[ डॉ. विकास सिंह ]: हम एक नए दौर की दहलीज पर हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था नई उड़ान भरने को है। दुनिया की सबसे बड़ी नौजवान आबादी हमारे पास है। विश्व आर्थिक परिदृश्य के हिसाब से हमारी आर्थिकी की दशा उम्मीद से कहीं बेहतर है। उम्मीदों की ऐसी फेहरिश्त के बीच कुछ आशंकाएं भी हैं। फिलहाल हम उस प्रारंभ बिंदु पर हैं जहां से बाजी बनती या बिगड़ती है। इसलिए यह विचारणीय वक्त है। उम्मीदों की इस बुनियाद पर हम तरक्की की बुलंद इमारत तभी खड़ी कर सकते हैं जब स्थिति को समझकर उसके अनुरूप रणनीति बनाएं। तरक्की की यह इमारत उद्यमशीलता की पूंजी के बिना आकार नहीं ले पाएगी। वास्तव में किसी देश की आर्थिक दशा कई मायनों में उद्यमशीलता से ही संचालित और प्रभावित होती है। उद्यमी इस उद्यमशीलता के सारथी होते हैं। वे तरक्की की तस्वीर को और समावेशी बनाते हैं। ऐसे में आवश्यक है कि हम प्रगति के इस उत्प्रेरक बिंदु को समुचित रूप से समझकर उसके लिए उचित परिवेश बनाने का प्रयास करें।

उद्यमशीलता के मोर्चे पर हमें दुनिया के दूसरे देशों की सफलता से सबक लेने होंगे। यह उन बंदिशों से आजाद करती है जो हमें आगे नहीं बढ़ने देतीं। यह हमें अकुशलता के चंगुल से छुड़ाकर उत्पादन में तेजी की ओर ले जाती है। यह भी स्पष्ट है कि यह केवल आर्थिक मुद्दा ही नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि विश्वविद्यालयों से हर साल लाखों की तादाद में निकल रहे अकुशल स्नातक भारत के लिए बड़ी समस्या बन सकते हैं। उनका मकसद कोई हौवा खड़ा करने का नहीं, बल्कि जमीनी हकीकत से परिचय कराना था। असल में इसी आबादी के दम पर हम जिस जननांकीय लाभांश पर इतराते हैं वही आबादी रोजगार के अभाव में अनुत्पादक साबित होकर बोझ भी बन सकती है। नतीजतन यह स्थिति कई सामाजिक समस्याओं को भी आमंत्रित कर सकती है। बेरोजगारी के सताए ऐसे हताश युवा राष्ट्रविरोधी तत्वों के लिए भी आसान रंगरूट बन सकते हैं।

रोजगार के अभाव में युवा अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। प्राथमिक कृषि क्षेत्र की हालत खराब है। सेवा क्षेत्र ने सस्ते श्रम का फायदा उठाकर तेजी से तरक्की की है। देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में आज सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी आधी हो गई है। अब यहां भी ठहराव आ गया है। अब विनिर्माण क्षेत्र से आस लगी है। इससे पहले कि विनिर्माण हमारी नैया पार लगा सके, उससे पहले हमें राह की कई बाधाओं को भी दूर करना होगा। नजरें एक बार फिर सरकार पर ही टिकती हैं। उसके पास भी कोई जादू की छड़ी नहीं है, लेकिन ऐसा भी नहीं की उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं। सरकार को चाहिए कि वह सहायक और प्रेरक दोनों की भूमिका निभाए ताकि निजी क्षेत्र रोजगार सृजन का जिम्मा उठा सके।

वहीं सरकार मूल मुद्दे के स्थाई समाधान के बजाय आंकड़ों की बाजीगरी से अपना मकसद हासिल करने में जुटी है। रोजगार से जुड़े उसके आंकड़े भी मुख्य रूप से स्वरोजगार के ही हैं। इन्हें तैयार करने वाले हमारे नीति निर्माता काफी होशियार हैं। अधिकांश मामलों में स्वरोजगार किसी व्यक्ति का अंतिम विकल्प ही होता है। तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद रोजगार के मोर्चे पर अपेक्षित सुधार नहीं हो रहा है। तमाम उद्यमी अपनी शुरुआत भी मामूली पूंजी से ही करते हैं और बमुश्किल औसतन दो या तीन लोगों को ही रोजगार दे पाते हैं। कई बार उद्यमी मुश्किल के भंवर में भी फंस जाता है। पूंजी डूब जाती है। इसका नुकसान केवल उद्यमी को ही नहीं, बल्कि उधार देने वाले और साथ जुड़े लोगों को भी उठाना पड़ता है। इससे एक समाज के रूप में जोखिम उठाने की हमारी क्षमता और अर्थव्यवस्था की गतिशीलता दोनों प्रभावित होती हैं।

