धर्मकीर्ति जोशी। पूरी दुनिया के साथ भारत भी इस वक्त आर्थिक अनिश्चितता से जूझ रहा है। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला आम बजट इसी अनिश्चितता के दौर में पेश हुआ। पांच महीने पहले पेश अंतरिम बजट से लेकर मौजूदा माहौल में अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर हालात बहुत ज्यादा नहीं बदले हैं। इसकी वजह भी स्पष्ट है।हालात इतनी जल्दी नहीं बदलते।

मोदी सरकार ने राजकोषीय लक्ष्यों को किया हासिल
जुलाई 2014 के पूर्ण बजट में मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था में मंदी के बाद भी यूपीए सरकार के अंतरिम बजट के राजकोषीय लक्ष्यों को हासिल किया था। मोदी सरकार अर्थव्यवस्था में सुस्ती के बावजूद 2014 की तरह इस बार भी इस मोर्चे पर कामयाब रही। हालांकि अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने की जरूरत फरवरी में आए अंतरिम बजट की तुलना में अब और ज्यादा बढ़ गई है। वित्त मंत्री के समक्ष प्रश्न यह नहीं था कि क्या वृद्धि को तेजी देने के लिए राजकोषीय अनुशासन से समझौता किया जाए, बल्कि यह था कि वृद्धि में आ रही गिरावट को देखते हुए क्या राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम यानी FRBM Act में जताई गई प्रतिबद्धता के लिहाज से कोई छूट ली जा सकती है या नहीं?

GDP के अनुपात में कर्ज का मिश्रित आंकड़ा 
सरकार ने वित्त वर्ष 2019 में वित्त वर्ष 2020 के लिए राजकोषीय घाटे का जो लक्ष्य तय किया था उसे अंतरिम बजट में 20 आधार अंक बढ़ा दिया। बहरहाल केंद्र और राज्यों का GDP के अनुपात में कर्ज का मिश्रित आंकड़ा भारत के बराबर रेटिंग वाले देशों में काफी ऊंचा है। ऐसे में राजकोषीय घाटे में जरा भी कटौती की कोई गुंजाइश नहीं थी। सरकार ने समझदारी के साथ इस मोह को छोड़ते हुए राजकोषीय अनुशासन के मोर्चे पर अपनी प्रतिबद्धता को और मजबूती से जाहिर किया। इसके तहत चालू वित्त वर्ष के लिए राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को घटाकर GDP का 3.3 प्रतिशत कर दिया जो पहले 3.4 प्रतिशत तय किया था। निवेश, निजी उपभोग और निर्यात में सुस्ती स्पष्ट है।

GDP के अनुपात में घरेलू बचत घटी
इसके चलते वित्त वर्ष 2019 में सकल घरेलू उत्पाद यानी GDP की वृद्धि दर सिकुड़कर 6.8 प्रतिशत रह गई जो वृद्धि का पांच साल में सबसे न्यूनतम स्तर है। GDP के अनुपात में घरेलू बचत घटी है। इससे सरकारी घाटे की भरपाई और निजी निवेश के लिए उपलब्ध बचत कोष का आकार भी घटा है। वहीं कर्ज की सूखी धारा में नई जान डालने के लिए सरकारी बैंकों के हाथ बंधे हुए हैं, क्योंकि वे एनपीए के बढ़ते बोझ से त्रस्त हैं। गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों यानी एनबीएफसी में उनके काफी संसाधन फंसे हुए हैं।

रणनीतिक चुनौतियों की अनदेखी नहीं 
इस लिहाज से मौजूदा मुश्किलों का हल निकालने के लिए बजट में कुछ समाधान निकालने का प्रयास हुआ है जिनसे वृद्धि को रफ्तार दी जा सके। अच्छी बात यह है कि इसके लिए ज्यादा जोखिम नहीं लिया गया और मध्यम अवधि की रणनीतिक चुनौतियों की अनदेखी नहीं की गई। रियल एस्टेट और NBFC को मिलने वाली मदद से कुछ मुश्किलें जरूर हल होंगी। इसी तरह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण से भी कर्ज देने की उनकी क्षमता में सुधार होगा। यदि वृद्धि की रफ्तार सुस्त होती है तब चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे का 3.3 प्रतिशत का लक्ष्य हासिल करना मुश्किल हो जाएगा। सरकार ने कर संग्रह में 9.5 प्रतिशत का मामूली वृद्धि का ही अनुमान व्यक्त किया है जो कि बजट में 12 प्रतिशत की नॉमिनल जीडीपी वृद्धि की दर से कम है। ऐसे में विनिवेश से लेकर सरकारी परिसंपत्तियों को सही तरह से भुनाने की दरकार होगी। ऐसा करते हुए यह भी सुनिश्चित करना होगा कि पूंजीगत व्यय से कोई समझौता न किया जाए।

