[क्षमा शर्मा]। पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली के उत्तर पूर्वी इलाके जिस तरह भीषण सांप्रदायिक हिंसा से जल उठे और तीन दिन में 48 लोगों ने जान गंवा दी वह दिल दहलाने वाला है। जिस धर्म और मंदिर-मस्जिद के नाम पर लोग लड़ रहे थे वे उन्हें बचाने नहीं आए। आखिर यह धर्म की कैसी रक्षा है, जो एक-दूसरे की जान लेने पर आमादा हो जाती है?

दंगा प्रभावित इलाकों से जितनी भी खबरें आईं उनमें लगभग एक जैसी बातें कही गईं कि यहां तो कभी ऐसा हुआ ही नहीं... सब एक-दूसरे से प्यार से रहते आए हैं। हिंदू ने मुसलमान और मुसलमान ने हिंदू को बचाया है। देखने की बात यह है कि दशकों का प्यार एकाएक इतनी घृणा में तब्दील कैसे हो गया? घृणा एक दिन में नहीं पनपती है। यह हमारे मन में रहती है और मौका मिलते ही बाहर निकल आती है। भाई-भाई के नारे इस घृणा को छिपाने के लिए ही लगाए जाते हैं। वरना तो जो भाई-भाई हैं उन्हें यह बार-बार कहने, बताने की जरूरत कब पड़ती है कि वे भाई-भाई हैं?

कैसे बनाया गया चुन-चुनकर निशाना

सवाल यह भी है कि जब इतना भाईचारा था तो फिर आखिर मारा किसने? जिनसे भी पूछा गया कि दंगाई कौन थे तो लगभग सभी ने एक ही बात कही कि वे दंगाइयों को नहीं पहचानते और दंगाई बाहर से आए थे। अगर यह मान भी लें कि दंगाई बाहर से आए थे तो उन्हें यह कैसे पता चला कि मिली-जुली आबादी में कौन सा घर हिंदू का है और कौन सा मुसलमान का? चुन-चुनकर निशाना कैसे बनाया गया?

सच तो यह है कि हिंसा प्रभावित इलाकों में लोग दंगाइयों को पहचानते होंगे, लेकिन वे बताना नहीं चाहते। बता देंगे, दंगाइयों की पहचान उजागर कर देंगे तो पूछने वाले तो अपने-अपने रास्ते जाएंगे। क्या पता दंगाई लौटकर दोबारा आ धमकें। इसके अलावा अगर दंगाइयों का नाम ले दें तो पुलिस के चक्कर में कौन पड़ेगा? कौन कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाएगा? इन साधारण लोगों में से कितनों के पास इतना समय और संसाधन है कि वे सारा काम-धाम छोड़कर कोर्टकचहरी के लिए दौड़ सकें?

हर तरह की सांप्रदायिकता खतरनाक

क्या हमें सांप्रदायिकता की परिभाषा पर फिर से नहीं सोचना चाहिए? अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता बहुसंख्यक सांप्रदायिकता से कम खतरनाक होती है, के मुकाबले इस बात पर जोर क्यों नहीं होना चाहिए कि हर तरह की सांप्रदायिकता खतरनाक होती है। एक की सांप्रदायिकता दूसरे की सांप्रदायिकता को हर हाल में बढ़ाती ही है।

इसलिए दूसरे की तरफ अंगुली उठाने से पहले अपनी-अपनी नफरत से लड़ना चाहिए। अपने-अपने दंगाइयों को बचाने के बजाय उन्हें पुलिस के हवाले किया जाना चाहिए। उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। बुराई और बुरे लोगों का साथ देना भी अपराध को बढ़ावा देना ही है, क्योंकि मरे कोई भी, अंतत: इंसान ही मरता है। इसका सबसे अधिक खामियाजा परिवारों को भुगतना पड़ता है। आखिर इन सबका कसूर क्या था?

मन में बैठी नफरत को करें दूर

दरअसल नाम तो कथित धर्म की रक्षा का होता है, लेकिन मारकाट, हिंसा अपनी-अपनी पैशाचिक ताकत दिखाने की होती है। दिल्ली दंगों में जिस तरह आम लोग मारे गए हैं उसका सबक यही है कि ऊपर से भाई-भाई और हम सब एक हैं के नारे लगाने के बजाय हम अपने मन में बैठी नफरत को दूर करें। अफसोस कि राजनीतिक दलों के वोटों का गुणा- भाग समाज में फैली इसी हिंसा, इसी ध्रुवीकरण से तय होता है। वोटों के लिए पहले नफरत के बीज बोए जाते हैं और पलटकर फिर भाई-भाई की बातें की जाती हैं।

नेताओं को इस तरह का अभिनय करना, झूठ बोलना बखूबी आता है। क्या लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ लड़ाई झगड़ा और मार-काट ही रह गया है? सभी पार्टियां जाति-धर्म को न मानने की कसमें खाती हैं, लेकिन छोटे से छोटे चुनाव के वक्त उम्मीदवारों का चयन इसी आधार पर करती हैं और हम उन्हीं के उकसावे में आकर एक-दूसरे की जान लेते हैं।

लोगों को उकसाया गया 

पिछले दिनों जिन नेताओं, बुद्धिजीवियों ने लोगों को उकसाया, क्या उनमें से किसी का भी बाल बांका हुआ। क्या किसी का कोई नुकसान हुआ। किसी का नहीं हुआ। मारे गए आम लोग और आम लोगों की ही संपत्ति स्वाहा हुई। लोगों को उकसाने और उन्हें सड़कों पर उतारने वाले तो प्रभावित इलाकों में कहीं नजर भी आए। वैसे भी अगर घटना हो जाए, कोई मुसीबत आ जाए तो उसके गुजरने के बाद अक्सर लोग बुद्धिमान बनते हैं। मुसीबत के समय मदद को आना तो दूर, पता नहीं किन दड़बों में घुस जाते हैं?

टीवी चैनल्स और सोशल मीडिया में इन दिनों जिस तरह नफरत का प्रचार-प्रसार किया जाता है, अक्सर एकपक्षीय बातें की जाती हैं वे बेहद निंदनीय हैं। आखिर यह कहने से किस तरह से सांप्रदायिक सद्भाव हो सकता है कि हम अपने-अपने पक्ष चुन लें। नुकसान अगर दोनों पक्षों का हुआ है तो हमें दोनों पक्षों की बात करनी चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। 

सभी एक पक्ष की करते हैं बात 

मीडिया से लेकर बुद्धिजीवी तक सिर्फ एक पक्ष की बात करते हैं और उसी में अपनी प्रगतिशीलता समझते हैं। ऐसा महसूस होता है कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना’ जैसी पंक्तियों को बदल दिया जाए। बताना चाहिए कि यह मजहब ही है जो एक-दूसरे से नफरत करना सिखाता है। जो अपने से इतर दूसरे को बर्दाश्त करने में अपनी हेठी समझता है।

इसीलिए धर्म की स्थापना और श्रेष्ठता के नाम पर दूसरे धर्मावलंबी को नेस्तनाबूद करने की सोचता है और यह भी कि आतंक का किसी धर्म से लेना-देना नहीं है। आखिर दुनिया में धार्मिक पहचान के आधार पर ही तरह-तरह का आतंकवाद फैल रहा है। हम भले ही सियासी रोटियां सेकने के लिए उसे न मानें। हाल में ऐसे तमाम वीडियो सामने आए, जिनमें बदला लेने, सड़क पर देख लेने की बातें की गई हैं। आखिर नफरत का यह कारोबार कब थमेगा और कैसे? 

 

(लेखिका साहित्यकार हैं)