अधिकांश उद्यमियों में कौशल, मेधा और तकनीकी दक्षता की कमी होती है। आधारभूत संरचना का अभाव एक दूसरी बड़ी समस्या है। पूंजी के नाम पर उनके पास मामूली रकम होती है। बाजार से पूंजी जुटाने के विकल्प भी सीमित होते हैं। नौकरशाही के नखरों की बात ही अलग है। नए उद्यमियों की जंग सिर्फ आर्थिक मोर्चे पर ही नहीं होती, उन्हें कई अन्य चुनौतियों से भी जूझना पड़ता है। बाजार में घात लगाकर बैठे शिकारी बड़े उद्यमी मौका मिलते ही उसके उद्यम को निगल जाते हैं। वित्त, कच्चा माल, मशीनरी और खरीद में प्राथमिकता के नाम पर चल रही सरकारी योजनाएं भी उनका सहारा नहीं बन पाती हैं। ये योजनाएं कागजों पर तो दुरुस्त दिखती हैं, लेकिन जमीन पर अमूमन दम तोड़ देती हैं। कौशल विकास योजनाएं जितने खराब ढंग से बनाई गई हैं उनका क्रियान्वयन और बेतरतीब तरीके से हो रहा है।

मुद्रा योजना के तहत सरकार का एक घंटे से भी कम में कर्ज मिलने का दावा भी उतना ठोस नहीं दिखता। कर्ज सीमा पर भी चर्चा होनी चाहिए। जैसे छोटा उद्यमी वित्तीय संस्थाओं का एल-1 ग्र्राहक होता है यानी प्राय: वह पहली बार कर्ज ले रहा है तो उसकी साख शून्य होती है तो कर्ज मिलने में उसकी बारी आखिर में आती है, लेकिन वसूली में सबसे पहले उसी की बारी आती है। पूंजी बाजार के दरवाजे भी उसके लिए बंद होते हैं। इसी तरह ऑर्डर ऑफ कलेक्शन साठ दिनों के भीतर होना चाहिए। इससे ज्यादा की अवधि बाजार में उन्हें पंगु बना देती है। वित्तीय बाजार में कर्ज की निगरानी के लिए कई संस्थाएं हैं, लेकिन कोई संस्था ऐसी नहीं है जो कर्ज की स्वीकृति और कर्ज हासिल करने के बीच की खाई को पाट सके।

उद्यमशीलता को सफल बनाने के लिए यह जरूरी है कि उद्यमियों को लंबी जोखिम भरी यात्रा के लिए सही तरीके से तैयार किया जाए। इसमें सरकार की काफी अहम भूमिका है। सही नीतियों के साथ ही संबंधित संस्थाओं से उद्यमशीलता के लिए अनुकूल माहौल बनाना भी अपेक्षित है। सरकार को चाहिए कि वह कृषि क्षेत्र के जोखिम को कम करने वाली फसल बीमा योजना की ही तरह उद्यमियों के लिए भी एक कारगर बीमा योजना लाए। हालांकि उद्यमशीलता का जोखिम सुरक्षा कवच के मिजाज से मेल नहीं खाता। फिर भी भारत में उद्यमिता तंत्र और संबंधित संस्थाओं में तालमेल आदर्श स्थिति से कोसों दूर है।

इसके साथ ही हमें संसाधनों के व्यय की अपनी रणनीति पर भी पुनर्विचार करना होगा। समय के साथ प्राथमिकताएं तय करनी होंगी। अभी विसंगति यही है कि हम रोजगार पैदा करने वालों की तुलना में रोजगार मांगने वालों पर ज्यादा खर्च कर रहे हैं। यह उचित नहीं। इसके बजाय छोटे उद्यमों को बढ़ावा देना विकास को ज्यादा प्रभावी और समावेशी बनाता है। असल में एक उद्यमी अपने साथ ही तमाम अन्य लोगों के लिए भी छोटे-बड़े पैमाने पर रोजगार की व्यवस्था करता है। वे विकास की धारा में तमाम कड़ियां जोड़कर उसे समावेशी बनाते हैं और बाजार की मांग को पूरा करने के साथ-साथ नए उत्पादों का बाजार भी सृजित करते हैं।

इस पड़ाव पर सरकार की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। उसे उद्यमियों के लिए सफर सुगम बनाना चाहिए। हमें राजनीतिक लोकलुभावनवाद से ऊपर उठकर आर्थिक सुशासन हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा। तभी युवाओं के बुलंद सपनों की नींव पर एक मजबूत भारत खड़ा हो सकेगा।

[ लेखक उद्यम एवं वित्तीय प्रबंधन मामलों के विशेषज्ञ और क्रक्स मैनेजमेंट सर्विसेज के संस्थापक अध्यक्ष हैं ]