[ बलबीर पुंज ]: हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जम्मू-कश्मीर और पश्चिम बंगाल दौरे से ‘नागरिकता संशोधन विधेयक’ फिर से सार्वजनिक विमर्श में है। लोकसभा से पारित होने के बाद यह राज्यसभा में लंबित है जहां विरोधी दलों के साथ सरकार के कुछ सहयोगियों ने भी मोर्चा खोल दिया है। इसके विरोध में असम और पूर्वोत्तर के कुछ हिस्सों में कई संगठन प्रदर्शन भी कर रहे हैं। इस प्रस्तावित कानून का उद्देश्य बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से मजहबी अत्याचार के कारण 31 दिसंबर 2014 तक भारत में आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को कुछ शर्तों के साथ नागरिकता प्रदान करना है।

जम्मू के विजयपुर में तीन फरवरी को एक रैली में पीएम मोदी ने जो कहा है, वह काफी महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार, ‘मां भारती की कई संतानों ने पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में अत्याचारों का सामना किया है। हम उन लोगों के साथ खड़े रहेंगे, जो एक समय भारत का हिस्सा थे, किंतु 1947 में विभाजन के कारण हमसे अलग हो गए थे। जब कांग्रेस सत्ता में थी तो उसने हमारे भाइयों और बहनों की पीड़ा पर ध्यान नहीं दिया। हम प्रतिबद्धता के साथ नागरिकता संशोधन विधेयक लाए हैं। यदि धर्म के आधार पर उनके साथ भेदभाव हुआ है तो देश उनके साथ खड़ा रहेगा।’ इससे पहले पश्चिम बंगाल की ठाकुरनगर रैली में भी उन्होंने ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे।

अपने भाषणों में जिस विभीषिका का उल्लेख पीएम मोदी ने किया है आखिर उसे संचालित करने वाला दर्शन कौनसा है? क्या यह सत्य नहीं कि उसी चिंतन ने भारतीय उपमहाद्वीप में पहले मुस्लिम अलगाववाद की नींव डाली, जिस पर बाद में हजारों-लाखों निरपराधों के शवों पर विभाजन किया गया और आज भी इसका प्रयास किया जा रहा है? 19वीं शताब्दी के अंत में मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग जिस विकृत ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ से स्वयं को जोड़े हुए था-उसे आवश्यक खुराक ‘काफिर-कुफ’ की उसी अवधारणा से मिल रही थी, जिसमें इस्लाम के जन्म से पहले की सभ्यता, संस्कृति और गैर-मुस्लिमों के प्रति घृणा का भाव था।

जब 1947 में मजहब के नाम पर विभाजन के बाद वैश्विक मानचित्र पर इस्लामी राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान उभरा तब भारतीय उपमहाद्वीप को मजहबी संकट से मुक्त हो जाना चाहिए था, परंतु क्या ऐसा हुआ? फिलहाल भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में विश्व के 22 फीसद से अधिक लगभग 170 करोड़ लोग बसे हैं जिनमें हिंदुओं (सिख, जैन और बौद्ध सहित) की आबादी 105 करोड़ है तो मुस्लिमों की 55 करोड़। स्वतंत्रता के समय यहां हिंदुओं की आबादी 73.5 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2018 में 60 प्रतिशत रह गई है। स्वतंत्रता के समय ऐसे अनुपात के अनुसार फिलहाल हिंदुओं की संख्या 125 करोड़ होनी चाहिए थी, लेकिन यह 105 करोड़ है। शेष 20 करोड़ हिंदू कहां गए? आज जो दल नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध कर रहे हैैं, क्या वे इसका उत्तर दे पाएंगे?

विभाजन के समय शेष भारत में जहां हिंदू (सिख, जैन और बौद्ध सहित) 88 प्रतिशत थे, वहीं पाकिस्तान में यह संख्या 24 प्रतिशत और बांग्लादेश में 28 प्रतिशत थी। किंतु आज जहां पाकिस्तान में हिंदू-सिख 1.5 प्रतिशत रह गए हैं, वहीं बांग्लादेश में यह आंकड़ा आठ प्रतिशत है। इसका कारण मजहबी कट्टरता, मतांतरण, हत्या और सामाजिक शोषण है। 1970 के दशक में अफगानिस्तान में हिंदुओं और सिखों की संख्या लगभग ढाई लाख थी, जो 1990 में मजहब प्रेरित गृहयुद्ध के बाद निरंतर घटते हुए अब महज कुछ हजार ही रह गए हैं। त्रासदी देखिए कि जिस भूभाग में सिंधु-सरस्वती नदी के तट पर वैदिक साहित्य की रचना हुई थी, वहां उस मूल संस्कृति का नाम लेने वाले सम्मान के साथ जीवन जीने के मौलिक अधिकार से वंचित हैं।

पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से मजहबी अत्याचार झेलने के बाद जो गैर-मुस्लिम शरणार्थी भारत आए, आज उनकी संख्या लाखों में है। इस पृष्ठभूमि में नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करने वाले, विशेषकर मोदी विरोधी राजनीतिक दलों का मुख्य आरोप है कि यह संविधान के खिलाफ है और भाजपा इसके माध्यम से क्षेत्र का जनसांख्यिकी अनुपात प्रभावित कर स्थानीय संस्कृति और परंपरा को नष्ट करना चाहती है।

यदि इस आक्षेप को आधार बनाया जाए तो वे सभी उन राज्यों के बारे में क्या कहेंगे जहां अवैध घुसपैठ और बलात मतांतरण के कारण जनसांख्यिकीय अनुपात में व्यापक अंतर आ चुका है। असम की वर्तमान 3.12 करोड़ आबादी में से 1.91 करोड़ (61.4 प्रतिशत) हिंदू तो मुस्लिम 1.07 करोड़ (34.2 प्रतिशत) हैं। 1971 से 1991 के बीच यहां मुस्लिम जनसंख्या में 77 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और उसके बाद प्रत्येक दशक में उनकी आबादी में 29 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, जबकि 1991 से यहां हिंदुओं की वृद्धि दर निरंतर घट रही है।

वर्ष 1951 में पश्चिम बंगाल की कुल जनसंख्या 2.63 करोड़ थी जिसमें मुसलमानों की आबादी पचास लाख से कम थी, जो 2011 की जनगणना में पांच गुना से अधिक बढ़ गई। आज पश्चिम बंगाल की कुल जनसंख्या 9.5 करोड़ में से 2.5 करोड़ से अधिक मुसलमान हैं-यानी कुल आबादी का 27 प्रतिशत। कई इलाकों में मुस्लिम आबादी 50 से 70 प्रतिशत तक पहुंच गई है। इसी तरह वर्ष 2001 में अरुणाचल प्रदेश में हिंदू 34.6 प्रतिशत थे जो 2011 में घटकर 29 प्रतिशत रह गए। 1971 में इस प्रदेश की कुल जनसंख्या 4.68 लाख में ईसाई एक प्रतिशत भी नहीं थे, किंतु 2011 में वह 30 प्रतिशत से अधिक हो गए। यहां बौद्ध अनुयायियों की संख्या भी 2001 में 13 प्रतिशत से घटकर 2011 में 11.7 प्रतिशत हो गई है। स्वतंत्रता से पूर्व नगालैंड कभी ईसाई बहुल नहीं रहा। 1941 में नगालैंड की कुल जनसंख्या में जहां ईसाइयों की आबादी लगभग शून्य थी, वह स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1951 में एकाएक 46 प्रतिशत और 2011 में 88 प्रतिशत हो गई। जनगणना के अनुसार नगालैंड की कुल आबादी 19.8 लाख में 17.1 लाख अनुसूचित जनजाति से संबंधित हैं जिसमें 16.8 लाख लोग यानी 98.2 प्रतिशत ईसाई मतावलंबी हैैं।

कालांतर में पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए लाखों गैर-मुस्लिम शरणार्थी, नागरिकता संशोधन बिल के राज्यसभा से पारित होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इनमें से अधिकांश मजहबी उत्पीड़न और इस्लामी कट्टरता के कारण पिछले कई दशकों से भारत में शरण लिए हुए हैं। ऐसे में विधेयक का सियासी विरोध अफसोसजनक है, क्योंकि ऐतिहासिक रूप से सभी हिंदू, सिख, जैन, बौद्धों आदि का प्राकृतिक घर वही भारत है जिसका विभाजन कर दिया गया था। आज जो स्वघोषित सेक्युलरिस्ट या स्वयंभू उदारवादी, विधेयक का विरोध कर रहे हैं और विदेशी मूल के रोहिंग्या मुस्लिमों को भारत में शरण देने के लिए आंदोलन करते हैैं, उससे स्पष्ट होता है कि विभाजन के 72 वर्ष बाद भी भारत, पाकिस्तान को जन्म देने वाली जहरीली मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है। कश्मीर सहित देश के कुछ अन्य हिस्से, इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

( लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )