[ गिरीश्वर मिश्र ]: यह अत्यंत खेदजनक है कि भारत के कई प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में शिक्षारत भारत की युवा प्रतिभाओं का बहुमूल्य समय ऐसे प्रदर्शनों और गतिविधियों में बीत रहा है जो अनुत्पादक तो हैं ही, विध्वंसक भी साबित हो रही हैं। दिल्ली के विख्यात शिक्षा संस्थान जेएनयू यानी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में करीब तीन महीने तक पढ़ाई-लिखाई का काम लगभग ठप रहने के बाद अब हालात कुछ सामान्य होते दिख रहे हैैं। इन महीनों में जेएनयू के कई भवनों में विरोध के लिए लामबंद हुए छात्रों द्वारा ताला बंद कर शिक्षक और विद्यार्थियों का प्रवेश जबरन रोक दिया गया।

शिक्षा केंद्रों को राजनीतिक प्रयोगशाला बनाना स्वीकार्य नहीं

नामांकन करने गए छात्रों के साथ मारपीट भी की गई और नामांकन बाधित करने के लिए सर्वर कक्ष में तोड़फोड़ की गई। इसके बाद छात्रों के साथ मारपीट की गई। यह मारपीट नकाबधारियों के एक गुट की ओर से की गई जिसमें कई छात्र घायल हुए। चूंकि घायल छात्र दोनों पक्षों के हैैं इसलिए पता नहीं चल पा रहा है कि किसने किसे निशाना बनाया? इस उपद्रव के लिए जो भी जिम्मेदार हो, इस तरह की हिंसक घटनाएं किसी भी शिक्षा प्रेमी के लिए दुखदायी हैैं। इससे अधिक दुखदायी यह है कि राजनीतिक दखल शिक्षाजगत की चुनौतियों को और जटिल बनाता जा रहा है। यह स्थिति उच्च शिक्षा की प्रणाली पर पुनर्विचार की अपेक्षा करती है। शिक्षा केंद्रों को राजनीतिक प्रयोगशाला बनाना किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं है।

जेएनयू का खास तरह का चरित्र

जेएनयू के मामले में यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भौतिक, व्यावहारिक और बौद्धिक दृष्टि से इसका एक खास तरह का चरित्र निर्मित हुआ है। यह उच्च शिक्षा के इतिहास में सरकार द्वारा एक विशेष तरह के सेक्युलर शिक्षा केंद्र के निर्माण, पोषण और विकास का एक अद्भुत नमूना है। अन्य सरकारी विश्वविद्यालयों से अलग जेएनयू में चहारदीवारी के भीतर एक निहायत निजी किस्म की संस्कृति विकसित होती रही, जो आधुनिक भारतीय शिक्षा के इतिहास में किसी संप्रदाय से कम नहीं आंकी जा सकती।

जेएनयू के विशिष्ट विद्वान वर्ग का अपना ब्रांड

जेएनयू के विशिष्ट विद्वान वर्ग का एक अपना ही ब्रांड निर्मित हुआ है। सोच-विचार, भाव-भंगिमा और वेश-भूषा सब पर उसकी अपनी छाप पड़ी। इसी के आलोक में एक स्वीकृत परिपाटी भी चल पड़ी। यह परिपाटी आत्मलीन भी होती गई और अतिरिक्त बौद्धिक विवेक का भ्रम भी पालने लगी। इसकी छाया सब ओर फैल रही थी, भले ही वह अनोखे और एकांगी वैचारिक लेंस से लैस हो। इसका वैचारिक रुझान जग जाहिर है। इसके आख्यानों और मिथकों की शृंखला प्रचारित होती रही। यह सब करने के लिए परिसर में प्रोत्साहन और सुविधाएं भी उदारभाव से उपलब्ध होती रहीं। ये सुविधाएं इस तरह उपलब्ध होती रहीं कि आंतरिक व्यवस्था और अव्यवस्था की रूढ़ियां अनदेखी ही चलती रहीं और उनके चलते रहने के कारण वे प्रामाणिक और उपयुक्त भी ठहराई जाती रहीं।

ज्ञान पाने में उदारता और सहिष्णुता आवश्यक

यहां अनेक बौद्धिक विमर्शों का उदय हुआ। भारत के इतिहास, संस्कृति, प्रजातंत्र और अर्थव्यवस्था सबकी एक विशेष तरह की व्याख्याएं दी गईं, जो सीमित तथ्यों को लेकर चल रही थीं। बौद्धिक जगत में वैचारिक स्थापनाओं में विविधता होना लाजमी होती है। उनका आकलन, विश्लेषण और आलोचना सब कुछ होता है। अकादमिक जगत में यह सब जायज ठहरता है, परंतु समाज और देश भौतिक सत्ता मात्र नहीं होते और न उनका ज्ञान ही शाश्वत होता है। चूंकि आध्यात्मिक ज्ञान को छोड़ दें तो शेष ज्ञान देश और काल के सापेक्ष ही होता है इसलिए ज्ञान के सामान्य क्षेत्र में समग्र को देखने की चेष्टा होनी चाहिए। ज्ञान पाने में उदारता और सहिष्णुता, दोनों ही आवश्यक हैैं।

हम अपनी ही जमीन पर खड़े रहें और खिड़कियां खुली रखें

संविधान में स्वीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी यही कहती है कि संवाद द्वारा पारस्परिक समझ विकसित की जाए। किसी भी तरह का अतिवादी आग्रह संकट की ओर ले जाता है। अधूरे ज्ञान के चलते विचार और ज्ञान की देशज परंपराएं खारिज करने और उनकी अवांछित व्याख्या करना दुर्भाग्यपूर्ण है। गांधी जी का विचार था कि हम अपनी ही जमीन पर खड़े रहें और खिड़कियां खुली रखें ताकि बाहरी हवाएं इस तरह आती-जाती रहें कि हमें उखाड़ न फेंके।

राजनीतिक दलों के वर्चस्व की लड़ाई में जेएनयू को चलने नहीं दिया जा रहा

राजनीतिक दलों के वर्चस्व की लड़ाई में जेएनयू की व्यवस्था को चलने ही नहीं दिया जा रहा है। विपक्ष के कई बडे नेता मुखर उपस्थिति दर्ज कराकर स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीय प्रश्न बनाकर पेश कर रहे हैं। सामान्यत: शिक्षा केंद्रों का राजनीतिक उपयोग अल्पकालिक फायदे पहुंचाता लग सकता है, लेकिन यह ज्ञान अर्जित करने की परंपरा को खंडित करने के लिए पर्याप्त होता है।

( लेखक पूर्व प्रोफेसर एवं पूर्व कुलपति हैैं )