ब्रजबिहारी, नई दिल्ली। इन दिनों इंग्लैंड और वेल्स में चल रहे 12वें विश्वकप क्रिकेट टूर्नामेंट में आज भारत और पाकिस्तान के बीच मैच है, जिसे हर चार साल बाद होने वाले इस आयोजन का सबसे बड़ा मुकाबला माना जा रहा है। भारतीय टीम हर लिहाज से पाकिस्तान से ज्यादा मजबूत नजर आ रही है। लेकिन ऐसे में अगर आज पाकिस्तान उसे हरा देता है तो भारत के ज्यादातर क्रिकेट प्रशंसक यही कहेंगे कि मैच फिक्स था।

आखिर ऐसा कहने की नौबत क्यों आती है? देखा जाए तो लगभग 20 साल बीतने के बावजूद क्रिकेट की दुनिया पर मैच फिक्सिंग का साया दूर नहीं हुआ है। कई क्रिकेट प्रशंसकों ने तो इसी वजह से मैच देखने भी बंद कर दिए हैं, क्योंकि अपने हीरो को चंद पैसों के लिए बिकते देखना उनके लिए कठिन होता है। इस शानदार खेल की इस हालत के लिए सट्टेबाजी की दुनिया पर राज करने वाले बुकी, पंटर, खिलाड़ी, अंपायर से लेकर पुलिस, प्रशासनिक अधिकारी व राजनेता तक जिम्मेदार हैं। हालांकि कुछ खिलाड़ियों और अन्य आरोपियों पर कार्रवाई होती रही है, लेकिन आज तक मैच फिक्सिंग की जिम्मेदार किसी ताकतवर शख्सियत तक कानून के हाथ नहीं पहुंच पाए हैं।

आखिर क्या वजह है कि मैच फिक्सिंग बार-बार अपना सिर उठाती रहती है? क्या क्रिकेट में सट्टेबाजी को वैध कर देना ही आखिरी उपाय है? आखिर इतना ज्यादा पैसा कमाने वाले खिलाड़ी आखिर क्यों मामूली लाभ के लिए इस जाल में फंस जाते हैं? वरिष्ठ पत्रकार चंद्रमोहन पुप्पाला ने अपनी पुस्तक ‘नो बॉल: द मर्की वल्र्ड ऑफ मैच फिक्सिंग’ में ऐसे ही सवालों के जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की है। हालांकि सट्टेबाजी का खेल उतना ही पुराना है जितना क्रिकेट का इतिहास, लेकिन पहली बार वर्ष 2000 में दक्षिण अफ्रीका के मशहूर खिलाड़ी और तत्कालीन कप्तान हैंसी क्रोनिए का मामला सामने आने के बाद आम लोगों को यह पता चला कि मैच फिक्सिंग भी कोई चीज है। यह एक ऐसी दुनिया है जिसमें खिलाड़ी पैसों की एवज में मैच हारने के लिए खुद और साथियों को खराब खेलने के लिए मनाता है। ऐसे में बुकीज व सट्टेबाजों को थोड़े से पैसों के बदले अथाह रकम कमाने का मौका मिलता है।

चंद्रमोहन पुप्पाला ने सट्टेबाजी की इस दुनिया पर गहराई से शोध करने के बाद पुस्तक लिखी है। उनकी लेखन शैली सरल और प्रवाहमयी है। पुस्तक पढ़ने के बाद अगर किसी पाठक को यह लगे कि अब क्रिकेट जैसे खेल को देखने पर समय जाया करना बेकार है, तो इसका पूरा श्रेय लेखक को जाता है, जिन्होंने यह साबित करने में कामयाबी पाई है कि मैच फिक्सिंग और स्पॉट फिक्सिंग का अंधेरा दूर करने के लिए कोई कोशिश नहीं हो रही है। आखिर क्रिकेट प्रशंसक कैसे भूल सकते हैं कि जिस मोहम्मद अजहरुद्दीन पर मैच फिक्सिंग के कारण आजीवन प्रतिबंध का दाग लगा, वही बाद में जनप्रतिनिधि बनकर लोकसभा में पहुंच गए। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने उन्हें सम्मानित करने का भी फैसला कर लिया। सिर्फ अजहर ही क्यों, मैच फिक्सिंग में कई बड़े-बड़े खिलाड़ियों के नाम सामने आए, लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इस पुस्तक में दिल्ली पुलिस के पूर्व पुलिस प्रमुख नीरज कुमार के हवाले से बताया गया है कि कुछ संदिग्ध लोगों के खिलाफ जांच नहीं करने के लिए ऊपर से दबाव था। यह ऊपर का दबाव क्या होता है, हम सभी जानते हैं।

अब तो मैच फिक्सिंग ने स्पॉट फिक्सिंग का रूप धारण कर लिया है और इंडियन प्रीमियर लीग (आइपीएल) तक को अपने शिकंजे में ले लिया है। जाहिर है, क्रिकेट जैसे रोमांचक खेल पर फिक्सिंग का दाग लगाने वाले असली खिलाड़ियों तक कानून की आंच जब तक नहीं पहुंचेगी, तब तक छोटे-मोटे दोषियों को सजा देने से कोई फायदा नहीं होने वाला है। लेखक का मानना है कि क्रिकेट को इस बुराई से बचाने का एक ही उपाय है कि इसमें सट्टेबाजी को कानूनी मान्यता दे दी जाए। कई लोगों को इस पर आपत्ति हो सकती है, पर पुस्तक पढ़ने के बाद ऐसे लोगों का भी मन बदल सकता है।

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