नई दिल्ली [आदर्श तिवारी]। मौजूदा वैश्विक संकट के समय भारत में गरीबों और मजदूरों का भरोसा शहरों की तुलना में गांवों पर अधिक बढ़ा है। शायद यही कारण है कि इस संकट में मजदूर शहरों से गांवों की ओर जा रहे हैं, लेकिन कोरोना काल के बीत जाने के बाद इनके समक्ष आजीविका की बड़ी समस्या उत्पन्न होगी, जिसका समग्र समाधान फिलहाल बहुत मुश्किल दिखाई दे रहा है।

हालांकि मोदी सरकार द्वारा इन गरीब-मजदूरों के लिए फौरी मदद के तौर पर व्यापक राहत पैकेज की घोषणा जरूर की गई है, लेकिन इससे कितने मजदूरों को कब तक आजीविका उपलब्ध हो पाएगी, इसे समझ पाना भी बहुत मुश्किल नहीं है। इसी दौरान प्रधानमंत्री ने देशवासियों से लोकल प्रोडक्ट खरीदने का आह्वान तो किया है, लेकिन यह तभी संभव होगा जब व्यवस्था अधिक विकेंद्रीकृत होगी।

आर्थिक विकेंद्रीकरण का जिक्र होते ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम आना स्वाभाविक है। गांव को मजबूत करने के साथ आर्थिक केंद्रीकरण के मंडराते खतरों को वह निरंतर इंगित करते रहे। जनसंघ की अर्थ नीतियों में उन्होंने स्वदेशी, स्वावलंबन, भूमि व्यवस्था में परिवर्तन, आम जन को स्वावलंबी बनाने के लिए कुटीर उद्योग, श्रम का अधिकार, संयमित उपभोग और कृषि उत्पादन जैसे विषयों को शामिल किया था।

बीती सदी के सातवें दशक में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने हमारे अर्थतंत्र को मजबूत करने के लिए जो विचार दिए थे, वे आज के संदर्भ में पूरी तरह प्रासंगिक नजर आ रहे हैं। पंडित दीनदयाल का राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक दर्शन भारतीयता के मूल से निकला हुआ दर्शन है, किंतु वैचारिक मदभेदों के कारण देश में लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेसनीत सरकारों ने उन विचारों की उपेक्षा की, जिसका दुष्परिणाम हम बढ़ते पूंजीवाद, व्यवस्थाओं के केंद्रीकरण, आयात पर निर्भरता, असंतुलित औद्योगीकरण के रूप में देख सकते हैं। दीनदयाल जी विकेंद्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे।

उनका मानना था कि अर्थव्यवस्था का आधार हमारे गांव और जनपद होने चाहिए। हमें आत्मनिर्भर होना चाहिए। अपनी पुस्तक ‘भारतीय अर्थ नीति- विकास की एक दिशा’में दीनदयाल उपाध्याय लिखते हैं, ‘यह भी आवश्यक है कि हम आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनें। यदि हमारे कार्यक्रमों की पूर्ति विदेशी सहायता पर निर्भर रही तो वह अवश्य ही हमारे ऊपर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बंधनकारक होगी।

हम सहायता देने वाले देशों के आर्थिक प्रभाव में आ जाएंगे। अपनी आर्थिक योजनाओं की सफलता की पूर्ति में संभावित बाधाओं को बचाने की दृष्टि से हमें अनेक स्थानों पर मौन रहना पड़ेगा। गांव और किसान अगर समृद्ध हुए तो देश की प्रगति हर दिशा में संभव है।’मजदूरों के पलायन और सामने खड़ी आर्थिक चुनौतियों के बीच यकीनन दीनदयाल का दर्शन हमें रास्ता दिखा रहा है।

कुटीर उद्योग की महत्ता को समझते हुए जनवरी 1954 में ‘पांचजन्य’ में प्रकाशित एक लेख में दीनदयाल जी ने लिखा कि ‘औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने, जनता को आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाने तथा संपत्ति के सम विभाजन की व्यवस्था करने के लिए हमें कुटीर उद्योगों को फिर से विकसित करना पड़ेगा।’ वह केवल कुटीर उद्योगों को पुरानी पद्धति से शुरू करने की बात नहीं करते थे, बल्कि आधुनिक वैज्ञानिक उन्नति को ध्यान में रखते हुए इस व्यवस्था को आगे बढ़ाने की बात भी करते थे।

यही समय है जब आयात पर निर्भरता छोड़कर स्वदेशी निर्यात के लक्ष्य को बढ़ाया जाए। मजदूरों का पलायन, किसानों की बदतर स्थिति, रोजगार खत्म होने की आशंकाओं के बीच यह समझा जा सकता है कि दीनदयाल जी ने उस वक्त जो बातें कही थीं, वे सत्य के कितने करीब थीं। हमारे पास फिर एक अवसर आया है जब हम आत्मनिर्भरता के लिए नई व्यवस्था को विकसित कर सकते हैं।

(रिसर्च एसोसिएट, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन )