विनय जायसवाल। कोरोना वायरस से उपजी कोविड-19 महामारी ने जिस तरह पूरी दुनिया की आíथक गतिविधियों के साथ मानवीय और सामाजिक गतिविधियों को प्रभावित करने का काम किया है, वह गंभीर चिंता का विषय है, लेकिन यह संकट यह संदेश भी लेकर आया है कि प्रकृति का जरूरत से ज्यादा दोहन कर हम धरती और उस पर आश्रित जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं। कुछ दिन के लॉकडाउन ने सिखा दिया है कि हमें अपनी अनियंत्रित इच्छाओं पर लगाम लगानी होगी, क्योंकि तभी हम साफ आकाश, शुद्ध हवा, स्वच्छ जल, घने और हरे-भरे जंगल और जीव-जंतुओं की दुनिया के बीच रह पाएंगे। अगर ये नहीं बच पाए तो हमारा जीवन भी नामुमकिन होगा। 

हम पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के नाम पर सालों से जो लड़ाई लड़ रहे हैं वह कागजों में रह जाएगी। इस लड़ाई को एक सफलता तब मिली थी जब 2015 में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क के तहत पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते पर 195 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। इसके तहत वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को दो डिग्री सेल्सियस तक नीचे लाने और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए सहमति बनी थी। इसके साथ ही 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में भारी कटौती करने पर सहमति बनी थी। इस संधि के तहत विकसित देशों की ओर से विकासशील देशों की मदद के लिए 100 अरब डॉलर देने की बात हुई थी, लेकिन इस फंड में अभी नाममात्र का पैसा जमा हुआ है।

पेरिस समझौते में 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 56 गीगाटन तक कम करने की बात है। अगर कार्बन उत्सर्जन में कोई कटौती न की जाए तो 2030 तक उत्सर्जन की मात्र करीब 70 गीगाटन तक हो जाएगी। मोरक्को में 2016 में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में निर्णय लिया गया था कि पेरिस समझौते को लागू करने के लिए नियमावली बना ली जाएगी और इसमें पारदर्शिता बरती जाएगी, लेकिन दुनिया के बड़े देशों के स्वार्थ के चलते वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा की लड़ाई लक्ष्य से पीछे-बहुत पीछे चल रही है।

कोरोना संकट के बीच जलवायु परिवर्तन और बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। इस संकट काल में वायु और जल प्रदूषण में वह सुधार देखने को मिला जो पिछले कई दशकों में करोड़ो के प्रोजेक्ट के जरिये भी हासिल नहीं किया जा सका। सबसे बड़ा असर ग्रीन हाउस गैसों की परत के कम होने के रूप में देखा गया, जो ग्लोबल वाìमग का सबसे बड़ा कारण हैं। ग्रीन हाउस गैसों में सबसे खतरनाक है कार्बन डाइऑक्साइड। यह कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के तीन चौथाई के करीब है। इसके अलावा कुल उत्सर्जन का 14 प्रतिशत हिस्सा मीथेन, 8 प्रतिशत नाइट्रस ऑक्साइड और एक प्रतिशत फ्लोरिनेटेड गैसों के रूप में हैं। उद्योगों, खेती और नगरों के विकास के लिए जंगलों की कटाई ने इस समस्या को और बढ़ाया है। जो कार्बन डाइऑक्साइड पेड़-पौधे सोखते थे वह अब वातावरण में घुल रही है।

एक आकलन के अनुसार 1750 की औद्योगिक क्रांति के बाद कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 30 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है। मीथेन का स्तर 140 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है। अन्य ग्रीन हाउस गैसों का भी उत्सर्जन बढ़ रहा है। ये गैसें उस ओजोन परत को नुकसान पहुंचा रही हैं, जिसका काम धरती को नुकसान दायक किरणों से बचाना है। ओजोन परत में क्षरण से हानिकारक अल्ट्रा वॉयलेट सूरज की किरणों जीवमंडल में प्रवेश कर जाती हैं और ग्रीन हाउस गैसों द्वारा उसे सोख लिया जाता है जिससे अंतत: ग्लोबल वाìमग में बढ़ोतरी होती है। जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनिया को गंभीर होना ही होगा, क्योंकि ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं कि बीमारियों का आगमन प्रकृति और मानव के बीच संतुलन बिगड़ने का भी नतीजा है।

विडंबना यह है कि अमेरिका क्योटो-प्रोटोकाल के तहत किए गए वादों को झुठला चुका है और अब पेरिस समझौते से भी लगभग अलग हो गया है। चीन ने 2030 तक अपना कार्बन उत्सर्जन 2005 के प्रति यूनिट जीडीपी उत्सर्जन के मुकाबले 60 से 65 फीसद कम करने का वादा किया है। भारत ने भी इसी समयावधि के दौरान अपने उत्सर्जन में 30-35 फीसद कटौती करने की बात कही है, जबकि भारत की जीडीपी अमेरिका और चीन से काफी कम है। अमेरिका का आरोप है कि पेरिस समझौते के जरिये चीन और भारत को लाभ पहुंचाने की कोशिश की जा रही है और इसका जलवायु परिवर्तन से कोई संबंध नहीं है। अमेरिका ने यह भी दावा किया है कि पेरिस समझौते के अनुपालन से अमेरिकी जीडीपी कम हो जाएगी। 

दुनिया के पहले चार सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देशों में क्रमश: चीन, अमेरिका, भारत और रूस की गिनती की जाती है। जितना कार्बन उत्सर्जन चीन अकेले करता है, उतना अमेरिका, भारत और रूस मिलकर करते हैं। चूंकि अमेरिका भारत का करीब तीन गुना और चीन का करीब आधा कार्बन उत्सर्जन करता है इसलिए अमेरिका का चीन के प्रति कड़े रुख का मतलब तो समझा जा सकता है, लेकिन भारत और रूस के प्रति उसकी तिरछी निगाह आश्चर्य में डालती है।

विकसित देश जलवायु परिवर्तन के खतरे को टालने के बजाय उसे विकासशील, अल्पविकसित और अविकसित देशों की ओर खिसकाना चाहते हैं। विकसित देश न केवल प्रकृति के दोहन को जारी रखना चाहते हैं, बल्कि अपने आर्थिक हितों के लिए पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी से बचे रहना चाहते हैं, पर कोरोना संकट ने उन्हें समझा दिया है कि अनियंत्रित इच्छाओं वाले विकास की सबसे बड़ी कीमत भी उन्हें ही चुकानी पड़ेगी। चूंकि इसका खामियाजा धरती और मानवता को भी भुगतना पड़ेगा इसलिए यह सही समय है कि हम धरती को और उसके जरिये जीवन बचाने में ईमानदारी से जुट जाएं।

(लेखक नेचर फ्रेंड फाउंडेशन से संबद्ध हैं)