[ विकास सारस्वत ]: संसद से नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए पारित होने के बाद उसके अंधविरोध की चिनगारी ने जो हिंसक रूप धारण किया उसके चलते देश की राजधानी दिल्ली में 40 से अधिक लोगों की जान चली गई और अरबों रुपये की संपत्ति स्वाहा हो गई। सीएए के विरोध में हैरान करने वाली बात यह है कि विरोधी सीएए में किसी आपत्तिजनक प्रावधान को इंगित न कर कानून वापस लेने की जिद पर अड़े हुए हैं। इस कानून के साथ एनआरसी के स्वकल्पित भय को जोड़कर उन्होंने हिंसा का बहाना बनाया। इस स्थिति को बनाने में कई पत्रकारों, नेताओं, बुद्धिजीवियों एवं कलाकारों ने नकारात्मक ही नहीं, बल्कि घातक भूमिका निभाई।

सीएए के विरोधी भारतीय नेतृत्व के प्रति भावनाएं भड़का रहे हैं

विरोध की अगुआई कर रहे स्वर सीएए के किसी प्रावधान पर बात न कर केवल भारतीय नेतृत्व के प्रति भावनाएं भड़का रहे हैं। बतौर उदाहरण पत्रकार सबा नकवी ने विरोधियों से अदालतों के सहारे न रहकर सड़कों पर उतरने का आह्वान किया वहीं एआइएमआइएम नेता वारिस पठान ने 15 करोड़ मुसलमान होने के बावजूद सौ करोड़ हिंदुओं पर भारी पड़ने की धमकी दी। जब छात्र नेता शर्जील इमाम असम को भारत से काटने की बात कर रहा था तब कवि हुसैन हैदरी सीएए को राज्य प्रायोजित हिंदू आतंकवाद बता रहा था।

खुद सोनिया गांधी ने घरों से बाहर निकलने की आवाज दी

छोटे-बड़े राजनीतिक दलों ने भी आग में घी डालने का काम किया। खुद सोनिया गांधी ने अस्तित्व का हवाला देकर वर्ग विशेष को घरों से बाहर निकलने की आवाज दी और अकबरुद्दीन ओवैसी ने भारत को अपने मतावलंबियों की पैतृक जागीर बताया। विपक्ष और वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा समर्थित जहरीले विरोध का आलम यह था कि खुलकर जिन्ना वाली आजादी के नारे लगाए गए। कई मंचों से संख्या बल बदलने पर बहुसंख्यक समुदाय को देख लेने की धमकी भी दी गई। 

सीएए विरोधी आंदोलन की आड़ में विरोध नहीं, बल्कि विद्रोह है

इसमें कोई संदेह नहीं कि सीएए विरोधी आंदोलन की आड़ में जो कुछ हुआ और हो रहा है वह विरोध नहीं, बल्कि एक तरह का विद्रोह है। इन्हीं विद्रोही तेवरों के चलते संसद, संविधान और न्यायिक प्रक्रिया को धता बताकर यह एलान किया जा रहा है कि शाहीन बाग ने फैसला ले लिया है और उससे पीछे हटने का सवाल नहीं। हिंसा और उग्र प्रदर्शनों में अपना दृष्टिकोण समझाने की कोई गुंजाइश नहीं है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र को संख्या बल और हिंसा के दम पर झुकाने का प्रयास है।

ट्रंप के दौरे पर भड़काई गई हिंसा

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दौरे पर भड़काई गई हिंसा इस बात का सबूत है कि विद्रोह की चिर परिचित प्रोपेगेंडा शैली में भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक संघर्ष क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया। तथाकथित विरोध के क्रम में आजादी के नारों को भले ही चतुराई के साथ गांधी और निज अधिकारों के साथ जोड़ा जा रहा हो, लेकिन उनका सांप्रदायिक तेवर विघटनकारी उन्माद के रूप में ही सामने आ रहा है। बड़ी धूर्तता के साथ भूख-प्यास से आजादी के साथ-साथ कश्मीर और उत्तर पूर्वी राज्यों की आजादी के नारे भी सरका दिए गए। कागज नहीं दिखाने का एलान बगावत का वह रूप है जिसके तहत अंग्रेजी शासनकाल में नागरिक अवज्ञा का झंडा उठाया गया था।

पिछले दो लोकसभा चुनावों के नतीजों की हताशा

असल में पिछले दो लोकसभा चुनावों के नतीजों की हताशा में जनतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास को क्षीण करने के भरसक प्रयास किए जा रहे हैं। ईवीएम पर प्रश्नचिन्ह और बहुसंख्यकवाद जैसी शब्दावली का निर्माण इसी प्रक्रिया का हिस्सा है।

सीएए के विरोध में दिल्ली दंगा एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा था

सीएए विरोध में अन्य स्थानों पर हुई हिंसा की ही भांति दिल्ली दंगों में भी पुलिस और सुरक्षाबलों को विशेष रूप से निशाना बनाया गया। इन हमलों में एक पुलिसकर्मी और एक गुप्तचर कर्मी की मौत हो गई और एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को गंभीर चोटें आईं। एक अन्य स्थान पर अर्धसैनिक बलों के ऊपर तेजाब फेंका गया। पुलिस और सुरक्षाबलों को निशाना बनाना क्षणिक भावावेश न होकर एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा ही था।

दिल्ली में पुलिसकर्मियों पर हुए हमलों में नक्सली विचार की झलक मिलती है

वास्तव में वह नक्सली विचारधारा जो पिछले पांच दशकों से भारत में व्यापक जन विद्रोह खड़ा करने का प्रयास कर रही है और जिस पर सीएए के विरोध को हवा देने के आरोप लगते हैं, भारतीय जनतंत्र को धोखा बताती रही है। नक्सलवाद के शीर्ष विचारक चारू मजूमदार का कहना था कि क्रांतिकारियों को ऐसा सजग नेतृत्व देना होगा जो नौकरशाहों, पुलिस कर्मियों और सैन्य अधिकारियों पर वार कर सके। मजूमदार ने यह भी कहा था कि हमारी लड़ाई थानों और इमारतों से नहीं, बल्कि पुलिसकर्मियों और अधिकारियों से है। क्रांतिकारियों को ध्यान रखना होगा कि हमला सिर्फ हमले के लिए नहीं बल्कि अधिकारी और पुलिसकर्मियों को खत्म करने के लिए होना चाहिए। दिल्ली में पुलिसकर्मियों पर लगातार हुए हमलों में इस नक्सली विचार की स्पष्ट झलक मिलती है। यह भी ध्यान रहे कि जहां फिल्मी दुनिया से जुड़े कुछ लोगों ने पुलिस को दंगाइयों के समकक्ष बताने की भद्दी कोशिश की वहीं कई तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अंकित शर्मा की जघन्य हत्या को आत्मरक्षा से जोड़ने में देर नहीं की। 

भारतीय जनतंत्र को अनैतिक और अवैध ठहराने का प्रयास

जहां पुराने वामपंथियों का मानना था कि भारतीय सत्ता सामंतवादी और उपनिवेशवादी है, वहीं आज के विद्रोही सत्ता पर फासीवाद के आरोप लगा रहे हैं। दोनों ही स्थितियों में भारतीय जनतंत्र को अनैतिक और अवैध ठहराने का प्रयास जारी है। हां, एक बड़ा परिवर्तन वाहक समूह को लेकर हुआ है। पहले विद्रोह की कल्पना किसान क्रांति और वर्ग संघर्ष के भरोसे रही वहीं अब समुदाय विशेष का सहारा लेने का प्रयास हो रहा है। इसमें राष्ट्रीय स्तर पर पीएफआइ जैसी संस्थाओं और स्थानीय स्तर पर अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों के छात्र संगठनों के साथ गठजोड़ बनाए जा रहे हैं।

सीएए विरोध और दिल्ली दंगा शरिया-नक्सल गठजोड़ का प्रयोग है

शरिया-नक्सल गठजोड़ की यह बगावत राष्ट्र के सामने एक भीषण चुनौती बन गई है। सीएए विरोध और दिल्ली दंगा इस गठजोड़ का वह प्रयोग ही है जिसकी तरफ प्रधानमंत्री ने हाल में इशारा किया था। उम्मीद करनी चाहिए कि दिल्ली दंगों के बाद विपक्षी दल विरोध के नाम पर विद्रोह को हवा देना बंद कर तनिक गंभीरता का परिचय देंगे।

( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य और स्तंभकार हैं )