[ हर्ष वी पंत ]: लोकतंत्र अनगिनत खूबियों वाली व्यवस्था है। यह तमाम तरह के असंतुलन को संतुलित कर देता है। लोकतांत्रिक राजनीति अनुमानों को झुठलाने वाली साबित होती है। वह तमाम समस्याओं को उसी तरह एक झटके में छूमंतर कर सकती है जैसे उन्हें पैदा कर सकती है। मालदीव में राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने तंत्र को जिस तरह अपने शिकंजे में लिया हुआ था उसे देखते हुए जब अधिकांश लोग यह मान बैठे थे कि उन्हें दूसरा कार्यकाल मिलना महज एक औपचारिकता भर है तब हिंद महासागर में बसे इस छोटे से द्वीपीय देश ने सत्ता में बदलाव के लिए मुहर लगाकर सबको चकित कर दिया। वहां 89 प्रतिशत मतदान हुआ। यानी भारी संख्या में वोट देने के लिए निकले लोगों ने यामीन को जबरदस्त झटका दिया।

मालदीव की जनता ने संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के हाथ में सत्ता की चाबी सौंप दी। चुनावी नतीजे आने के कुछ घंटों बाद तक यह आशंका जताई जा रही थी कि शायद यामीन जनादेश स्वीकार न करें। ऐसी आशंकाओं के उलट उन्होंने अपनी हार स्वीकार करते हुए टेलीविजन पर प्रकट होकर कहा, ‘मालदीव की जनता जो चाहती है उसने वही फैसला किया। मैं नतीजों को स्वीकार करता हूं।’

सोलिह मालदीव के वरिष्ठ नेताओं में से एक हैं। इन चुनावों में वह मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी यानी एमडीपी, जम्हूरी पार्टी और अधालत पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद के संयुक्त प्रत्याशी थे। उनका सत्ता में आना मालदीव के नेताओं की इस प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है कि वे देश में लोकतंत्र के भविष्य को सुनिश्चित रखने के लिए कितने संजीदा हैं। यह कितनी बड़ी उपलब्धि है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि देश से निर्वासित पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने ट्वीट के माध्यम से कहा, ‘सोलिह ने मालदीव की जनता की महान सेवा की है।’

2012 में यामीन ने ही नशीद को सत्ता से बेदखल किया था। मालदीव में लोकतंत्र समर्थकों के लिए यह करो या मरो की लड़ाई थी जिसमें उन्हें सफलता भी मिली। चुनाव नतीजे आने के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने रविवार को जारी बयान में कहा कि यह न केवल मालदीव में लोकतांत्रिक शक्तियों की जीत हैैं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों और कानून के राज के प्रति समर्पण को भी दर्शाते हैैं। अमेरिकी विदेश विभाग ने भी कहा कि मालदीव की जनता ने देश के भविष्य को निर्धारित करने के लिए अपनी लोकतांत्रिक आवाज बुलंद की।

असल में मालदीव पहली बार लोकतांत्रिक रूप से चुने गए राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद की सत्ता से विदाई के बाद से ही अस्थिरता के दौर से गुजर रहा था। 2012 में हुए पुलिस विद्रोह के बाद नशीद को सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसके बाद 2013 में यामीन का विवादित चुनाव हुआ जब नतीजों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद यामीन को दूसरे दौर में जीतने के लिए एक अवसर मिल गया।

यामीन के कार्यकाल में मालदीव में इस्लामिक चरमपंथ का असर बढ़ा जिससे देश का लोकतांत्रिक ढांचा दबाव में आ गया। इस साल फरवरी में उन्होंने देश पर 45 दिनों के लिए आपातकाल थोप दिया। दरअसल उन्हें विपक्ष की ओर से महाभियोग लाने का डर सता रहा था। इसी वजह से उन्होंने आपातकाल लगाने से गुरेज नहीं किया। इसमें उन्होंने अपने सौतेले भाई और पूर्व राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गय्यूम को भी निशाना बनाने से नहीं बख्शा। इसके साथ ही वह न्यायपालिका पर अंकुश लगाने में भी पीछे नहीं रहे। यहां तक कि चुनावों से ऐन पहले उन्होंने विपक्षी दलों को प्रताड़ित करने के लिए पुलिस बल का भी उपयोग किया। इससे यही आशंका बढ़ी कि चुनावी हवा की बयार को यामीन के पक्ष में मोड़ा जा रहा है।

