अभिषेक। हरियाणा की कैबिनेट ने हाल ही में ऐसे औद्योगिक संस्थानों में 75 प्रतिशत राज्य के युवाओं की ही भर्ती को अनिवार्य करने के अध्यादेश के प्रारूप को मंजूरी दे दी है, जिनमें दस से ज्यादा लोग कार्य करते हैं। हालांकि पचास हजार रुपये प्रतिमाह से अधिक वेतन वाले पदों के लिए यह नियम नहीं लागू होगा। फिर भी इस अध्यादेश पर किसी प्रकार की टिप्पणी करने से पहले जरूरी है कि हम कुछ अवधारणाओं और तथ्यों को जान लें। अर्थशास्त्र की दृष्टि से श्रमिकों का मुक्त तौर पर कहीं भी नौकरी करने और उद्योग को चुनने के मामले में पूर्ण स्वायत्ता उद्योगों की कुशलता और लाभ प्राप्ति के साथ देश के आर्थिक विकास के लिए भी सही माना जाता है। इससे उद्योगों को राष्ट्र के संपूर्ण श्रमबल का सही लाभ मिलता है।

सैद्धांतिक रूप से देश का हर नागरिक देश के किसी भी हिस्से में जा कर कोई भी रोजगार करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो, लेकिन धरातल पर स्थिति कुछ और है। भारत में रोजगार को लेकर बहस नई बात नहीं है। हर हाथ को काम, यह आजादी के बाद से ही राजनीतिक दलों के चुनावी वादों में प्रमुख रहा है, लेकिन दुर्भाग्य से तमाम कोशिशों के बावजूद बेरोजगारी एक गंभीर समस्या बनी रही। विकास में क्षेत्रीय असंतुलन के कारण देश के कई हिस्सों में जनसंख्या के अनुसार रोजगार के अवसर न बन सके और इसके कारण राष्ट्रीय स्तर पर पलायन की समस्या बन गई। रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में मजदूर पिछड़े राज्यों से निकल कर विकसित राज्यों में आए जिससे वहां के उद्योग लाभान्वित हुए, मगर उन राज्यों की आम जनता ने इसे अपने संसाधनों पर अतिक्रमण के तौर पर देखा। इस कारण यह विकसित राज्यों के क्षेत्रीय दलों के लिए एक राजनीतिक मुद्दा बन गया।

हाल के कुछ वर्षों में कई विकसित राज्यों में जब क्षेत्रीय दल सत्ता में आए तो उन्होंने इस पर काम भी किया। पिछले साल जुलाई में आंध्र प्रदेश विधानसभा ने आंध्र प्रदेश एम्प्लॉयमेंट ऑफ लोकल कैंडिडेट इन इंडस्ट्रीज, फैक्ट्रीज विधेयक, 2019 को पास किया जिसके साथ आंध्र प्रदेश राज्य के युवाओं के लिए निजी क्षेत्र की 75 प्रतिशत नौकरियों को आरक्षित करने वाला पहला राज्य बना। कुछ महीने पहले मार्च में महाराष्ट्र के उद्योग मंत्री ने भी विधान परिषद में घोषणा करते हुए कहा था कि राज्य सरकार सारे उद्योगों को नौकरियों में स्थानीय उम्मीदवारों को 80 प्रतिशत तक भर्ती करने के लिए उद्योगों को कह चुकी है और इसके ठीक अनुपालन के लिए विधेयक लाने वाली है।

इसी संदर्भ में हरियाणा सरकार के विधेयक को देखें तो यह दुष्यंत चौटाला के जन नायक जनता पार्टी, जो चुनाव पश्चात सरकार गठन के लिए भारतीय जनता पार्टी के साथ आई, उसका वादा था। इसके राजनीतिक संदर्भ होंगे, कुछ राज्यों के चुनाव में यह मुद्दा बनेगा। हरियाणा में कुछ उद्योगों के लिए जो नई नियुक्ति की सोच रहे थे, यह तात्कालिक तौर पर एक परेशानी बन सकता है। मगर इससे हरियाणा के युवाओं को कितना लाभ होगा यह कहना मुश्किल है, क्योंकि अगर कुछ उद्योग आसपास के राज्यों मसलन पंजाब या उत्तर प्रदेश चले गए तो हरियाणा से रोजगार तो जाएगा ही उलटे उन उद्योगों से आने वाला टैक्स भी जाएगा। लेकिन इन आदेशों को अगर प्रवृत्ति के तौर पर देखा जाए तो ये एक बहुत बड़े प्रश्न के तौर पर सामने आते हैं कि जब सभी राज्य अपने यहां के उद्योगों पर यह दबाव बनाएंगे कि वो उनके ही राज्य के श्रमिकों को नौकरियां दे तो उन पिछड़े राज्यों का क्या होगा जहां अनेक कारणवश उद्योग नहीं लगे या बंद हो गए।

वर्तमान में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, ओडिशा जैसे राज्यों से ही अधिकांश मजदूर पूरे देश में जाते और काम करते हैं। इससे दोनों ही राज्यों को फायदा होता है, विकसित राज्यों को जहां सस्ते मजदूर मिल जाते हैं, वहीं इन पिछड़े राज्यों में उद्योग कम होने के बावजूद बेरोजगारी की दर कम रहती है। वर्तमान औद्योगिक दशा और राज्यों की जनसंख्या के आयु अनुपात को देखें तो यह सिलसिला अगले कुछ दशकों तक बना रहेगा। ऐसे में नौकरियों को स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित करने से एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि आखिर इस पूरे संतुलन का क्या होगा? विकसित राज्यों के नेताओं को समझना होगा कि आरक्षण उनके तात्कालिक राजनीतिक हितों की पूर्ति तो करता है, लेकिन प्रदेश के युवाओं के लिए रोजगार अवसर नहीं बढ़ा सकता है।

वहीं पिछड़े राज्यों के नीति निर्धारकों को भी प्रवासन आधारित रोजगार या अर्थव्यवस्था की जगह अपने राज्यों में उद्योग धंधे विशेष रूप से वो श्रम की अधिकता वाले उद्योग हो ऐसी कोशिश करनी होगी। ऐसा नहीं है कि इन राज्यों में कभी उद्योग धंधे हुए ही नहीं। ऐतिहासिक रूप से देखें तो कानपुर, आगरा, बनारस, भागलपुर, डालमियानगर जैसे शहर उद्योगों के कभी केंद्र हुआ करते थे। इन उद्योगों को इन शहरों में पुनर्जीवित करने के साथ कई नए उद्योगों की स्थापना भी इन राज्यों में हो सकती है। इसके लिए सबसे अधिक मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है, जो इन नियमों को राजनीतिक दृष्टि से न देख कर समय की मांग के तौर पर देखे। इसके अलावा यह मामला असंतुलित क्षेत्रीय विकास से भी जुड़ा है, जिसे संतुलित करने के लिए इन राज्यों को केंद्र सरकार की ओर से पर्याप्त सहयोग भी मिलना चाहिए ताकि यहां के निवासियों को अपने साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव का अहसास न हो।

[शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]