[ प्रो. मक्खन लाल ]: यह मेरा सौभाग्य है कि मैं 1967 से ही चुनावों को करीब से देख रहा हूं। पहले आम चुनावों में एक-दूसरे की आलोचनाओं के साथ ही साथ हास-परिहास भी देखने को मिलता था। व्यक्तिगत लांछन और गालियां न देकर पार्टियों की नीतियों, उनके कार्यकलापों आदि पर ज्यादा बहस और चर्चा होती थी। करीब-करीब सभी को इसका ख्याल रहता था कि कहीं कोई ऐसी बात न निकल जाए जो बाद में झूठी साबित हो या किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप मानी जाए। पहली बार व्यक्तिगत स्तर पर और वह भी काफी जोर-शोर से राजीव गांधी पर लांछन लगा। यह बोफोर्स तोप सौदे में दलाली को लेकर था। ये आक्षेप विपक्षी नेता ने नहीं राजीव गांधी के करीबी और उनके मंत्रिमंडल में रक्षा एवं वित्त मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लगाए थे।

चूंकि विश्वनाथ प्रताप सिंह उन दोनों मंत्रालयों से संबंधित थे जिनका लेना-देना बोफोर्स तोप सौदे से था इसलिए इसके चलते जनता को विश्वास करने में आसानी हुई। इसके बाद लांछन लगाने की होड़ ही चल पड़ी। हाल में राफेल सौदे को लेकर उच्चतम न्यायालय में राहुल गांधी की फजीहत सबने देखी। यह फजीहत इसलिए हुई, क्योंकि राहुल ने अपने बड़े झूठ में देश की सबसे बड़ी अदालत को भी शामिल कर लिया था। यह अच्छा हुआ कि उच्चतम न्यायलय ने राहुल से स्पष्टीकरण लेना जरूरी समझा। अगर वह ऐसा नहीं करता तो देश की जनता यही मानती कि जरूर मोदी ने कुछ लेन-देन किया है।

एडोल्फ हिटलर ने अपनी पुस्तक ‘मीन काम्फ’ में लिखा है, छोटे झूठ की तुलना में बड़े झूठ से जनसमुदाय को आसानी से अपना शिकार बनाया जा सकता है। हिटलर इस काम में उस्ताद था। वह झूठ का मास्टर था। उसने कहा था, बड़े झूठ में विश्सनीयता का जोर होता है, क्योंकि जनसमुदाय अपनी भावनाओं की प्रकृति के कारण आसानी से प्रभावित हो जाता है।

स्वाभाविक भोलेपन के कारण लोग बड़े झूठ का शिकार बनने के लिए खुद ही तैयार बैठे होते हैं, क्योकि वे खुद ही अपने जीवन में छोटे-छोटे झूठ बोलते रहते हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर फरेब का सहारा लेने पर शर्मिंदा महसूस करते हैं। उनके दिमाग में कभी नहीं आता कि बडा झूठ गढ़ें और इसीलिए इस पर यकीन नहीं करते कि कोई दूसरा सच को तोड़मरोड़ कर बड़ा झूठ पेश करने की हिमाकत करेगा। यदि कोई उनके झूठ को बेनकाब करने वाले तथ्य दिखाए तो भी वे शक करते हैं।

झूठ बोलने में उस्ताद लोग और झूठ बोलने की कला में साथ देने वाले यह जानते हैं कि झूठ अपने पीछे हमेशा सुबूत छोड़ जाता है और इसी सुबूत से झूठ पकड़ा भी जाता है, लेकिन जनभावनाओं की प्रकृति के चलते वे अपने झूठ के सफल होने को लेकर काफी निश्चिंत होते हैं।

पॉलिटिक्स एंड द इंग्लिश लैंग्वेज के लेखक जॉर्ज ओरवेल का यह कथन गौर करने लायक है कि राजनीतिक भाषा इस तरह गढ़ी जाती है कि झूठ के सत्य होने का आभास कराए और प्रतिष्ठित लोगों को समाप्त कर दे। बड़े झूठ इस कदर अनोखे होते हैं कि वे अक्सर सुनने वाले को अचंभित कर देते हैं। अधिकतर लोग उसे समझ पाने की पर्याप्त क्षमता नहीं रखते। जब झूठ बड़ा हो तो औसत इंसान सोचने पर मजबूर हो जाता है कि कैसे कोई इतना खुलकर इस तरह की बात कहने का साहस कर सकता हैं? ऐसी स्थिति में आम लोग अजीब स्थिति के शिकार हो जाते हैैं। वे मान लेते हैैं कि जो व्यक्ति यह बात कह रहा है वह या तो ढोंगी-पागल होगा अथवा जरूर सच बोल रहा होगा।

सोचिए जरा, यदि आप किसी कारणवश उसकी अवज्ञा करने अथवा यह स्वीकार करने की बात मन में लाना सही नहीं समझते कि वह इंसान निरा झूठा या ढोंगी है तो क्या होगा? यह स्वीकार करने के कारण कुछ भी हो सकते हैं, जैसे उसके प्रति आदर भाव, उसका करिश्मा अथवा उसके प्रति प्रतिबद्धता। ऐसी स्थिति में लोगों के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह जो कह रहा है उसे सच मान लिया जाए, भले ही उसकी बात अविश्वसनीय लग रही हो। बड़े झूठ उन सवालों को शांत करने की कोशिश करते हैं, जो हमारे विवेक के कारण उत्पन्न होते हैं। यह कुछ वैसे ही होता है, जैसे किलोभर का वजन मापने के लिए बनाए गए तराजू पर टन भर सामान रख दिया जाए। जब ऐसा किया जाएगा तो तराजू सही वजन दिखाना बंद कर देगा और संभव है कि उसमें वजन की जगह शून्य दिखे। हिटलर ने सही कहा था कि छोटे झूठ की तुलना में बड़े झूठ पर अधिक विश्वास किया जाता है।

अब एक और बड़े झूठ पर नजर डालिए। 28 फरवरी 2002 को गुजरात में दंगे भड़क उठे। कहा जाता है कि एक हजार से ज्यादा मुसलामानों की हत्या हुई। हत्या चाहे हिंदू की हो या मुसलमान की, वह एक जघन्य अपराध है। इन दंगों के लिए पिछले 17 वर्षों से मोदी को जिम्मेदार माना जा रहा है। उन पर तरह-तरह के आक्षेप लगाए गए और यहां तक कि उन्हें मौत का सौदागर भी कहा गया। एक बड़े वर्ग ने कसम सी खा ली कि वह तथ्यों से कोई सरोकार नहीं रखेगा। इस वर्ग ने यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर दंगा हुआ क्यों? गोधरा, साबरमती एक्सप्रेस, कारसेवक आदि सब नेपथ्य में चले गए। रह गए तो मोदी और दंगे के शिकार हुए मुसलमान। ऐसा बताने की कोशिश की गई जैसे गुजरात में पहली बार दंगा हुआ।

एक झटके से सौ वर्षों के दंगों का इतिहास भुला दिया गया। यहां तक की 1969 के उन भीषण दंगों को भी जिसमें लगभग पांच हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। यह दंगा कांग्रेस के शासनकाल में हुआ था। इस प्रपंच के बीच गुजरात दंगों पर सर्वदलीय संसदीय समिति की रपट कूड़ेदान में चली गई। इस सर्वदलीय समिति का गठन मनमोहन सरकार ने किया था।

समिति के मुताबिक गुजरात में मार्च 2002 के दंगों में 790 मुसलमान और 240 हिंदू मारे गए थे। इसके अलावा 100 से ज्यादा लोग पुलिस की गोली से और करीब 60 लोग रेल की बोगी में जलने से मरे थे। दंगे शुरू होने के 48 घंटे में ही सेना बुला ली गई थी, लेकिन यह सब बताने की फुरसत किसी के पास नहीं। हिटलर को कोई पसंद नहीं करता-मैैं भी नहीं करता, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि उसने झूठ की ताकत बताई थी और यह भी कि कैसे लाखों लोगों को मूर्ख बनाया जा सकता है।

( लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट, दिल्ली के संस्थापक हैं )

लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप