइयूडीएफ (ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट) जैसे राजनीतिक दल का भी गठन किया गया जिसने अनेक विधानसभा क्षेत्रों में अपना दबदबा बना लिया। यह असम का हर व्यक्ति जानता है कि शरणार्थी हिंदू इस तरह असम की पहचान एवं राजनीति में खतरा नहीं बने।

शंकरदेव के जन्म स्थान और माजुली जैसे क्षेत्र असम की पहचान के मुख्य केंद्र बने हैं, पर घुसपैठियों ने कैसे कब्जा जमाया है इसे लोग जानते हैं। कई संगठनों ने असम के लोगों के घुसपैठ विरोधी आंदोलन को हमेशा अपने हित में शरणार्थी विरोधी आंदोलन बनाकर असम के हितों की उपेक्षा की है। उल्फा जैसे संगठन तो असम के हित का चेहरा लेकर बांग्लादेश में अपना केंद्र बनाकर, घुसपैठियों की वकालत करते हुए भटक गए। असम के लोगों ने बड़ी उम्मीद के साथ असम गण परिषद को सत्ता सौंपी, परंतु वह बुरी तरह निराशा लेकर आए।

कांग्रेस ने तो अपनी तात्कालिक स्वार्थो की राजनीति के चलते हमेशा सेकुलर के नाम पर अल्पसंख्यक तुष्टी की, तथा हिंदू हित की उपेक्षा की। इतने वर्षो में कांग्रेस ने असम में घुसपैठियों को रोकने की कोई समुचित कार्रवाई नहीं की। शरणार्थियों की कोई उचित व्यवस्था पिछले 70 वर्षो में नहीं की। यही कारण है कि जहां एक तरफ आज असम में बड़ी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठियों ने ‘असमी पहचान’ पर संकट खड़ा कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ बड़ी संख्या में वर्षो से बसे शरणार्थियों की जिम्मेदारी असम पर आई है। इन समस्याओं के समाधान का रास्ता उत्तेजना में या भावनाओं में नहीं, अपितु शांतिपूर्वक विचार विमर्श से निकलेगा।

असमी भाषा, गमछा, शंकरदेव, बीहू आदि के बिना भारत की संस्कृति अधूरी है तथा इसकी रक्षा भारतीय संस्कृति की रक्षा है। इस बीच शरणार्थियों की रक्षा की जिम्मेदारी बढ़ी है। इन विषयों पर विद्यार्थी परिषद असम आंदोलन के समय से ही सक्रिय है। इसी संदर्भ में दो अक्टूबर 1983 को विद्यार्थी परिषद ने ‘असम आंदोलन’ के समर्थन में राष्ट्रीय स्तर का प्रदर्शन गुवाहाटी में किया था तथा देश भर में जनजागरण के जरिये यह विमर्श खड़ा किया था कि यह समस्या केवल असम की नहीं, अपितु समूचे देश की है।

दरअसल वर्ष 1947 से ही जिन्ना समेत कई नेताओं की नजर असम पर थी। घुसपैठियों को घुसाने का प्रयास भी निरंतर चलता रहा। आज जब वर्तमान सरकार असम समेत पूरे देश में शरणार्थियों को नागरिकता देकर कर्तव्यपूर्ति कर रही है, तथा एनआरसी को लागू करते हुए घुसपैठियों पर निर्णायक कार्रवाई की योजना बन रही है, तब इस विरोध के कारणों को समझना जरूरी है। इन दोनों में फर्क न करने से हम आखिरकार घुसपैठियों का संरक्षण करेंगे तथा विभाजनकारी एवं कट्टरपंथी अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम विस्तारवाद को आमंत्रण देंगे।

(लेखक एबीवीपी के पूर्व राष्ट्रीय संगठन मंत्री हैं)

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