नीतिगत दरों में 75 आधार अंको की कटौती
बजट में राजकोषीय संयम का पहला संदेश तो भारतीय रिजर्व बैंक के लिए है कि वह मौद्रिक नीति में कुछ नरमी कर सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि राजकोषीय नीति ही मुद्रास्फीति का लक्ष्य निर्धारित करने का निर्णायक आधार होती है। वर्ष 2019 में रिजर्व बैंक ने नीतिगत दरों में अभी तक 75 आधार अंकों की कटौती की है और हम अगली समीक्षा में एक और कटौती की उम्मीद कर सकते हैं। कमतर राजकोषीय घाटा सरकारी बांडों के लिए भी शुभ संकेत हैं जो पिछले कुछ समय से रिजर्व बैंक द्वारा नीतिगत दरों में कटौती, कच्चे तेल की कीमतों में कमी और विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों की नरम नीतियों से दबाव का सामना कर रहे हैं।

दूसरी छमाही से वृद्धि की रफ्तार पकड़ेगी जोर
बजट और मौद्रिक नीति से निजी उपभोग को कुछ सहारा मिलेगा। चालू वित्त वर्ष की दूसरी छमाही से वृद्धि की रफ्तार जोर पकड़ेगी, क्योंकि ब्याज दरों में कटौती तब अपना असर दिखाएगी। न्यूनतम आय समर्थन से किसानों और कर रियायतों से मध्य वर्ग के हाथ में जो पैसा पहुंचेगा उससे उपभोग मांग में इजाफा होगा, क्योंकि इस तबके में उच्च वर्ग की तुलना में मांग को प्रभावित करने की क्षमता कहीं अधिक है। बहरहाल चालू वित्त वर्ष में वृद्धि की चाल कुछ हद तक बजट के नियंत्रण से बाहर है। वास्तव में मानसून और कच्चे तेल की कीमतों का रुख भी इसमें अहम भूमिका निभाएगा।

वृद्धि दर 7.1 प्रतिशत से हो सकती है अधिक
अगर इस बार लगातार चौथे साल मानसून सामान्य के बराबर रहता है और कच्चे तेल की कीमतें मौजूदा दरों के दायरे में रहती हैं तो भारत की वृद्धि दर 7.1 प्रतिशत से अधिक हो सकती है। वहीं अनिश्चित वैश्विक परिदृश्य और अपर्याप्त वर्षा के चलते वृद्धि में गिरावट की आशंका बढ़ सकती है। जून में वर्षा सामान्य से 36 प्रतिशत कम रही, लेकिन फसल उत्पादन के लिए जुलाई-अगस्त की वर्षा और उसका समान वितरण कहीं अधिक मायने रखता है। यदि ऐसा हुआ और खाद्य उत्पादों की कीमतों में कुछ बढ़ोतरी किसानों की जेब में पहुंचती है तब ग्रामीण मांग में सुधार समग्र अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचाएगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारत की वृद्धि में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है जो विनिर्माण में 50 प्रतिशत और सेवा में एक चौथाई हिस्से को प्रभावित करती है।

निवेश के लिए बेहतर माहौल
इसके अलावा कुछ नीतिगत कदम भी निवेशकों के भरोसे को बढ़ा सकते हैं जिससे वृद्धि को सहारा मिलेगा। इसके लिए बजट में बुनियादी ढांचे पर एकदम सही तरह से ध्यान दिया गया है। विनिर्माण में निवेश के लिए बेहतर माहौल बनाने की कोशिश की गई है और इसके लिए आवंटन का दायरा बढ़ाने के बजाय कर प्रोत्साहन के जरिये आकर्षक क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने की कवायद की गई है। इससे विदेशी निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी और वे उत्पादन इकाइयां भी भारत का रुख कर सकती हैं जो अमेरिका-चीन की तनातनी के बाद चीन से बाहर निकलने की जुगत कर रही हैं।

निजी निवेश को पटरी पर लाना बेहद आवश्यक
राजस्व जुटाने के लिए सरकार ने करों पर ज्यादा दांव नहीं लगाया है। वह विनिवेश और अपनी अन्य परिसंपत्तियों पर अधिक भरोसा कर रही है। सरकार को सार्वजनिक-निजी भागीदारी के मॉडल को भी नए सिरे से पेश करने की दरकार है जिसमें दोनों पक्षों के लिए जोखिम साझेदारी संतुलित हो। अर्थव्यवस्था की तेज और सतत वृद्धि के लिए निजी निवेश को पटरी पर लाना बेहद आवश्यक है।

(लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं।)