[ एनके सिंह ]: देश के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने सीबीआइ को इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक जज पर भ्रष्टाचार का मुकदमा दर्ज करने की इजाजत दे दी है। तमाम जांच-पड़ताल के बाद जज के प्राथमिक तौर पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने के सुबूत मिले हैैं। संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका खासकर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को नैतिकता की प्रतिमूर्ति मानते हुए उन्हें पद पर रहने के दौरान हर संवैधानिक सुरक्षा कवच से नवाजा था और उन्हें पद से हटाना एक जटिलतम प्रक्रिया यानी महाभियोग के तहत लगभग नामुमकिन कर दिया था। जिस प्रजातंत्र को उन्होंने इतनी कुर्बानियां देकर हासिल किया उसके भावी पतन का शायद उन्हें अंदाजा नहीं था।

सीएम के आदेश पर प्रशासन ‘कांवड़ियों’ के आगे नतमस्तक

देश में पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के आदेश पर पूरा प्रशासन ‘कांवड़ियों’ के आगे इतना नतमस्तक हो गया कि एक जिले के एसपी ने एक कांवड़िये का सार्वजानिक रूप से न केवल पैर दबाया, बल्कि उसका वीडियो आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड भी किया, ताकि मुख्यमंत्री देख सकें कि उनके आदेश का अमल किस शिद्दत से किया जाता है। एक अन्य जिले में डीएम और एसपी ने उन पर हेलीकॉप्टर से फूल बरसाए और मीडिया को उसका वीडियो उपलब्ध कराया।

ब्यूरोक्रेसी का फौलादी ढांचा रीढ़विहीन

लौहपुरुष सरदार पटेल को इस ‘स्टील फ्रेम’ (वह ब्यूरोक्रेसी को फौलादी ढांचा कहते थे) पर इतना भरोसा था कि संविधान के अनुच्छेद-311 में अधिकारियों को दिए गए सुरक्षा कवच के पक्ष में उन्हें कहा था कि यह कवच इसलिए जरूरी है ताकि अधिकारी राजनीतिक आकाओं के सामने तन कर अपनी बात कह सकें और काम कर सकें। आज 70 साल बाद वह फौलादी ढांचा रीढ़विहीन दिखने लगा है।

विधायक पर हत्या का और हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज

उत्तर प्रदेश के ही उन्नाव जिले में सत्ताधारी दल का एक विधायक एक नाबालिग लड़की से दुष्कर्म के आरोप में साल भर से जेल में बंद है। कुछ दिन पहले जब परिवार के साथ वह पीड़िता एक गाड़ी में जा रही थी तो गलत दिशा से आ रहे एक ट्रक ने जबरदस्त टक्कर मारी। उसके बाद से वह पीड़िता वेंटिलेटर पर है और उसके वकील गंभीर रूप से घायल हैैं, जबकी उसके दो रिश्तेदार मौके पर ही मर गए। पीड़िता की मां तथा चाचा के आरोप पर और पूरे राज्य में लोगों के जनाक्रोश को देखते हुए पुलिस ने विधायक पर हत्या का और हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज किया। जाहिर है अगर आरोपी विधायक गवाहों को डराने-धमकाने के अंदेशे में जेल में नहीं रहता तो इन दिनों विधानसभा में कानून बना या बिगाड़ रहा होता।

भ्रष्टाचार मामले में जेल की सजा काट चुके तमांग सिक्किम के सीएम

एक अन्य मामले पर जरा नजर डालें। सिक्किम में जनता ने सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा को बहुमत दिया और विधायकों के बहुमत ने, जिनमें भारतीय जनता पार्टी भी शामिल है, अपने नेता प्रेम सिंह तमांग को मुख्यमंत्री बनाया, जबकि वह 2017 में भ्रष्टाचार के मामले में साल भर जेल की सजा काट चुके थे और चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो चुके थे। यहां सवाल है कि आखिर किसका विवेक गलत था, जनता का या विधायकों का? अब मुख्यमंत्री चुनाव आयोग से गुहार लगा रहे हैं कि कानून में प्रदत्त अधिकारों के तहत वह उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति दे दे।

जनता के सामने विकल्पहीनता की स्थिति

भ्रष्टाचार में चार्जशीट के बावजूद राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू यादव उस समय के कानून (अंतिम अदालत से सजा न मिलने तक अभियुक्त पाक-साफ माना जाता था) के मुताबिक वर्षों तक बिहार में सरकार बनाते रहे और संसद में मंत्री के रूप में कानून बनाते रहे। बिहार की जनता उन्हें वोट भी देती रही। सवाल है कि क्या 70 वर्षों में जनता का विवेक अपने प्रतिनिधियों को लेकर आज भी वही है या अच्छे नैतिक बल वाले लोग राजनीति में आ ही नहीं रहे हैैं? आज जनता के सामने विकल्पहीनता की स्थिति आ गई है या फिर सत्ता के असर के चलते राजनीति अपना नैतिक प्रभाव खोती जा रही है?

हम खड़े हैं नैतिक पतन के सबसे निचले पायदान पर

आजादी के इतने वर्षों प्रजातंत्र के बाद अगर हमारे कुछ न्यायाधीश, जन-प्रतिनिधि और हमारी ब्यूरोक्रेसी का एक बड़ा भाग नैतिक पतन के सबसे निचले पायदान पर दिखाई देते हैं तो यह गंभीर चिंता की बात है। यह भी उतनी ही चिंता की बात है जब जनता भ्रष्टाचार की सजा काट रहे नेता वाली पार्टी को बहुमत दिलाकर और सत्ता में लाकर अपना भाग्यविधाता बनाती है और वह संविधान में निष्ठा की शपथ लेकर फिर वही सब कुछ करता है जो कानूनन जुर्म है।

अल्पसंख्यक मत का कोई स्थान नहीं

1828 में अमेरिका में जैक्सोनियन युग के प्रजातंत्र की धूम थी। उसे समझने के लिए फ्रांस के राजनीतिक शास्त्र के जाने-माने विद्वान टोक्विल अमेरिका गए और उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि यह सबसे खराब प्रजातंत्र है जिसमें अल्पसंख्यक मत का न तो न्यायपालिका में, न ही विधायिका में और न ही किसी और जन विमर्श में कोई स्थान है। उन्होंने वापस लौटकर ‘बहुसंख्यक का आतंक’ शीर्षक से एक लेख लिखा जो भविष्य के प्रजातंत्र के लिए दिशा-निर्देशक बना।

अंगूठाछाप आदमी को मतदान का अधिकार नहीं

उसी तरह 1860 में ब्रिटेन में भी सबको मतदान का अधिकार संबंधी विवाद पर प्रजातंत्र में उदारवाद के जनक जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा था, ‘मैं इसका पक्षधर कभी नहीं हो सकता कि अंगूठाछाप आदमी को मतदान का अधिकार मिले।’ इसके विपरीत भारत में पंडित जवाहरलाल नेहरू और बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने सार्वजानिक व्यस्क मताधिकार के पक्ष में संविधान बनाया, जबकि उस समय साक्षरता मात्र 12 प्रतिशत थी। आज साक्षरता 76 प्रतिशत है, लेकिन क्या इसके साथ लोगों की सोच, तर्क-शक्ति और सामूहिक समझ भी बदली है?

प्रजातंत्र में ‘नैतिक लोचा’

क्या बेहतर शिक्षा, प्रति-व्यक्ति आय, सूचना के प्रवाह ने भारत के नागरिकों की नैतिक गुणवत्ता बदली है? अगर हां, तो जज भ्रष्टाचार का आरोपी क्यों है, विधायक दुष्कर्म और हत्या के आरोप के बाद भी अपनी पार्टी का सदस्य क्यों है? कैसे जनता एक साल जेल की सजा काट चुके एक नेता की पार्टी को सरकार बनाने के लिए चुन लेती है और कैसे वह नेता संविधान को ठेंगा दिखाते हुए मुख्यमंत्री बन जाता है? और अंत में कैसे फौलादी ढांचे की बुनियाद का कोई हिस्सा-आइएएस और आइपीएस रीढ़विहीन हो जाते हैं? शायद प्रजातंत्र में ही कहीं ‘नैतिक लोचा’ है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैैं )

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