इस दौरान यामीन अपने देश के लोकतांत्रिक ढांचे को तहस-नहस करने में जुटे रहे। उन्होंने चीन और सऊदी अरब से ज्यादा गाढ़ी दोस्ती गांठ ली और नई दिल्ली को नजरअंदाज करने लगे। यहां तक कि 2016 में उन्होंने मालदीव को राष्ट्रमंडल समूह से ही अलग कर लिया।

यामीन चीन के साथ जिस कदर गलबहियां बढ़ा रहे थे उससे एक तरह से भारत का खेल ही खराब हो रहा था। पिछले साल यामीन के चीन दौरे के दौरान दोनों देशों के बीच 12 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए जिनमें मुक्त व्यापार समझौता यानी एफटीए भी शामिल था। यामीन ने न केवल चीन के महत्वाकांक्षी बेल्ट रोड इनिशिएटिव का पुरजोर समर्थन किया, बल्कि पाकिस्तान के बाद मालदीव दक्षिण एशिया का दूसरा ऐसा देश बन गया जिसने चीन के साथ एफटीए जैसा करार किया।

यामीन ने देश की संसद-मजलिस से एफटीए को पारित करा लिया और संसद सत्र में विपक्षियों की भागीदारी की राह में रोड़े अटका दिए। विपक्ष ने यामीन सरकार पर चीन की जमीन हड़पने की नीति को प्रश्रय देने का आरोप लगाया जिसके तहत बुनियादी ढांचे की प्रमुख परियोजनाओं और यहां तक कि मूलभूत सेवाओं का काम चीन को सौंप दिया गया। इससे न केवल मालदीव की स्वतंत्रता खतरे में पड़ गई, बल्कि समूचे हिंद महासागर क्षेत्र की सुरक्षा के समक्ष गंभीर जोखिम उत्पन्न हो गए। चीनी कर्ज के दम पर व्यापक बुनियादी ढांचे में वृद्धि यामीन के चुनाव प्रचार अभियान का अहम हिस्सा था, लेकिन चीनी कर्ज के जाल में फंसने की आशंका से भयभीत देशवासियों को यामीन का यह दांव रास नहीं आया।

यामीन भले ही चुनाव हार गए हों, लेकिन मालदीव जिन तमाम चुनौतियों से जूझ रहा है वे अभी भी जस की तस कायम हैं। यामीन को सत्ता से बेदखल करने के मामले में विपक्ष ने एकजुटता जरूर दिखाई, लेकिन सरकार चलाते समय इस एकता की कड़ी परीक्षा होगी।

मालदीव में लोकतांत्रिक संस्थान कमजोर हुए हैं। लोकतंत्र की ऐसी नाजुक अवस्था भी खतरनाक होती है। यदि शासन सुचारू रूप से न चले तो फिर संदिग्ध और चरमपंथी विचारधाराएं सिर उठाने लगती हैं। फिर चीन की चिंता भी चुटकी में काफूर नहीं होने वाली। मालदीव में उसकी आर्थिक मौजूदगी एक वास्तविकता है जिसके साथ केवल मौजूदा नहीं, बल्कि आने वाली सभी सरकारों को भी ताल मिलानी पड़ेगी।

सत्ता से यामीन की विदाई ने नई दिल्ली के लिए निश्चित रूप से एक माकूल मौका मुहैया कराया है। नई दिल्ली को बिना कोई वक्त गंवाए माले के साथ अपने रिश्तों को पटरी पर लाने की कवायद में जुट जाना चाहिए। यदि पिछले कुछ वर्षों में मालदीव के संकट से कोई एक सबक सीखा जा सकता है तो वह यही होगा कि भारत के आस-पड़ोस में सत्ता के शीर्ष पर राजनीतिक अभिजात्य वर्ग की तस्वीर बदलती रहेगी, लेकिन यदि भारत अपने पड़ोसी देशों की जनता की आकांक्षाओं और उम्मीदों के साथ खड़ा रहेगा तो इन देशों के साथ सतत एवं दीर्घावधिक रिश्तों की बेहतर संभावनाएं बनेंगी।

[ लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं ]