[ साकेत सूर्येश ]: मेरा मानना है कि भयभीत लोगों का साहस और बेमौका बोल पड़ने का शौक साहित्य, विशेषकर व्यंग्य को जन्म देता है। आत्मा के भीतर की कुलबुलाहट जब मध्यमवर्गीय भीरूता के संपर्क में आती है तो व्यक्ति व्यंग्य लिखने लगता है। इसका आनंद यह होता है कि लेखक मन ही मन अपने पराक्रम पर मुग्ध हो लेता है और किसी को पता भी नहीं चलता कि तीर चला किधर और लगा कहां?

हिंदी के व्यंग्य लेखक प्राय: अधिक साहसी होते हैं। इधर कुछ समय से अंग्रेजी लेखक भी साहसी होने का दावा पेश करते रहे हैं। प्रेमचंद के फटे जूतों पर दावा ठोकते हुए वे प्रतिष्ठित और साधन-संपन्न साहित्य सम्मेलनों के मंच से सरकार को कोसते हैं और मजरूह की मासूमियत ओढ़कर तंत्र के दमन की शिकायत करते हुए फर्राटे से अपनी फेरारी मे निकल जाते हैं। जब ये सरकार को कोसते हैं तो उनका साहस देखकर किसी भी नए लेखक का अचंभित होना और पथभ्रमित हो जाना संभव है, किंतु निकट से विश्लेषण पर हम पाते हैं कि ये सरकार का विरोध करते हैं, सत्ता का नहीं। वर्तमान में सत्ता और सरकार का अर्थ भिन्न है।

इस सारी गोल-मोल कथा का अभिप्राय यह है कि अंग्रेजी लेखक, जो अक्सर पत्रकार भी होता है, जो मंत्रिमंडल नियुक्तियों का अधिकार खोकर पुन: सत्ता और सरकार के एकीकरण को प्रयासरत रहता है, भले ही छद्म शौर्य पर तालियां जमा कर ले, महिमामंडित हो ले, साहस का फुल कोटा और अधिकार केवल और केवल हिंदी व्यंग्य लेखन को ही प्राप्त है। अंग्रेजी में एक शब्द है ‘ब्रिंकमैनशिप’ जिसका हिंदी अनुवाद-कुल्हाड़ी पर पैर मारने-की प्रवृत्ति माना जा सकता है। जब हम 70 के दशक में आपातकाल के आसपास शरद जोशी जैसे लेखकों को इंदिरा जी पर, भजनलाल जी पर लिखते देखते हैं तो पाते हैं कि यह प्रवृत्ति हिंदी व्यंग्यकारों में प्रचुर मात्रा में भरी है।

मुझे लगता है मेरा भी ऐसा स्वभाव है। इससे पहले आप मेरे इस प्रकार गाल बजाने से उत्साहित हो उठें, मैं अपने संदर्भ में इस प्रवृत्ति की तह में जाता हूं। वैसे तह तक जाने से मैं और आप बहुत ज्ञानी नहीं हो जाएंगे, किंतु फिर भी मैं जाऊंगा और मेरा निवेदन है कि आप भी आएं, क्योंकि मुझे तो अपनी बात हर हाल में कहनी ही है और चूंकि आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं इसलिए मुझे यह भी पता है कि आपके पास समय है। सो तह तक जाने से मुझे लगता है कि हिंदी व्यंग्यकार के तौर पर अपने साहस के पीछे मेरा अपठनीय होना है और उपेक्षित होना है।

बहुधा तीक्ष्ण से तीक्ष्ण लेखन संपादकों की सजग दृष्टि के पार इसी विश्वास के कारण हो जाता है कि इसे पढ़ता कौन है? इस व्यंग्य वीरता के पीछे भारतीय समाज का कान्वेंटीकरण है। हिंदी व्यंग्यकार अपनी साहित्यिक नगण्यता को लेकर आश्वस्त होता है अत: ‘अपन किसी के बाप से नहीं डरते’ का भाव लिखकर लेखनी उठाता है और वाम-दक्षिण का भेद त्यागकर उत्पात मचाता है। वह यह नहीं बताता कि इस वीरता के पीछे अपन को किसी का बाप भी नहीं पढ़ता-वाला विश्वास भी है। विरले ही ऐसा कोई अवसर उत्पन्न होता है जब आपका लिखा हुआ कुछ पढ़ लिया जाता है और आपसे कहा जाता है कि थोड़ा नरम कर दें, बदल दें। ऐसे समय हिंदी व्यंग्यकार उस मध्यवर्गीय बालक की भांति चमत्कृत सा हो जाता है जिसके अभिभावक उसे चलना-बोलना तो बड़ी शिद्दत से सिखाते हैं और फिर मौके की नजाकत के मुताबिक चुपचाप बैठ जाने को कह देते हैं। ऐसा मेरे साथ बहुत कम ही होता है। मेरे प्रकाशकों का भी मानना है कि इसके हाशिये पर हीरो बनने से किसी का कुछ बिगड़ना नही है।

मेरा मानना है कि जैसा बौद्धिक कान्वेंटीकरण प्रबुद्ध, प्रतिष्ठित भारतीय समाज में आज है, हिंदी व्यंग्यकार सुरक्षित भाव से व्यंग्य लिखे जा सकता है। साहित्यिक पुरस्कारों के अभाव में आप उन्हें लौटाकर समाज की दिशा और दशा तो बदल नहीं सकते हैं, सो बेखटके लिखें, आग उगलें और साहित्य के न सही रद्दी-कबाड़ी वालों के प्रिय लेखक बनने का प्रयास करें। यही मैं कर रहा हूं। मैं निरंतर लिखते रहकर रद्दीवालों के माध्यम से गृहिणियों को स्टील की कटोरियां दिलाने को कटिबद्ध हूं। मुझे विश्वास सा हो चला है कि कबाड़ी समाज रद्दी के निर्माण में बहुमूल्य योगदान के लिए एक न एक दिन मुझे महान साहित्यकार मानेगा। मेरी अपठित लेखक होने की छद्म वीरता एक दिन मुझे साहसी और जुझारू लेखक का सम्मान अवश्य देगी, ऐसा मुझे विश्वास है। मुझे पदक और कप न मिलें, जिन्हें मैं जरूरत के वक्त लौटा सकूं, परंतु मैं अपने पाठकों को प्लेट और कटोरियां अवश्य दिलाऊंगा, ऐसा मेरा प्रयास है।

 

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]