[अभिषेक कुमार सिंह]। किसी देश में सेहत और बीमारी का संबंध सिर्फ इलाज की सहूलियतों और आबादी की तुलना में उपलब्ध अस्पतालों और डॉक्टरों की संख्या से ही हो-ऐसा जरूरी नहीं है। लोगों को कई रोग इसलिए भी घेरते हैं, क्योंकि उनकी दिनचर्या सेहत से जुड़े कायदों के मुताबिक नहीं होती और लोग ऐसा रूटीन अपनाते हैं, जिससे उनके बीमार पड़ने की आशंका कई गुना बढ़ जाती है।

ऐसे कई अध्ययन और सर्वेक्षण हुए हैं जो बताते हैं कि हमारे देश में साधन-संपन्नता बढ़ने के साथसाथ लोग अपनी दिनचर्या और स्वास्थ्य को लेकर ज्यादा लापरवाह हुए हैं। ऐसा ही एक अध्ययन हाल में आया है, जिसमें दावा किया गया है कि हम भारतीय काम करने के मामले में भले ही सबसे आगे हों, लेकिन फिटनेस और सक्रियता के मामले में दूसरे कई देशों के नागरिकों से काफी पीछे हैं।

कम हो रहा पैदल चलना

अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और सिंगापुर सहित 18 देशों के लोगों के डाटा के आधार पर फिटबिट ने जो रिपोर्ट तैयार की है, उसके मुताबिक भारत के लोग नींद लेने के मामले में तो अन्य मुल्कों से पीछे हैं ही, साथ में वे कम फुर्तीले भी होते हैं। रिपोर्ट बताती है कि भारतीय रोजाना औसतन 6 हजार 553 कदम ही चलते हैं, जो इस अध्ययन में शामिल बाकी सभी देशों के लोगों की तुलना में सबसे कम है। उल्लेखनीय है कि दो साल पहले वर्ष 2017 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने एक वृहद अध्ययन के बाद बताया था कि भारत में 61 फीसद गैर-संक्रामक मौतों के पीछे लोगों की निष्क्रिय दिनचर्या है।

असल में दुनिया के 19 लाख लोगों की रोजाना की शारीरिक सक्रियता का अध्ययन करके पेश की गई उस रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अंदाजा लगाया था कि इस वक्त दुनिया में करीब 140 करोड़ लोगों की शारीरिक सक्रियता काफी कम है, लेकिन जब यह रिपोर्ट बताती है कि भारत के 24.7 प्रतिशत पुरुषों और 43.3 फीसद महिलाओं को अपने हाथ-पांव हिलाने में ज्यादा यकीन नहीं है तो हैरानी होती है। खेतीप्रधान और मेहनतकश लोगों के मुल्क के रूप में पहचान बना चुके भारत में इस तब्दीली का दिखना चिंताजनक तो है, इससे हमारी लुंजपुंज होती जीवनशैली और कामचोरी की प्रवृत्ति भी झलकती है जो घरों से लेकर दफ्तरों तक में बेहद आम हो चली है।

फिट इंडिया अभियान की नसीहत

गौरतलब है कि इस वर्ष अगस्त में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिट इंडिया अभियान को आंदोलन बनाने की नसीहत दी थी तो उस समय भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन की याद आई थी। खेल दिवस के अवसर पर फिट इंडिया अभियान की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री ने यह संकल्प जताया कि नए भारत में सरकार का लक्ष्य हर नागिरक को फिट बनाना है। जीवनशैली पर सवाल उठाते हुए उन्होंने इस बात पर हैरानी जताई थी कि हमारे देश में मधुमेह और तनाव जैसी बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। यहां तक कि 12-15 साल तक के बच्चे मधुमेह के शिकार हो रहे हैं। इसी तरह अब 35-40 साल के युवाओं को हार्ट अटैक आ रहा है। प्रधानमंत्री के वक्तव्य को इस तथ्य की रोशनी में देखा गया था कि हमारे देश में समय के साथ पैदल चलना कम हो गया है, लेकिन पड़ोसी देश चीन ‘हेल्दी चाइना 2030’ के लिए मिशन मोड में काम कर रहा है। इसी तरह ऑस्ट्रेलिया ने 2030 तक अपने नागरिकों को व्यायाम में सक्रिय करने का लक्ष्य रखा है। ब्रिटेन में 2020 तक पांच लाख नए लोगों को व्यायाम से जुड़ने का लक्ष्य रखा गया है, जबकि अमेरिका 2021 तक करीब 1000 शहरों को फ्री फिटनेस अभियान से जोड़ेगा।

भारतीय हैं सबसे ज्याद सुस्त

एक स्वस्थ दिनचर्या में पैदल चलने का सबसे ज्यादा महत्व है और अफसोस यह है कि हमारे नागरिक इस मामले में फिसड्डी साबित हो रहे हैं। इसकी एक मिसाल 2017 में भी तब मिली थी, जब स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दुनिया के 46 देशों के करीब सात लाख लोगों की कदमताल पर नजर रखकर एक निष्कर्ष निकाला था। उस निष्कर्ष में भी भारतीय सबसे ज्यादा सुस्त लोगों की कतार में पाए गए थे।

सर्वेक्षण के मुताबिक उस दौरान एक औसत भारतीय दिन में सिर्फ 4297 कदम पैदल चल रहा था। तब कदमताल के आधार पर बनाई गई उस सूची में भारत 39वें पायदान (46 देशों में) था। उस दौरान भारतीयों के मुकाबले चीन और हांगकांग के नागरिक ज्यादा सक्रिय पाए गए थे, क्योंकि उन्होंने 6880 कदम पैदल चलने का औसत निकाला था। वैसे प्रतिदिन पैदल चलने का वैश्विक औसत 4961 कदम था। अमेरिकियों का औसत इसमें 4774 था। सर्वेक्षण से मिले आंकड़ों के मुताबिक भारत में पुरुषों के मुकाबले महिलाएं और भी कम पैदल चलती हैं। इस कारण भी उनमें मोटापे की समस्या गहरा रही है, क्योंकि उनका ज्यादातर घरेलू कामकाज या तो मशीनों के हवाले हो गया है या फिर कामवाली के हाथों में चला गया है।

सेहत खराब कर रही आलसी प्रवृत्ति

जाहिर है भारतीयों को आलसी ठहराने वाली रिपोर्ट हमारे लिए एक चेतावनी हैं। यह सुस्ती हमारी पूरी जीवनशैली और कार्य संस्कृति में समाई हुई है। इसलिए ऐसे अध्ययनों की गंभीरता को समझते हुए भारतीयों को अपनी दिनचर्या में बदलाव को लेकर तुरंत सतर्क हो जाने की जरूरत है। इस चेतावनी का सबसे अहम पहलू शारीरिक परिश्रम से जुड़ा है, जिसकी भारतीय जीवन में जबर्दस्त अनदेखी हो रही है। हमारे कस्बाई और शहरी जीवन से शारीरिक परिश्रम की जरूरत लगभग खत्म होती जा रही है। इसका प्रमुख कारण हाल के दशकों में देश में हुआ सामाजिक-आर्थिक विकास है। हमारे देश की आर्थिक उन्नति तेज शहरीकरण के रूप में दिखती है जहां आधुनिक सुख-सुविधाओं में काफी बढ़ोतरी हुई है।

एक आम सहूलियत लोगों को यह मिली है कि उनके पास जो पैसा आया, उससे ज्यादातर परिवारों ने अपने लिए कारें खरीदीं। बढ़ते ट्रैफिक जाम और प्रदूषण के पीछे हर साल कारों की संख्या में वृद्धि होना भी है। पहले लोग आसपास के बाजारों तक या तो पैदल जाते थे या खुद की साइकिल का सहारा लेते थे, पर अब तो बाजार खुद लोगों के घरों में आ पहुंचा है। जूते, कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक्स सामानों से लेकर फल-सब्जी तक, ऐसा क्या है जिसे ऑनलाइन नहीं खरीदा जा सकता? ऐसे में कहीं कोई चलने-फिरने का दबाव नहीं, जरूरत नहीं। यह सही है कि मेडिकल साइंस के चलते इंसान की औसत उम्र में इजाफा हो रहा है, लेकिन लोग ऐसी बीमारियों से ग्रस्त रहने लगे हैं जिन्हें जीवनशैली की बीमारियां कहा जाता है।

अमीर देशों के लोग यह समझने लगे हैं कि सेहत कितनी जरूरी है, इसलिए वे शारीरिक श्रम को महत्व देने लगे हैं, लेकिन भारत जैसे देशों में यह बात समझी नहीं जा रही। लिहाजा गरीब और विकासशील देशों में अमीर मुल्कों की तुलना में लोग ज्यादा दिन बीमार रह रहे हैं। दुनिया की एक बड़ी आबादी मेहनत और व्यायाम से कोसों दूर चली गई है, जिसके कारण दिल की बीमारियां का खतरा बढ़ता ही जा रहा है। खास तौर से शहरी जीवन एक मुसीबत ही पैदा कर रहा है।

अपनाएं स्वस्थ जीवनशैली

यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन के प्रो. क्रिस्टॉफर मूर के अनुसार व्यक्ति हों या देश, वे बीमारियों का इलाज यह सोचकर करते हैं कि किसी तरह जान बची रहे, पर हम उन कारकों की ओर नहीं देखते जो बीमारी पैदा करते हैं या हमारे सहज और स्वस्थ जीवन में रुकावट पैदा करते हैं। मुख्य बात यही है कि ये बीमारियां हमारी सुस्ती या आलस की देन हैं। ऐसे में हमारा फोकस इस बात पर होना चाहिए कि हम इनसे बचें और सक्रिय, प्रसन्न और जीवंत बने रहें। वैज्ञानिकों की चेतावनी का साफ इशारा है कि हमें अपनी जीवनशैली बदलनी चाहिए। उसे इस तरह से ढाला जाए कि बीमारियां पास ही नहीं आएं।

[संस्था एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध]

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